2018-04-02 10:16:00

पवित्रधर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय- स्तोत्र ग्रन्थ, भजन 95


पवित्र धर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय कार्यक्रम के अन्तर्गत इस समय हम बाईबिल के प्राचीन व्यवस्थान के स्तोत्र ग्रन्थ की व्याख्या में संलग्न हैं। स्तोत्र ग्रन्थ 150 भजनों का संग्रह है। इन भजनों में विभिन्न ऐतिहासिक और धार्मिक विषयों को प्रस्तुत किया गया है। कुछ भजन प्राचीन इस्राएलियों के इतिहास का वर्णन करते हैं तो कुछ में ईश कीर्तन, सृष्टिकर्त्ता ईश्वर के प्रति धन्यवाद ज्ञापन और पापों के लिये क्षमा याचना के गीत निहित हैं तो कुछ ऐसे भी हैं जिनमें प्रभु की कृपा, उनके अनुग्रह एवं अनुकम्पा की याचना की गई है। इन भजनों में मानव की दीनता एवं दयनीय दशा का स्मरण कर करुणावान ईश्वर से प्रार्थना की गई है कि वे कठिनाईयों को सहन करने का साहस दें तथा सभी बाधाओं एवं अड़चनों को जीवन से दूर रखें।

"आओ! हम आनन्द मनाते हुए प्रभु की स्तुति करें, अपने शक्तिशाली त्राणकर्त्ता का गुणगान करें। हम धन्यवाद करते हुए उसके पास जायें, भजन गाते हुए उसे धन्य कहें; क्योंकि हमारा प्रभु ईश्वर शक्तिशाली है, वह सभी देवताओं से महान अधिपति है।"

श्रोताओ, ये थे स्तोत्र ग्रन्थ के 95 वें भजन के प्रथम तीन पद। इन्हीं पदों की व्याख्या से हमने पवित्र धर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय कार्यक्रम का विगत प्रसारण समाप्त किया था। इस भजन में श्रद्धालुओं को उपासना के लिये आमंत्रित किया गया है। यह एक इब्रानी गीत है जिसमें यहूदियों और ग़ैरयहूदियों सभी का आह्वान किया गया है कि वे सृष्टिकर्त्ता प्रभु ईश्वर की स्तुति करें। जैसा कि हमने आपको बताया था बाईबिल व्याख्याकारों के अनुसार स्तोत्र ग्रन्थ का 95 वें वाँ भजन दाऊद के भजनों में से एक है।

इस तथ्य पर भी हम ग़ौर कर चुके हैं कि प्राचीन काल में श्रद्धालु मन्दिर में प्रवेश करने से पहले प्रतीक्षा स्थल पर जमा होते थे और फिर पहले प्रवेश द्वार से गुज़रते थे जिसके तुरन्त बाद एक विशाल प्राँगण बना हुआ होता था। इस प्राँगण में यहूदी और ग़ैरयहूदी सभी का स्वागत किया जाता था। फिर दूसरे द्वार से यहूदी महिलाएँ प्रवेश करती थीं तथा तीसरे और अन्तिम द्वार से केवल यहूदी पुरुष। इन तीनों द्वारों एवं प्राँगणों को पार कर लेने के बाद ही भक्त पवित्रतम पुण्यागार तक पहुँच पाता था। सन्त पौल का दावा है कि प्रभु येसु ख्रीस्त ने इन तीन प्रवेश द्वारों एवं प्राँगणों के बीच बने विभाजनों को भंग कर दिया था। गलातियों को प्रेषित पत्र के तीसरे अध्याय के 28 वें पद में सन्त पौल लिखते हैं, "अब न तो कोई यहूदी है और न यूनानी, न तो कोई दास है और न स्वतंत्र, न तो कोई पुरुष है और न स्त्री आप सब ईसा मसीह में एक हो गये हैं।"  

वस्तुतः श्रोताओ, स्तोत्र ग्रन्थ का 95 वाँ भजन यह ऐसा भजन है जो मन्दिर की घंटियों अथवा गिरजाघर के घण्टों की आवाज़ में गूँजता हुआ लोगों को प्रभु ईश्वर के आदर में गीत गाने के लिये आमंत्रित करता है। भजन "आओ!" शब्द से आरम्भ होता है। यह शब्द यानि "आओ!" एक आह्वान है, आमंत्रण है, प्रभु की स्तुति हेतु एक निमंत्रण है। भजनकार स्मरण दिलाता है कि प्रभु ईश्वर शक्तिशाली त्राणकर्त्ता हैं जिनका हम स्तुतिगान करें और जिनके प्रति धन्यवाद ज्ञापित किया करें।"

