2018-06-27 18:46:00

ईश्वरीय आज्ञाओं में हमारे जीवन का अर्थ


वाटिकन सिटी, बुधवार, 27  जून  2018 (रेई) संत पापा फ्राँसिस ने अपने बुधवारीय आमदर्शन समारोह के अवसर पर संत पेत्रुस महागिरजाघर के प्रांगण में विश्व के विभिन्न देशों से आये हुए तीर्थयात्रियों और विश्वासियों को ईश्वर की दस आज्ञाएं पर अपनी धर्मशिक्षा देते हुए कहा, प्रिय भाइयो एवं बहनों, सुप्रभात।

ईश्वर के दस वचनों की शुरूआत इस तरह से होती है, “मैं प्रभु तेरा ईश्वर हूँ। मैं तुम को मिस्र देश से, गुलामी के घर से, निकाल लाया।” (नि.20.2)

संत पापा ने कहा कि क्यों ईश्वर अपने को स्वतंत्रता प्रदान करने वाले ईश्वर के रुप में घोषित करते हैंॽ लाल सागर पार करने के उपरान्त जब चुनी हुई प्रज्ञा सिनाई पर्वत पहुंची तो ईश्वर उन्हें अपने ऊपर विश्वास करने का निर्देश देते हैं क्योंकि उन्होंने उनको मृत्यु से बचाया था। ईश्वर की दस आज्ञाओं की शुरूआत इस तरह उनके उदरतापूर्ण कार्यों की याद दिलाती है। उन्होंने कहा,”ईश्वर हमें सर्वप्रथम हमें देते और उसके बाद हमसे मांगते हैं। वे बिना दिये हमसे कभी मांग नहीं करते हैं, पिता ईश्वर हमारे लिए एक भले पिता हैं।”

उन्होंने कहा कि हम ईश्वर के द्वारा घोषित पहली वाक्य को समझने की कोशिश करें, “मैं प्रभु तुम्हारा ईश्वर हूँ।” यह हमारे लिए एक संबंध को घोषित करता है, यहां हम अपने को ईश्वर के साथ और ईश्वर को हमारे साथ जुड़ा हुआ पाते हैं। ईश्वर हमारे लिए कोई अपरिचित नहीं हैं वे हमारे ईश्वर हैं। ख्रीस्तियों के रुप में हमारे लिए ईश्वर प्रदत्त दस आज्ञाएं हमारे कार्यों द्वारा येसु ख्रीस्त के मनोभावों को प्रकट करते हैं,“जिस तरह पिता ने मुझ को प्यार किया है, उसी प्रकार मैंने भी तुम लोगों को प्यार किया है।”(यो.15.9) येसु ख्रीस्त अपने पिता के द्वारा प्रेम किये गये अतः वे हमें पिता के उसी प्रेम का एहसास दिलाते हैं। हमारे लिए उनके प्रेम की शुरूआत स्वयं येसु ख्रीस्त में नहीं होती वरन यह पिता के प्रेम में आधारित है। संत पापा ने कहा कि बहुधा हमारे जीवन में हम अपने कार्यों की शुरूआत कृतज्ञता भरे मनोभावओं से करने के बदले अपने ही विचारों में करते हैं जो हमारे लिए असफलता का कारण बनती है। इस तरह जो अपने आप से शुरू करता है वह अपने आप में ही सीमित हो कर रह जाता है। यह उस व्यक्ति में एक स्वार्थ को दिखलाता है जिसके बारे में दूसरे मजाकिये लिहाज में कहते हैं,“वह व्यक्ति मैं,मेरा और मेरे लिए की बात कहता है।”

हमारे ख्रीस्तीय जीवन का सार पिता ईश्वर के उदारता पूर्ण कार्यों के प्रति हमारी कृतज्ञता में है। संत पापा फ्रांसिस ने कहा कि वे ख्रीस्तीय जो अपने कार्यों के केवल “कर्तव्य” की दृष्टिकोण से पूरा करते वे ईश्वर को व्यक्तिगत रुप से अनुभव नहीं करते हैं जो हमारे “जीवन के अंग” हैं। उन्होंने कहा, “मुझे यह...यह..यह  सिर्फ कार्य करना है तो यह मुझ में किसी कमी को दिखलाती है। इन कार्यों का आधार क्या हैॽ हमारे इन कार्यों के सार ईश्वर का प्रेम है जो हमें पहले देते और बाद में हम से मांगते हैं।” नियमों को अपने संबंध के आगे रखना हमें विश्वास के मार्ग में बढ़ने नहीं देता है। कोई सच्चा ख्रीस्तीय कैसे बन सकता है यदि वह अपने कार्यों को स्वतंत्रता पूर्वक करने के बदले कर्तव्य, उत्तदयित्व और समन्वय की दृष्टि मात्र से करता हो। एक ख्रीस्तीय के रुप में हमें अपने में स्वतंत्र होने की जरूरत है। आज्ञाएं हमें अपने स्वार्थ से बाहर निकलने हेतु मदद करती हैं क्योंकि ईश्वर का प्रेम हमें अपने जीवन में आगे ले चलता है। हमारा जीवन हमारी आत्म शक्ति के कारण नहीं वरन मुक्ति को स्वीकार करने के कारण चलता है जो हमारे लिए ईश्वर की ओर से आता है। ईश्वर अपनी चुनी हुई प्रजा को अपने प्रेम में बचाते हैं और प्रेम के मार्ग में चलने का निर्देश देते हैं।

