2018-03-29 16:18:00

ईश्वर अपने लोगों के करीब, क्रिज्मा मिस्सा में संत पापा


वाटिकन सिटी, बृहस्पतिवार, 29 मार्च 2018 (रेई)˸ संत पापा फ्राँसिस ने 29 मार्च को पुण्य बृहस्पतिवार के दिन रोम धर्मप्रांत के सभी पुरोहितों, अन्य पुरोहितों एवं विश्वासियों के साथ संत पेत्रुस महागिरजाघर में समारोही ख्रीस्तयाग अर्पित कर, पवित्र तेलों पर आशीष प्रदान की।

उन्होंने कहा, जब मैं आज की धर्मविधि को पढ़ रहा था तब मैं विधि-विवरण ग्रंथ के उस पाठ की याद कर रहा था जहाँ लिखा है, "क्योंकि ऐसा महान राष्ट्र कहाँ है जिसके देवता उसके इतने निकट हैं जितना हमारा प्रभु ईश्वर हमारे निकट होता है जब हम उसकी दुहाई देते हैं? " (विधि. 4:7) संत पापा ने कहा, "ईश्वर का सामीप्य...प्रेरितिक सामीप्य।"

उन्होंने कहा, " नबी इसायस के ग्रंथ से लिए गये पाठ में हम सेवक पर चिंतन करते हैं जो अभिषिक्त किये गये थे एवं अपने लोगों के बीच गरीबों, रोगियों एवं कैदियों के करीब प्रेषित थे। पवित्र आत्मा उन पर छाया हुआ था जो उन्हें यात्रा में सामर्थ्य एवं साहचर्य प्रदान करता था।"

स्रोत्र ग्रंथ के 88 पद में हम देखते हैं कि ईश्वर लोगो के कितने करीब रहते हैं। उन्होंने राजा दाऊद को जब वे छोटे थे हाथ पकड़कर चलना सिखाया, जब वे बढ़ रहे थे तो उन्हें पोषित किया तथा उनके प्रति अपनी निष्ठा को सदा बनाये रखा।

प्रकाशना ग्रंथ प्रभु को हमारे करीब बतलाता है। "हर आँख उन्हें देखेगी, जिन्होंने उन्हें छेदा वे भी उन्हें देखेंगे" इन शब्दों के द्वारा वे हमें यह एहसास दिलाते हैं कि पुनर्जीवित प्रभु के घाव हमेशा दिखाई देते हैं। प्रभु हमेशा हमारे पास आते हैं पीड़ितों के रूप में, पर चुनाव हमें करना है कि क्या हम उनके करीब जाएँ, विशेषकर, जब वे बच्चों के रूप में आते हैं।

संत पापा ने संत लूकस के सुसमाचार से लिए गये पाठ पर चिंतन करते हुए कहा, "आज के सुसमाचार के केंद्र में हम देखते हैं कि प्रभु अपने लोगों की नजरों के सामने जो उन पर टिकी हुई थी नाजरेथ के सभागृह में पढ़ने के लिए उठ खड़े हुए। उन्हें नबी इसायस की पुस्तक दी गयी। पुस्तक खोलकर ईसा ने वह स्थान निकाला, जहां लिखा है, प्रभु का आत्मा मुझ पर छाया रहता है, क्योंकि उसने मेरा अभिषेक किया है। उसने मुझे भेजा है जिससे कि मैं दरिद्रों को सुसमाचार सुनाऊँ, बंदियों को मुक्ति का और अंधों को दृष्टिदान का संदेश दूँ। (इसा. 61:1) उन्होंने सुनने वालों को यह चुनौती दी, "धर्मग्रंथ का यह कथन आज तुम लोगों के सामने पूरा हो गया है।" (लूक. 4:21)

संत पापा ने कहा कि येसु ने एक अनुच्छेद ढ़ूँढ निकाला तथा उसे एक शास्त्री की निपुणता के साथ पढ़ सुनाया। वे एक शास्त्री अथवा सहिंता के पंडित बन सकते थे किन्तु उन्होंने एक सुसमाचार प्रचारक बनना चाहा, रास्ते पर उपदेश देने एवं अपने लोगों के लिए आनन्द के सुमाचार को सुनाने वाला। नबी इसायस के अनुसार एक ऐसा प्रचारक जिनके पाँव चिकने होते हैं।

