2018-01-09 11:38:00

पवित्रधर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय- स्तोत्र ग्रन्थ, भजन 91


पवित्र धर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय कार्यक्रम के अन्तर्गत इस समय हम बाईबिल के प्राचीन व्यवस्थान के स्तोत्र ग्रन्थ की व्याख्या में संलग्न हैं। स्तोत्र ग्रन्थ 150 भजनों का संग्रह है। इन भजनों में विभिन्न ऐतिहासिक और धार्मिक विषयों को प्रस्तुत किया गया है। कुछ भजन प्राचीन इस्राएलियों के इतिहास का वर्णन करते हैं तो कुछ में ईश कीर्तन, सृष्टिकर्त्ता ईश्वर के प्रति धन्यवाद ज्ञापन और पापों के लिये क्षमा याचना के गीत निहित हैं तो कुछ ऐसे भी हैं जिनमें प्रभु की कृपा, उनके अनुग्रह एवं अनुकम्पा की याचना की गई है। इन भजनों में मानव की दीनता एवं दयनीय दशा का स्मरण कर करुणावान ईश्वर से प्रार्थना की गई है कि वे कठिनाईयों को सहन करने का साहस दें तथा सभी बाधाओं एवं अड़चनों को जीवन से दूर रखें।

"तुम जो सर्वोच्च के आश्रय में रहते और सर्वशक्तिमान की छत्रछाया में सुरक्षित हो, तुम प्रभु से यह कहोः तू मेरी शरण है, मेरा गढ़, मेरा ईश्वर तुझ पर ही भरोसा रखता हूँ। वह तुम्हें बहेलिये के फन्दे से, घातक महामारी से छुड़ाता है। वह अपने पंख फैला कर तुम को ढक लेता है, तुम्हें उसके पैरों तले शरणस्थान मिलता है। उसकी सत्यप्रतिज्ञता तुम्हारी ढाल है और तुम्हारा कवच।"

श्रोताओ, ये थे स्तोत्र ग्रन्थ के 91 वें भजन के प्रथम पद। विगत सप्ताह इन्हीं पदों की व्याख्या से हमने पवित्र धर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय कार्यक्रम के समाप्त किया था। इस भजन में उपदेशक भक्तों को स्मरण दिलाता है कि वे हर पल प्रभु ईश्वर की छत्रछाया में रहते हैं और प्रभु की छत्रछाया में रहने से श्रेष्ठकर और कुछ नहीं हो सकता।

इस तथ्य की ओर हमने आपका ध्यान आकर्षित कराया था कि यहूदी प्रार्थना पुस्तक के अनुसार, इस भजन का पाठ सान्ध्य वन्दना रूप में किया जाता था। हालांकि, इस भजन से यह भी प्रतीत होता है कि यह मन्दिर में भक्तों के समक्ष दिया गया उपदेश है। उपदेशक ईश भक्तों को आश्वासन प्रदान करता है कि वे ईश्वर पर भरोसा रखना नहीं छोड़ें क्योंकि ईश्वर ही उनके आश्रय, ईश्वर ही उनके दुर्ग और उनका शरण स्थल हैं। ईश्वर ही उनकी रक्षा करने में समर्थ हैं और ईश्वर ही हैं जो उन्हें सभी बुराइयों से बचाते हैं। उपदेशक मानों ईश भक्तों से कहता है कि वे ईश्वर से भय नहीं खायें अपितु उनमें अपने विश्वास को सुदृढ़ करें। भजन का पहला पद, "तुम जो सर्वोच्च के आश्रय में रहते और सर्वशक्तिमान की छत्रछाया में सुरक्षित हो" का अर्थ यही है कि ईश्वर की छत्रछाया में रहकर ही मनुष्य बिलकुल सुरक्षित रह सकता है। उपदेशक कहता है कि  सभी ईशभक्त बारम्बार और निरन्तर सर्वशक्तिमान् ईश्वर की शरण जायें तथा स्वयं यह अनुभव प्राप्त करें कि ईश्वर ही हमारे शरणस्थल हैं। प्रभु ही दुर्जनों से ईशभक्त को सुरक्षा प्रदान करते हैं इसलिये ईश्वर के प्रति अभिमुख होकर ही मनुष्य इस बात की पुनर्खोज करे कि जो कुछ हमें इस जीवन में प्रताड़ित करता है उससे प्रभु ईश्वर ही मुक्ति दिला सकते हैं। उपदेशक का आग्रह है कि प्रत्येक यह  स्वीकार करे कि प्रभु ही "उसकी शरण प्रभु हैं, प्रभु ही हैं उसका गढ़, प्रभु ही उसके ईश्वर हैं जिनपर वह भरोसा रख सकता है।" प्रभु ईश्वर अपने पंख फैला कर हमें ढक लेते, उनके पैरों तले हमें शरणस्थान मिलता है। उनकी सत्यप्रतिज्ञता ही है हमारी ढाल और हमारा कवच।

