2017-10-17 10:46:00

पवित्रधर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय- स्तोत्र ग्रन्थ, भजन 88-89 (व्याख्या)


पवित्र धर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय कार्यक्रम के अन्तर्गत इस समय हम बाईबिल के प्राचीन व्यवस्थान के स्तोत्र ग्रन्थ की व्याख्या में संलग्न हैं। स्तोत्र ग्रन्थ 150 भजनों का संग्रह है। इन भजनों में विभिन्न ऐतिहासिक और धार्मिक विषयों को प्रस्तुत किया गया है। कुछ भजन प्राचीन इस्राएलियों के इतिहास का वर्णन करते हैं तो कुछ में ईश कीर्तन, सृष्टिकर्त्ता ईश्वर के प्रति धन्यवाद ज्ञापन और पापों के लिये क्षमा याचना के गीत निहित हैं तो कुछ ऐसे भी हैं जिनमें प्रभु की कृपा, उनके अनुग्रह एवं अनुकम्पा की याचना की गई है। इन भजनों में मानव की दीनता एवं दयनीय दशा का स्मरण कर करुणावान ईश्वर से प्रार्थना की गई है कि वे कठिनाईयों को सहन करने का साहस दें तथा सभी बाधाओं एवं अड़चनों को जीवन से दूर रखें।

"प्रभु! मैं तुझे पुकारता हूँ। प्रातःकाल मेरी प्रार्थना तेरे पास पहुँचती है। प्रभु! तू मेरा त्याग क्यों करता है? तू मुझसे अपना मुख क्यों छिपाता है?"

श्रोताओ, ये थे स्तोत्र ग्रन्थ के 88 वें भजन के 14वें एवं 15 वें पदों में निहित शब्द। इन पदों की  व्याख्या के साथ ही विगत सप्ताह हमने पवित्र धर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय कार्यक्रम समाप्त किया था। इस तथ्य पर हम ग़ौर कर चुके हैं कि 88 वाँ भजन हताशा में ईश भक्त की प्रार्थना है। भक्त अपनी परेशानियों का उल्लेख कर प्रभु ईश्वर से सहायता की आर्त याचना करता है और उसकी याचना का आधार है ईश्वर में उसका अटल विश्वास। 14 वें एवं 15 वें पदों में वह मानों प्रभु ईश्वर को स्मरण दिलाता है कि चाहे कुछ भी हो जाये वह प्रतिदिन प्रार्थना करता है। कहता है, "प्रभु! मैं तुझे पुकारता हूँ। प्रातःकाल मेरी प्रार्थना तेरे पास पहुँचती है।" कहता है कि मैं तो तुझसे प्रतिदिन प्रार्थना करता हूँ और तू मेरी प्रार्थना सुनता भी है किन्तु इस बार तूने देर क्यों कर दी? जब हमारी प्रार्थना सुनने में विलम्ब होता है तब निश्चित्त रूप से हम महसूस करते हैं कि हमारे धैर्य एवं दृढ़ता की परीक्षा ली जा रही है किन्तु इसके बावजूद जो व्यक्ति धैर्यवान रहते तथा दृढ़तापूर्वक प्रार्थना करते हैं उन्हें निराश नहीं होना पड़ता। जैसा कि हम पहले भी बता चुके हैं धर्मशास्त्रों के अनुसार ईश्वर की सत्यप्रतिज्ञता एक नियुक्त एवं निश्चित्त क्षण के लिये है और उसी क्षण वह स्वतः को प्रकाशित करती है इसलिये धैर्यपूर्वक सतत् प्रार्थना करते रहने की ज़रूरत है।

धैर्यवान विश्वासी की प्रार्थना उस समय और अधिक गम्भीर हो उठती है जब वह संकट से घिरा होता है। प्रातः काल अपना काम शुरु करने से पहले वह ईश्वर का नाम लेता, उनकी दुहाई देता तथा अपने सभी कार्यों पर ईश्वर की अनुकम्पा एवं उनकी आशीष की मंगलकामना करता है। इसी प्रकार, दिन समाप्त हो जाने पर भले ही उसके काम अधूरे और असफल क्यों न रहे हों वह नियमित रूप से सान्ध्य वन्दना में प्रभु की दुहाई देता उनकी स्तुति करता है क्योंकि उसका विश्वास अटल है कि  प्रभु उसकी सुधि अवश्य ही लेंगे और कष्टों से उसका उद्धार करेंगे।  

