2018-06-29 11:24:00

परम्परा जीवन्त धारा जो हमें हमारे मूल से जोड़ती है, सन्त पापा फ्राँसिस


वाटिकन सिटी, शुक्रवार, 29 जून 2018 (रेई, वाटिकन रेडियो):  सन्त पापा फ्राँसिस ने कहा है कि परम्परा वह जीवन्त धारा है जो हमें हमारे मूल से जोड़ती है।

रोम के संरक्षक सन्त पेत्रुस एवं पौलुस के महापर्व के उपलक्ष्य में शुक्रवार को सन्त पेत्रुस महागिरजाघर के प्राँगण में ख्रीस्तयाग अर्पित कर सन्त पापा फ्राँसिस ने प्रवचन किया। उन्होंने कहा कि परम्परा का अर्थ केवल जीवन के लिये उपयोगी वस्तुओं अथवा शब्दों का प्रसारण मात्र नहीं है बल्कि परम्परा वह अनवरत बहती जीवन्त धारा है जो हमें हमारे मूल से जोड़ती तथा सुसमाचारी आनन्द से भरकर प्रभु येसु ख्रीस्त से हमारा परिचय कराती है।  

सन्त पापा ने कहा कि सम्पूर्ण सुसमाचार हमारे तथा इसराएल के हृदय में समाये इस प्रश्न का उत्तर है कि "क्या आप ही वह हैं जो आने वाले हैं, या हम किसी और की तलाश करें?" (सन्त मत्ती 11: 3)। और फिर येसु का शिष्यों के समक्ष उठाया गया सवालः "लेकिन तुम क्या कहते कि मैं कौन हूँ?" (मत्ती 16:15)।  

इसके उत्तर में सन्त पेत्रुस कहते हैं, "आप ख्रीस्त हैं, ईश्वर के अभिषिक्त और पवित्र"। सन्त पापा ने कहा कि ईश्वर की प्रेरणा से पेत्रुस यह सब कह सके इसलिये कि उन्होंने ख़ुद अपनी आँखों से प्रभु येसु ख्रीस्त को गाँव-गाँव में घूमकर लोगों को चंगाई प्रदान करते देखा था। उन्होंने उन्हें रोगियों, ग़ैरविश्वासियों, घायलों, समाज से बहिष्कृत लोगों और पापियों से बातें करते तथा उन्हें आशीष देते देखा था।

सन्त पापा ने कहा कि प्रभु येसु ख्रीस्त ने अपने कार्यों द्वारा जीवन से हताश लोगों से कहा कि वे उनके हैं। इसी तरह हम भी पेत्रुस की तरह अपने जीवन में अभिषिक्त येसु ख्रीस्त की आशीष प्राप्त करें तथा उनकी चंगाई को महसूस करें।

सन्त पापा फ्राँसिस ने कहा, "हम इस हर्षित स्मृति को नहीं भुला सकते कि प्रभु येसु ख्रीस्त के द्वारा हमारा उद्धार हुआ है, जैसा कि सन्त मत्ती रचित सुसमाचार में लिखा है, "आप ख्रीस्त हैं, जीवन्त ईश्वर के पुत्र।" उन्होंने कहा, "ईश्वर के अभिषिक्त येसु ख्रीस्त ने इस विश्व के लोगों के बीच पिता ईश्वर के प्रेम एवं उनकी दया को प्रकाशित किया और ईश्वर का दयामय प्रेम यह मांग करता है हम भी इस दया को लोगों में प्रसारित करें भले ही इस कार्य को करने में हमें अपने नाम, अपने पद और अपनी स्थिति तथा अपने आरामदायक जीवन का परित्याग ही क्यों न करना पड़े।     








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