91 वें भजन के अग्रिम पदों में भी उपदेशक इसी विचार को आगे बढ़ाता हुआ प्रभु पर भरोसा रखनेवाले ईश भक्तों को आश्वासन देता हुआ कहता है, "तुम्हें न तो रात्रि के आतंक से भय होगा और न दिन में चलनेवाले बाण से; न अन्धकार में फैलनेवाली महामारी से और न दोपहर को चलनेवाली घातक लू से। तुम्हारी बग़ल में भले ही हज़ारों और तुम्हारी दाहिनी ओर लाखों ढेर हो जायें, किन्तु तुमको कुछ नहीं होगा। तुम अपनी आँखों से देखोगे, कि किस प्रकार विधर्मियों को दण्ड दिया जाता है, क्योंकि प्रभु तुम्हारा आश्रय है, तुमने सर्वोच्च ईश्वर को अपना शरणस्थान बनाया है।"

इन पदों में आतंक, महामारी, दोपहर को चलनेवाली लू आदि बुराई के आक्रमणों का काव्यात्मक विवरण यही दर्शाता है कि प्राचीन काल में भी आज ही तरह लोगों को बुराई की शक्तियों का भय लगा रहता था। संग्रहालयों में सुरक्षित कई तस्वीरें एवं प्रतिमाएँ डरावने मुख या पंखों वाले आसुरों को दर्शाती हैं। प्रभु ईश्वर को भी पँखों सहित दर्शाया जाता है किन्तु ईश्वर अपने भक्तों की रक्षा के लिये इन्हें फैलाते हैं। मन्दिर के उपदेशक के कहने का सार यह कि हमारा विश्व एक ख़तरनाक स्थल है जहाँ मनुष्य को कभी भी किसी भी क्षण बुराई का बाण लग सकता है किन्तु ईश्वर में भरोसा रखनेवाले को भय खाने की कोई आवश्यकता नहीं। रोमियों को प्रेषित पत्र के आठवें अध्याय के 28 वें पद में सन्त पौल लिखते हैं, "हम जानते हैं कि जो लोग ईश्वर को प्यार करते हैं और उनके विधान के अनुसार बुलाये गये हैं, ईश्वर उनके कल्याण के लिये सभी बातों में उनकी सहायता करते हैं।" फिर चाहे वह, उपदेशक के अनुसार, "रात्रि का आतंक हो, दिन में चलनेवाला बुराई का बाण हो या फिर बीमारी और सूर्य की कड़कती धूप में चलनेवाली लू ही क्यों न हो।"  

श्रोताओ, आज के परिप्रेक्ष्य में यदि स्तोत्र ग्रन्थ के उक्त भजन को समझने का प्रयास करें तो हमारी समझ में यह कतई नहीं आता कि इन सबका आज के मनुष्य से क्या लेना देना है? महान मनश्चिकित्सक एवं वैज्ञानिक यंग ने लिखा है, "हम सब अपने पड़ोसियों की तरह ही अनियंत्रित भय से भयभीत रहा करते हैं। इस बात से सभी परिचित हैं कि पागलखानों के रोगी जब किसी भय से आतंकित रहते हैं तब वे प्रायः केवल क्रुद्ध अथवा घृणा भाव से ही भर नहीं उठते अपितु और अधिक ख़तरनाक हो जाते हैं।" इसी प्रकार, जे. बी. प्रीस्ट्ली लिखते हैं, "सरकारों के मुखिया भली भातिँ जानते हैं कि भयभीत लोगों पर आसानी से शासन किया जा सकता है तथा यह भी जानते हैं कि भय के कारण ही "रक्षा" पर किये जानेवाले लाखों और करोड़ों के खर्च पर भी लोग सहमत हो जाते हैं।"

श्रोताओ, प्रभु ईश्वर भय खानेवाली हमारी मानवीय प्रकृति से परिचित हैं। यदि धर्मग्रन्थों में निहित "स्वर्गदूत" शब्द पर हम ग़ौर करें तो हमें ज्ञात होता है कि जब अनन्त का भाव मानव मन में या उसके अन्तःकरण में प्रस्फुटित होता है तब सबसे पहले मनुष्य अपने मनोमस्तिष्क और अपने हृदय से जिन शब्दों का श्रवण करता है वह है, "डरो मत"। वस्तुतः 91 वें भजन में उस नन्हें बालक का चित्र प्रस्तुत किया गया है जो पूरे भरोसे और विश्वास के साथ अपने पिता की ओर दृष्टि डालता है, यह जानते हुए कि पिता की छत्रछाया में वह सुरक्षित है। श्रोताओ, देखभाल करनेवाले प्रभु ईश्वर के पँखों या ईश्वर की छत्रछाया का विचार प्राचीनतम काल से चला आ रहा विचार है। जैसा कि निर्गमन ग्रन्थ के 19 वें अध्याय के चौथे पद में लिखा है, "तुम लोगों ने स्वयं देखा है कि मैंने मिस्र के साथ क्या-क्या किया और मैं किस तरह तुम लोगों को गरुड़ के पँखों पर बैठाकर यहाँ अपने पास ले आया।" और फिर विधि विवरण ग्रन्थ के 32 वें अध्याय के 12 वें पद के अनुसार, "प्रभु ही अपनी प्रजा का पथ प्रदर्शक रहा।" 








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