यह ईश्वर का महान चुनाव है, उन्होंने अपने लोगों के करीब रहना चाहा। 30 साल के छिपे जीवन के बाद ही उन्होंने अपना उपदेश आरम्भ किया। यहाँ हम शरीरधारण की शिक्षा को पाते हैं, संस्कृतिकरण की शिक्षा, न केवल विदेशी संस्कृतियों में किन्तु हमारे ही पल्लियों में, युवाओं की नयी संस्कृतियों में।  

संत पापा ने सामीप्य का अर्थ बतलाते हुए कहा, "सामीप्य किसी एक विशेष सदगुण से बढ़कर है। यह एक मनोभाव है जो व्यक्ति को पूरी तरह संलग्न करता, हमारे बात व्यवहार, अपने तथा दूसरों के प्रति हमारी तत्परता। जब लोग एक पुरोहित के बारे बात-चीत करते हुए कहते हैं कि वे हमारे करीब हैं इसका दो अर्थ है, पहला कि वे हमेशा उपस्थित हैं (अर्थात् वे अत्यधिक व्यस्तता नहीं दिखाते हैं) दूसरा कि उनके पास प्रत्येक के लिए शब्द है। वे हर किसी से बात कर सकते हैं, बच्चे, बूढ़े, गरीब एवं गैरख्रीस्तीय। पुरोहित जो करीब रहते हैं वे उपलब्ध होते हैं वे अपने लोगों के लिए समय देते हैं, सभी से बातचीत करते हैं। संत पापा ने उन्हें "गली का पुरोहित" नाम दिया।   

येसु से गली का उपदेशक बनने सीखने वालों में एक थे फिलीप। प्रेरित चरित में हम पढ़ते हैं कि वे शहरों में घूम-घूम कर सुसमाचार का प्रचार करते थे।... इसलिए उन शहरों में आनन्द छा गया। (प्रे.च. 8:4.5-8) फिलीप एक ऐसे व्यक्ति थे जिन्हें पवित्र आत्मा किसी भी समय अपने साथ ले लेते थे तथा उन्हें सुसमाचार प्रचार हेतु भेजते थे और वे जगह जगह घूम कर सुसमाचार सुनाते थे। वे एक ऐसे व्यक्ति थे जो विश्वास करने वालों को बपतिस्मा दिया करते थे, उदाहरण के लिए इथोपियाई खोजा का बपतिस्मा जिसको उन्होंने रास्ते के किनारे ही सम्पन्न किया। (प्रे.च. 8:5.36-40).

करीब रहना एक प्रचारक के लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि सुसमाचार में यह एक मुख्य मनोभाव है (येसु इसका प्रयोग स्वर्ग राज्य के बारे बतलाने हेतु करते हैं।) हम निश्चित रूप से जानते हैं कि करीबी दया के लिए आवश्यक है जो भले समारीतानी की तरह हुए बिना दया नहीं कर सकती। यह दूरी को कम करने का रास्ता निकालती है। संत पापा ने करीबी को सच्चाई की भी कुँजी कहा। क्या दूरी सचमुच कम की जा सकती है यदि सच्चाई को साथ लिया जाए? संत पापा ने कहा, जी हाँ क्योंकि सच्चाई परिस्थिति एवं एक निश्चित दूरी की चीजों की परिभाषा मात्र नहीं है। यह इससे बढ़कर है। सच्चाई का अर्थ निष्ठा भी है। यह लोगों को उनके सच्चे नाम से पुकारने के लिए प्रेरित करता है जैसा कि प्रभु उनकी परिस्थितियों के पहले उनका नाम लेते हैं।  

संत पापा ने कहा कि हमें निराकार सच्चाइयों की देवमूर्तियां बनाने के प्रलोभन से बचना चाहिए। वे आराम की देवमूर्तियाँ हो सकते हैं जो हमेशा आसान जिंदगी को प्रस्तुत करते हैं, यश एवं सत्ता का प्रलोभन देते हैं तथा उनकी परख करना आसान नहीं होता क्योंकि सच्चाई की देवमूर्ती अनुकरण करती है। यह सुसमाचार के शब्दों को धारण करती किन्तु उनके द्वारा हृदय का स्पर्श करने से रोकती है। यह और भी बदतर तब हो जाती है जब यह लोगों को वचन एवं येसु के संस्कारों की रोग हरने वाली निकटता से दूर कर देती है।