आगे 95 वें भजन में सृष्टिकर्त्ता ईश्वर के अद्भुत कार्यों का बखान करते हुए भजनकार लोगों से उनके प्रति अभिमुख होने का आग्रह करता है। इस भजन के चार से लेकर आठ तक के पद इस प्रकार हैं, "वह पृथ्वी की गहराइयों को अपने हाथ से सम्भालता है, पर्वतों के शिखर उसी के हैं। समुद्र और पृथ्वी, जल और थल सब उसके बनाये हुए हैं और उसी के हैं। आओ! हम दण्डवत कर प्रभु की आराधना करें, अपने सृष्टिकर्त्ता के सामने घुटने टेकें; क्योंकि वही हमारा ईश्वर है और हम हैं - उसके चरागाह की प्रजा, उसकी अपनी भेड़ें। ओह! यदि तुम आज उसकी यह वाणी सुनो, अपना हृदय कठोर न कर लो, जैसा कि पहले मरीबा में, जैसा कि मस्सा की मरूभूमि में हुआ था।"

श्रोताओ, भजन के उक्त पदों से स्पष्ट है कि भजनकार चाहता था कि जब-जब हम ईश्वर के समक्ष उपस्थित हों हमें उनकी आराधना करनी चाहिये और उनके प्रति धन्यवाद ज्ञापित करना चाहिये। अर्थ यह कि ईश्वर की शरण हम केवल कुछ मांगने के लिये नहीं जायें बल्कि उनके चमत्कारी कार्यों के लिये उनकी आराधना और उनकी स्तुति करें इसलिये कि जो कुछ भी इस धरती पर है, जल, थल, समुद्र और पर्वत सब के सब प्रभु ईश्वर के हैं। वह कहता है कि मनुष्य प्रभु ईश्वर की वाणी को सुनने के लिये अपने हृदयों को कठोर न करे बल्कि विनम्रतापूर्वक उनकी आवाज़ सुने और उसी के अनुकूल जीवन यापन करे। इन पदों में भजनकार ईश्वर को मेषपाल और मनुष्यों को उसके चरागाह की प्रजा कहकर पुकारता है, कहने का तात्पर्य यह कि ईश्वर ही हैं जो हमें सम्भालते हैं और हमारी रक्षा करते हैं, उसी प्रकार जिस प्रकार मेषपाल अपनी भेड़ों की रक्षा करता है।

आठवें पद में भजनकार कहता है, "ओह! यदि तुम आज उसकी यह वाणी सुनो, अपना हृदय कठोर न कर लो, जैसा कि पहले मरीबा में, जैसा कि मस्सा की मरूभूमि में हुआ था।" यहाँ यह ध्यान रखना हितकर होगा कि मन्दिर अथवा गिरजाघर का प्रवक्ता या उपदेशक ईश्वर का प्रतिनिधि बनकर श्रद्धालुओं को सम्बोधित करता है। अस्तु, आग्रह करता है कि ईश्वर की वाणी के प्रति हम कभी भी अपने हृदयों को कठोर न करें जैसा कि नबी मूसा के काल में, मरीबा और मस्सा की मरूभूमि में लोगों ने किया था। श्रोताओ, मरूभूमि में जब पीने के लिये पानी तक नहीं मिला तब लोग ईश्वर के विरुद्ध बड़बड़ाने लग गये, इसी के सन्दर्भ में भजनकार ने मरीबा और मस्सा का नाम लिया है। इसका ज़िक्र निर्गमन ग्रन्थ के 17 वें अध्याय में मिलता है। इस अध्याय के सातवें पद में हम पढ़ते हैं, "मूसा ने उस स्थान का नाम मस्सा और मरीबा रखा क्योंकि इसराएलियों ने उसके साथ विवाद किया था और यह कहकर ईश्वर को चुनौती दी थी, ईश्वर हमारे साथ है या नहीं? " श्रोताओ, वस्तुतः स्तोत्र ग्रन्थ के 95 वें भजन के ये शब्द हम पर भी लागू होते हैं। हम भी प्रार्थना करते हैं, ईश्वर से बहुत कुछ मांगते हैं किन्तु कई बार ऐसा भी होता है कि हमारी प्रार्थना अनसुनी रह जाती है और हम ईश्वर के विरुद्ध बड़बड़ाने लग जाते हैं, क्रुद्ध होते हैं कि हमने ईश्वर को पुकारा और उन्होंने हमारी नहीं सुनी। हम भी मस्सा और मरीबा के लोगों की तरह ईश्वर को चुनौती देने लग जाते हैं और प्रश्न कर उठते हैं, ईश्वर है भी या नहीं? यदि है तो हमारी प्रार्थना क्यों नहीं सुनता, आदि आदि। श्रोताओ, ईश्वर हम मनुष्यों की पुकारों को सुनते हैं, भले ही देर हो जाये हमारी प्रार्थना सुनी जाती है, ज़रूरत है विश्वासपूर्वक उन्हें पुकारने की। प्रभु येसु ने कहा है, "तुम्हारा विश्वास राई के दाने के बराबर ही क्यों न हो, तुम विश्वास के साथ जो मांगोगे वह तुम्हें अवश्य मिलेगा।"








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