2018-06-20 16:03:00

दस आज्ञाएं, मानव और ईश्वर के बीच का विधान


वाटिकन सिटी, बुधवार, 13 मई 2018 (रेई) संत पापा फ्राँसिस ने अपने बुधवारीय आमदर्शन समारोह के अवसर पर संत पेत्रुस महागिरजाघर के प्रांगण में विश्व के विभिन्न देशों से आये हुए तीर्थयात्रियों और विश्वासियों को संहिता की आज्ञा पर अपनी धर्मशिक्षा माला को आगे बढ़ाते हुए  कहा, प्रिय भाइयो एवं बहनों, सुप्रभात।

हमने पिछले बुधवार को एक नई धर्मशिक्षा माला चक्र की शुरूआत की जो संहिता की आज्ञाओं पर आधारित है। हमने इस बात पर चिंतन किया कि येसु ख्रीस्त संहिता की आज्ञाओं को रद्द करने नहीं बल्कि पूरा करने आते हैं। हमें अपने जीवन में इस तथ्य को सदैव समझने की जरूरत है।

धर्मग्रंथ में संहिता की आज्ञाएं अपने लिए नहीं हैं लेकिन यह एक दूसरे के साथ हमारे संबंध को स्थापित करने हेतु हैं यह ईश्वर और लोगों के बीच का विधान है। हम इसे निर्गमन ग्रंथ के अध्याय 20 के पद 1 में पाते हैं,“ईश्वर ने मूसा से यह सब कहा।”

संत पापा ने कहा कि हम धर्मग्रंथ को किसी अन्यों किताबों की तरह देखते हैं लेकिन यह अपने में सधारण पुस्तिका नहीं है। हम इस पद में इसे “आज्ञाओं” के रुप में जिक्र किया हुआ नहीं पाते हैं वरन ये “बातों” के रुप वर्णित हैं। यहूदियों की रीति के अनुसार यह सदैव “दस आज्ञाओं” के रुप में देखी जाती थी जिसका अर्थ संहिता में निर्धारित नियम था। धर्मग्रंथ में ये क्यों “दस बातों” के रुप में प्रयुक्त किये गये हैं और “दस नियमों” के रुप में नहींॽ

संत पापा फ्रांसिस ने कहा कि एक आज्ञा और एक बात में क्या अंतर हैॽ ”आज्ञा को हम एक निर्देश के रुप में पाते हैं जिस में वार्ता का अभाव रहता है। दूसरी ओर एक बात में हम आवश्यक रुप से एक संबंध को पाते हैं जो वार्ता हेतु खुली रहती है। पिता ईश्वर अपने शब्दों के द्वारा सृष्टि की संरचना करते हैं और उनका पुत्र शब्द के रुप में शरीरधारण करता है। प्रेम को हम शब्दों में पिरोता हुआ पाते हैं और उसी भांति हम शिक्षा या सहयोग को भी देखते हैं। दो व्यक्ति जो आपस में प्रेम नहीं करते तो वे अपने में वार्ता, अपने विचारों का आदान-प्रदान नहीं कर सकते हैं। संत पापा ने कहा कि जब कोई अपने हृदय की बातों को व्यक्त करता है तो वह अपने उदासीपन से बाहर निकलता है।  

वही दूसरी ओर एक आज्ञा में हमें किसी के द्वारा निर्देश को पाते हैं। एक वार्ता में हम अपने जीवन के द्वारा एक सच्चाई को व्यक्त करते हैं। एक दूसरे को प्रेम करने वाले अपनी वार्ता के द्वारा अपनी बातों को एक-दूसरे की समझ और भलाई हेतु व्यक्त करते हैं। हमारे लिए यह बेहतर है कि हम अपने विचारों को वस्तुओं के रूप नहीं वरन सीधे तौर से आपसी वार्ता में एक दूसरे के लिए व्यक्त करते हैं।(प्रेरितिक उद्बोधन एभन्जली गौदियुम, 142)