और अब आइये स्तोत्र ग्रन्थ के 88 वें भजन के अन्तिम शब्दों पर ग़ौर करें। इन शब्दों में भी भजनकार की प्रार्थना जारी रहती है कि प्रभु आयें और उसे उसके कष्टों से मुक्ति दिलायें। इस भजन के 16 से लेकर 19 तक के पद इस प्राकर हैं, "मैं अभागा हूँ बचपन से प्राणपीड़ा सहता हूँ। तुझसे आतंकित होकर निष्क्रिय हूँ। मैं तेरे प्रकोप के व्याघात सहते रहा; तेरी विभिषिकाओं ने मेरा विनाश किया है। मैं जीवन भर उनसे जल की बाढ़ की तरह घिरा रहा। उन्होंने मुझे चारों ओर से घेर लिया है। तूने मेरे साथियों और मित्रों को मुझसे दूर किया है। अन्धकार ही मेरा एकमात्र आत्मीय है।"     

ईश सन्तान के लिये सबसे कष्टकर बात प्रभु ईश्वर से अलग होने की अनुभूति है। उसके लिये सबसे बड़ा दर्द ईश्वर के आसरे को खो देना है क्योंकि ईश्वर ही हमारी शरणशिला, हमारे दुर्ग और हमारे रक्षक गढ़ हैं। जब सूरज बादलों से घिर जाता है तो उसका प्रकाश ओझल हो जाता है और वह पृथ्वी को कुछ समय के लिये अंधकारमय कर देता है किन्तु यदि सूर्य पृथ्वी का परित्याग कर दे तो जो पृथ्वी पर बचा होगा वह किसी अंधकारपूर्ण तहखाने से भी ख़ौफ़नाक होगा। जिन लोगों को प्रभु पर विश्वास है, जिन्हें प्रभु पर भरोसा है कभी-कभी वे भी इस गति को महसूस करते हैं, कभी-कभी उन्हें भी लगता है कि ईश्वर ने उनका परित्याग कर दिया है और अब केवल ईश्वर का कोप उनके हिस्से में बाकी रह गया है। इसी प्रकार की भावना को भजनकार ने अभिव्यक्ति प्रदान की है, कहता है, "मैं अभागा हूँ बचपन से प्राणपीड़ा सहता हूँ। तुझसे आतंकित होकर निष्क्रिय हूँ। मैं तेरे प्रकोप के व्याघात सहते रहा; तेरी विभिषिकाओं ने मेरा विनाश किया है। और फिर, "तूने मेरे साथियों और मित्रों को मुझसे दूर किया है। अन्धकार ही मेरा एकमात्र आत्मीय है।"    

श्रोताओ, जब किसी कारणवश मित्र अथवा प्रियजन हमसे दूर हो जाते हैं तब हम इसका ज़िम्मेदार ईश्वर को ही मानते हैं। यहाँ तक कि संकट के समय प्रभु येसु ख्रीस्त ने भी इसी प्रकार पिता ईश्वर को पुकारा था। उन्होंने केवल गेथसेमनी की बारी में और कलवारी पर्वत पर ही दुःख नहीं सहा बल्कि उनका सम्पूर्ण जीवन कठिन श्रम एवं दुःख कष्टों से भरा रहा। घोर पीड़ा और संकट के समय उनके मित्रों एवं उनके अपनों ने उनका परित्याग कर दिया था किन्तु ईश्वर की इच्छा को पूरा करते हुए उन्होंने दुःख भोगा, क्रूस पर चढ़ाये गये, मृतकों में से जी उठे तथा युगयुगान्तर तक सब लोगों के लिये उन्होंने मुक्ति का द्वार खोल दिया।

और अब आइये स्तोत्र ग्रन्थ के 89 वें भजन पर दृष्टिपात करें। 53 पदों वाले इस लम्बे भजन में ईशभक्त प्रभु ईश्वर की अनुपम शक्ति एवं उनकी सत्यप्रतिज्ञता को पहचानते हुए उनका स्तुतिगान करता है। उनके उपकारों के लिये वह धन्यवाद ज्ञापित करता तथा सदा-सर्वदा के लिये उनका गुणगान करने का प्रण करता है। प्रभु की स्तुति में गाये गये इस 89 वें भजन के साथ ही स्तोत्र ग्रन्थ का तृतीय खण्ड समाप्त हो जाता है। आज इस भजन के प्रथम कुछ पदों के पाठ से ही हम पवित्र धर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय कार्यक्रम समाप्त करना चाहेंगे। ये पद इस प्रकार हैं, "मैं प्रभु के उपकारों का गीत गाता रहूँगा। मैं पीढ़ी दर पीढ़ी प्रभु की सत्यप्रतिज्ञता घोषित करता रहूँगा। तेरी कृपा सदा बनी रहेगी। तेरी प्रतिज्ञा आकाश की तरह चिरस्थायी है।" और फिर, प्रभु! आकाश तेरे अपूर्व कार्य घोषित करता है। स्वर्गिकों की सभा तेरी सत्य प्रतिज्ञता का बखान करती है। ईश्वर स्वर्गिकों की सभा में महाप्रतापी है... विश्वमण्डल के प्रभु ईश्वर तेरे समान कौन? प्रभु! तू शक्तिशाली और सत्यप्रतिज्ञ है।








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