संत पापा ने कहा कि पवित्र आत्मा से पोषित हृदय अपने में कृतज्ञ बन रहता है। ईश्वर की आज्ञा का अनुपालन करने हेतु हमें सर्वप्रथम उनके वरदानों को याद करने की जरूरत है। उन्होंने विश्वासी समुदाय से आग्रह किया कि वे अपने हृदय की गहराई में ईश्वर से मिले वरदानों की याद करें। “आप शांत भाव से अपने जीवन में मिले ईश्वरीय उपहारों की याद करते हुए उनके प्रति कृतज्ञता के भाव अर्पित करें।” यह हमारे लिए ईश्वर के मुक्तदायी कार्य हैं। वे अपने सुन्दर कार्यों के द्वारा हमें स्वतंत्र करते हैं।

इसके बावजूद हममें से कई अपने में यह अनुभव करते हैं कि हमने अपने जीवन में ईश्वरीय सच्ची  मुक्ति का अनुभव नहीं किया है। हमारे जीवन में ऐसा हो सकता है जब हम अपने कार्यों को संतान के मनोभावओं से प्रेरित होकर करने के बदले दास होने के भाव से करते हैं। संत पापा ने कहा कि ऐसी परिस्थिति में क्या कर सकते हैंॽ निर्गमन ग्रंथ हमें कहता है, इस्राएली लोग दासता से त्रस्त कराहते थे। वे अपनी दासता में पुकारते थे और उनकी दुहाई ईश्वर तक पहुँच गयी।” (नि. 2.23-25) संत पापा ने कहा कि ईश्वर हम सबों की चिंता करते हैं।

ईश्वर के मुक्ति दायी कार्यों की चर्चा दस आज्ञाओं के रुप में हमारे लिये है। हम अपने को नहीं बचा सकते वरन हम अपनी सहायता हेतु पुकारते हैं, “हे प्रभु हमें बचाइये, हमें सही मार्ग पर ले चलिए, हमें शांति और खुशी प्रदान कीजिए।” ये सहायता हेतु हमारी प्रार्थनाएं हैं। यह हमारे ऊपर निर्भर करता है कि हम अपने स्वार्थ, पाप औऱ गुलामी से मुक्त होने की चाह रखते हैं या नहीं। यह हमारी महत्वपूर्ण निवेदन प्रार्थना है जो हमारी आत्मा को विभिन्न तरह की गुलामियों से मुक्त करने की पुकार बनती है। “हे प्रभु हमें बचाइये, हमारी सहायता कीजिए, हमें मुक्त कीजिए।” यह हमारे लिए एक अति सुन्दर प्रार्थना है। ईश्वर हमारी प्रार्थना की प्रतीक्षा जिसके फलस्वरूप वे हमें मुक्ति प्रदान करते हैं। वे हमें गुलामी में रहने देना नहीं चाहते वरन वे हमें स्वतंत्रता में कृतज्ञता पूर्वक, खुशी से अपनी आज्ञाओं का पालने करने हेतु निमंत्रण देते हैं। यह कितना महान है। ईश्वर जिन्होंने हमारे जीवन में महान कार्य किये हैं, वे उन्हें सदैव करते और करेंगे, उन सभी कार्यों में उनकी महिमा सदा होती रहे। इतना कहने के बाद संत पापा ने अपनी धर्मशिक्षा माला समाप्त की और सभी तीर्थयात्रियों और विश्वास समुदाय का अभिवादन किया। उन्होंने कहा कि आने वाला कल हम संत पेत्रुस और संत पौलुस का महोत्सव मनायेंगे जो रोम के संरक्षक संत हैं। हम इन दो प्रेरितों से सुसमाचार का साक्ष्य देने हेतु साहस ग्रहण करें। अपनी विभिन्नताओं के बावजूद उन्होंने विश्वास के प्रसार हेतु मित्रता के भाव और शांति मय स्थिति को बनाये रखा।

इतना कहने के बाद उन्होंने सभी तीर्थयात्रियों और विश्वासी समुदाय के साथ हे पिता हमारे प्रार्थना का पाठ किया और सबों को अपना प्रेरितिक आशीर्वाद प्रदान किया।








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