ऐसे समय में हम पुरोहितों की माता, मरियम के पास आयें। हम उन्हें "सामीप्य की माता" पुकार सकते हैं। एक सच्ची माता के रूप में वे हमारे बगल में चलती हैं हमारी कठिनाइयों में हमारा साथ देतीं एवं ईश्वर के प्रेम से सदा घिरी रहती हैं। इस तरह कोई भी बहिष्कृत महसूस नहीं करता।

हमारी माता न केवल उस समय हमारे करीब रहतीं जब वे सेवा हेतु बाहर निकलती हैं बल्कि उनका सामीप्य उनकी अभिव्यक्ति में भी प्रकट होता है। काना में एक उपयुक्त समय में वे जिस आवाज से चेलों के साथ बात करती हैं, "वे जैसा कहें वैसा ही करो।"  उनका ये लहजा सभी कलीसियाई भाषाओं में ममता का आदर्श है। उन्होंने जिन शब्दों का उच्चारण किया उनको करने के लिए न केवल कृपा मांगी बल्कि उन स्थलों पर भी दृढ़ता पूर्वक खड़ी रही जहाँ महत्वपूर्ण बातें मन गढ़ंत हो गयी थीं, खासकर, प्रत्येक हृदय, परिवार एवं संस्कृति की महत्वपूर्ण बातें। इस बात की परख केवल इसी से की जा सकती है कि अंगुरी जो समाप्त हो चुकी थी और प्रभु जो अंगुरी प्रदान करना चाहते थे।  

संत पापा ने पुरोहितों को परामर्श देते हुए कहा, "मैं आपको सलाह देता हूँ कि आप पुरोहितिक सामीप्य के तीन शब्दों पर चिंतन करें, येसु तुम्हें जो कहते हैं वही करो, सुनने की आवश्यकता, हजारों तरह से किन्तु वही ममतामय आवाज में। ये शब्द हैं, आध्यात्मिक साहचर्य, पापस्वीकार एवं उपदेश।

सामीप्य एक आध्यात्मिक परिवर्तन है। संत पापा ने आध्यात्मिक परिवर्तन की तुलना प्रभु के साथ समारीतानी महिला से करते हुए कहा, "प्रभु ने उसे सबसे पहले आत्मा एवं सच्चाई में पूजा करना सिखलाया। फिर धीरे से, उसे अपने पापों को स्वीकार करने में मदद दिया और अंत में उसमें मिशनरी भावना उत्पन्न की जिसके द्वारा वह उसका प्रचार करने हेतु अपना गाँव गयी। इस तरह प्रभु हमारे लिए आध्यात्मिक परिवर्तन का आदर्श प्रस्तुत करते हैं। वे समारीतानी महिला के पापों को आराधना के प्रार्थना अथवा उसके मिशनरी बुलाहट द्वारा फीका किये बिना बाहर प्रकाश में लाना जानते थे।

पाप स्वीकार में सामीप्य। संत पापा ने इसको समझाने के लिए व्यभिचार में पकड़ी गयी महिला का उदाहरण दिया। संत पापा ने कहा कि यह स्पष्ट है कि यहां हर बात में सामीप्य है क्योंकि येसु की सच्चाई में हमेशा आमने-सामने बात किया जा सकता है। दूसरों की नजर में नजर मिलाना जैसा कि येसु ने व्यभिचार में पकड़ी गयी और येसु के सामने घुटनों पर पड़ी महिला के साथ किया। उस महिला को जिसको पत्थरों से मार डाला जा रहा था येसु ने कहा, मैं भी तुम्हें दण्ड नहीं दूँगा।" (यो. 8:11).