शुरू से ही शैतान नर और नारी को फुसलाने की कोशिश करते हुए यह कहता है कि ईश्वर ने तुम्हें अच्छे और बुरे के ज्ञान वृक्ष का फल खाने हेतु इसलिए मना किया है जिससे तुम उनके अधीन बने रहो। संत पापा ने कहा कि हमारे लिए यह एक चुनौती है कि हम ईश्वर के दिये हुए प्रथम नियम का अनुपालन करते हुए कैसे अपने पिता के प्रेम में संयुक्त रहते हैं जो अपने बच्चों की चिंता करते हुए उन्होंने बुराई से बचाने की चाह रखते हैं। सबसे दुर्भाग्य की बात हम यह देखते हैं कि कैसे सांप कई तरह के झूठ बोलते हुए हेवा को फुसलाता, उसमें ईर्ष्या के भाव उत्पन्न करता और उसे ईश्वर की बराबरी हेतु बहकाता है। (उत्पति. 2.16-17.3. 4-5)

मानव अपने को दुविधा की स्थिति में पाता है, कि क्या ईश्वर उसके ऊपर चीजों को थोपते हैं या उसकी प्रेम भरी चिंता करते हैंॽ क्या उनकी आज्ञाएं हमारे लिए नियम मात्रा हैं या वे हमारे लिए शब्द हैंॽ संत पापा ने कहा, “ईश्वर पिता हैं या मालिक।”ॽ क्या हम अपने में दास हैं या संतानॽ यह हमारा आंतरिक और बाह्य संघर्ष है जिसका एहसास हम सदा अपने जीवन में करते हैं। हमें हजारों बार अपने जीवन में एक दास और एक संतान की मानसिकता के बीच चुनाव करना पड़ता है।  

पवित्र आत्मा हमें ईश्वर की संतान बनाता है, यह येसु ख्रीस्त की आत्मा है। गुलामों की आत्मा नियम को अपने में सिर्फ एक दमनकारी रुप में धारण करता और दो विपरीत परिणाम उत्पन्न करता है, यह या तो जीवन को नियमों के अनुपालन हेतु देखता या उनका घोर तिरस्कार करता है। हमारा ख्रीस्त जीवन आत्मा से प्रेरित नियमों के अनुपालन में हमें जीवन प्रदान करता है। येसु ख्रीस्त हमारे लिए पिता के पुत्र स्वरुप जीवन देने को आते हैं न कि हमें दोषी ठहराने को।

संत पापा फ्रांसिस ने कहा कि यह हमारे जीवन के द्वारा परिलक्षित होता है कि हम एक ख्रीस्तीय के रुप में किस तरह का जीवन यापन करते हैं एक संतान के रुप में या एक दास के रुप में। उन्होंने कहा कि हम जीवन में इस बात को याद करते हैं कि माता-पिता ने हमारे जीवन में नियमों को शिक्षकों की भांति किस तरह से पालन करना सिखलाया है।

दुनिया को आज विधिपरायणता की नहीं वरन सेवा की जरुरत है। इसे ख्रीस्तियों की आवश्यकता है जिसका हृदय संतानों का है।

इतना कहने के बाद संत पापा ने अपनी धर्मशिक्षा माला समाप्त की। उन्होंने धर्मशिक्षा माला के अंत में करतब दिखलाने वालों का शुक्रिया अदा करते हुए विभिन्न देशों से आये हुए तीर्थयात्रियों और विश्वास का अभिवादन किया।

उन्होंने कहा कि जून के महीने में हम पवित्रतम येसु के हृदय की आराधना करते हैं। येसु का कृपालु हृदय, जीवन की कठिन परिस्थितियों में रहने पर भी हमें बिना किसी चीज की माँग या चाह किये उनके शर्तहीन प्रेम को प्रसारित करने हेतु प्रेरित करता है। संत पापा ने सबों से निवेदन करते हुए कहा कि आप मेरे लिए, मेरे सहयोगियों के लिए और सभी पुरोहितों के लिए प्रार्थना करें जिससे हम ख्रीस्त के बुलावे के प्रति निष्ठावान बने रहें।

इतना कहने के बाद उन्होंने सभी तीर्थयात्रियों और विश्वासी समुदाय के साथ हे पिता हमारे प्रार्थना का पाठ किया और सबों को अपना प्रेरितिक आशीर्वाद प्रदान किया।








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