संत पापा ने कहा, "यह नियम के विरूद्ध जाना नहीं हैं। हम इसमें यह भी जोड़ सकते हैं जाओ फिर पाप नहीं करना।" परिभाषा के रूप में सत्य के वैधानिक स्वर के साथ नहीं बल्कि उन लोगों की आवाज जिसमें यह महसूस किया जा सके कि उन्हें ईश्वरीय दया के मापदंडों का निर्धारण करना है। इसके विपरीत, इन शब्दों को सत्य के रूप में निष्ठा में उच्चरित किये जाने की आवश्यकता है। एक पापी को आगे देखने, न कि पीछे मुड़ने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। "फिर पाप नहीं करना" कहने का सही लहजा पाप मोचक में देखा जा सकता है जो उसका उच्चारण करता तथा उसका उच्चारण वह सत्तर गुणा सात बार तक करना चाहता है।  

सामीप्य उपदेश देना है। इस पर चिंतन करते हुए हम उन लोगों की याद करें जो दूर में रहते हैं तथा संत पेत्रुस के प्रथम उपदेश को सुनते हैं जो पेंतेकोस्त की घटना का एक भाग है। पेत्रुस घोषणा करते हैं तथा इस तरह उपदेश देते हैं कि यह उनके हृदय को स्पर्श करता है। उनकी घोषणा लोगों को यह कहने हेतु प्रेरित करता है "हमें क्या करना चाहिए।?" (प्रे.च. 2:37)

एक सवाल हमें हमेशा पूछना और उसका उत्तर मरियम तथा कलीसिया के लहजे में दिया जाना चाहिए। संत पापा ने कहा कि उपदेश, एक पुरोहित का अपने लोगों के करीब होने एवं उनसे सम्पर्क रखने की जाँच का एक स्पर्श बिन्दु है। उपदेश से पता चलता है कि हम प्रार्थना में ईश्वर के कितने करीब हैं तथा अपने लोगों के दैनिक जीवन में उनसे हमारा सम्पर्क कितना है।   

यदि हम ईश्वर से दूर एवं अपने लोगों के करीब महसूस करते हैं तब हमें कौन हमारी उन विचारधाराओं से चंगाई प्रदान करेगा जो हमारे उत्साह को ठंढ़ा कर देता है। दीन- हीन लोग हमें येसु की ओर दूसरे तरह से देखने में मदद देते हैं क्योंकि उनकी नजरों में येसु आकर्षक लगते, उनके भले उदाहरणों में नैतिक अधिकार है, उनकी शिक्षा हमारे जीवन के लिए मददगार है।

यदि हम लोगों से दूर महसूस करते हैं तो प्रभु के पास आयें, सुसमाचार मे उनके वचनों को पढ़ें, तब वे हमें लोगों की ओर देखने के अपने तरीके को बतलायेंगे। उनकी नजर हर व्यक्ति के लिए कितना मूल्यवान है जिनके लिए उन्होंने क्रूस पर अपना खून बहाया। ईश्वर के साथ सामीप्य में वचन आपमें शरीरधारण करेगा तथा हर पुरोहित लोगों के करीब होगा। ईश प्रजा के निकट होने के द्वारा, उनका पीड़ित शरीर आपके हृदय में बोलेगा और उसके द्वारा ईश्वर से बोलने हेतु प्रेरित होंगे। इस तरह आप एक मध्यस्थ पुरोहित बन जायेंगे।

संत पापा ने कहा कि एक पुरोहित जो अपने लोगों के करीब होता है वह उनके बीच, उनके नजदीक तथा एक भले चरवाहे की कोमलता के साथ चलता है। वह कभी-कभी उनके आगे चलता, कभी-कभी उनके बीच एवं कभी-कभी उनके पीछे भी चलता है। इस तरह के पुरोहितों की लोग न केवल प्रशंसा करते किन्तु वे यह अनुभव करते हैं कि उनमें कुछ खास है। वे उसमें येसु की उपस्थिति महसूस करते। यही कारण है कि हमारे सामीप्य की परख केवल अधिक चीजों को करने से नहीं होती है।

हम येसु को मानवता के रूप में प्रस्तुत करत हैं अथवा मात्र एक विचार के रूप में।

अंत में, संत पापा ने माता मरियम से प्रार्थना की कि सामीप्य की हमारी माता हमें एक-दूसरे के करीब रहने में मदद करे तथा जब हमें लोगों को यह बतलाने की आवश्यकता पड़े, "सब कुछ वैसा ही करते जाओ जैसा येसु कहें" तब हम एक लहजे में कह सकें, ताकि विभिन्न प्रकार के हमारे विचारों में उनकी ममता की झलक मिले। क्योंकि वही एक हैं जिन्होंने अपने हाँ से येसु को सदा के लिए हमारे करीब लाया।

 








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