2017-10-10 12:14:00

पवित्रधर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय- स्तोत्र ग्रन्थ, भजन 88 (भाग-04)


पवित्र धर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय कार्यक्रम के अन्तर्गत इस समय हम बाईबिल के प्राचीन व्यवस्थान के स्तोत्र ग्रन्थ की व्याख्या में संलग्न हैं। स्तोत्र ग्रन्थ 150 भजनों का संग्रह है। इन भजनों में विभिन्न ऐतिहासिक और धार्मिक विषयों को प्रस्तुत किया गया है। कुछ भजन प्राचीन इस्राएलियों के इतिहास का वर्णन करते हैं तो कुछ में ईश कीर्तन, सृष्टिकर्त्ता ईश्वर के प्रति धन्यवाद ज्ञापन और पापों के लिये क्षमा याचना के गीत निहित हैं तो कुछ ऐसे भी हैं जिनमें प्रभु की कृपा, उनके अनुग्रह एवं अनुकम्पा की याचना की गई है। इन भजनों में मानव की दीनता एवं दयनीय दशा का स्मरण कर करुणावान ईश्वर से प्रार्थना की गई है कि वे कठिनाईयों को सहन करने का साहस दें तथा सभी बाधाओं एवं अड़चनों को जीवन से दूर रखें।

"क्या तू मृतकों के लिये चमत्कार दिखायेगा? क्या मृतक उठकर तेरी स्तुति करेंगे? क्या कब्र में तेरे प्रेम की चर्चा होती है? अधोलोक में तेरी सत्यप्रतिज्ञता का बखान होता है? क्या मृत्यु की छाया में लोग तेरे चमत्कार, विस्मृति के देश में तेरी न्याय प्रियता जानते हैं।"

श्रोताओ, ये थे स्तोत्र ग्रन्थ के 88 वें भजन के 11 से लेकर 13 तक के पद। इन पदों के पाठ से ही विगत सप्ताह हमने पवित्र धर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय कार्यक्रम समाप्त किया था। इस तथ्य पर हम ग़ौर कर चुके हैं कि 88 वाँ भजन हताशा में ईश भक्त की प्रार्थना है। भक्त अपनी परेशानियों का उल्लेख कर प्रभु ईश्वर से सहायता की आर्त याचना करता है और उसकी याचना का आधार है उसका यह अटल विश्वास कि ईश्वर की अनुमति के बग़ैर एक पत्ता भी नहीं हिलता। वह अपनी सारी व्यथाओं को ईश्वर के समक्ष रख देता है ताकि ईश्वर जो परम न्यायकर्त्ता हैं उसका न्याय करें। अपनी ग़लतियों के कारण वह भयभीत है और पाप के कारण ईश्वर के कोप का भय है उसे सताता है। कहता है, "तेरे क्रोध का भार मुझे दबाता है, उसकी लहरें मुझे डुबा ले जाती हैं।"

इस पद के विषय में हमने पवित्र बाईबिल को उद्धृत कर श्रोताओ का ध्यान इस ओर आकर्षित किया था कि पाप से बढ़कर कोई ऐसी क्षति नहीं जिसकी भरपाई की जा सके। पाप एक व्यक्तिगत समस्या है जिसका समाधान हम स्वयं अपने बल पर नहीं पा सकते। हम अपने आपका उद्धार नहीं कर सकते, अपनी क्षमताओं और योग्यताओं के बल पर पापों की क्षमा नहीं प्राप्त कर सकते। अस्तु, यह उचित ही 88 वें भजन का रचयिता प्रभु ईश्वर की ओर अभिमुख होता और अपनी वर्तमान दुर्जेय स्थिति को प्रभु ईश्वर के समक्ष रखकर उनसे उद्धार की याचना करता है। 

श्रोताओ, प्रार्थना न सुनी जाने पर हम भी हताश हो जाते हैं और असमंजस में पड़ जाते हैं कि क्यों प्रभु हमारी प्रार्थना नहीं सुन रहे हैं। जब जीवन की परीक्षा कठिन और दुर्दम्य लगने लगती है तब हम भी कराह उठते हैं और कई सवाल हमारे मन में उठने लगते हैं। इसी तरह के सवाल 88 वें भजन के रचयिता के मन में उठे। ईश्वर को सम्बोधित कर वह कहता है, "क्या तू मृतकों के लिये चमत्कार दिखायेगा? क्या मृतक उठकर तेरी स्तुति करेंगे? क्या कब्र में तेरे प्रेम की चर्चा होती है? अधोलोक में तेरी सत्यप्रतिज्ञता का बखान होता है? क्या मृत्यु की छाया में लोग तेरे चमत्कार, विस्मृति के देश में तेरी न्याय प्रियता जानते हैं।"

श्रोताओ, इन पदों को पढ़ते समय एक बात ध्यान में रखना हितकर होगा कि मृत आत्माएँ वास्तव में ईश्वर के चमत्कार को जान सकती हैं और उनकी सच्चाई, न्याय और प्रेम की घोषणा कर सकती हैं; लेकिन मृत शरीर नहीं कर सकते हैं; मृत शरीर न तो ईश्वर से अनुग्रह प्राप्त कर सकते हैं और न ही उनकी स्तुति कर सकते हैं। अब हम इस उलाहना या शिकायत को  निराशा या हताशा की भाषा नहीं मान सकते क्योंकि ऐसा नहीं है कि भजनकार ने यह सोच लिया था कि ईश्वर उसकी मदद नहीं कर सकते थे अथवा नहीं करना चाहते थे। इसी प्रकार हताशा के ये शब्द भजनकार के न्याय के अन्तिम दिन मृतकों के पुनःरुत्थान में अविश्वास की भी अभिव्यक्ति नहीं है और इसीलिये वह ईश्वर से त्वरित राहत की प्रार्थना करता है। यदि उसका विश्वास दृढ़ नहीं होता तो वह प्रार्थना करता ही नहीं।

आगे 88 वें भजन के 14 वें एवं 15 वें पदों में भजनकार मानों प्रभु ईश्वर को स्मरण दिलाते हुए सवाल करता है कि वह तो प्रतिदिन प्रार्थना करता है फिर क्यों उसकी प्रार्थना अनसुनी रह जाती है? कहता है, "प्रभु! मैं तुझे पुकारता हूँ। प्रातःकाल मेरी प्रार्थना तेरे पास पहुँचती है। प्रभु! तू मेरा त्याग क्यों करता है? तू मुझसे अपना मुख क्यों छिपाता है?"

प्राचीन व्यवस्थान के योब के ग्रन्थ में भी इस प्रकार की प्रार्थनाएँ मिलती हैं। संकट में प्रभु को पुकारता हुआ योब इस ग्रन्थ के सातवें अध्याय के सातवें एवं आठवें पदों में कहता है, "प्रभु! याद रख कि मेरा जीवन एक श्वास मात्र है और मेरी आँखें फिर अच्छे दिन नहीं देखेंगी। जो मुझे देखा करता था, वह मुझे फिर नहीं देखेगा; तेरी आँख भी मुझे नहीं देख पायेगी।" और फिर, दसवें अध्याय के 20 वें और 21 वें पदों में योब कहता है, "मेरे दिनों की संख्या थोड़ी ही है। मुझे छोड़ दे, जिससे मुझे कुछ सुख मिले–इससे पहले कि मैं वहाँ जाऊँ, जहाँ से कोई नहीं लौटता।"  वस्तुतः, श्रोताओ, 88 वें भजन के 14 वें पद में भजनकार एक प्रकार से प्रभु ईश्वर में अपने विश्वास की ही अभिव्यक्ति करता है। कहता है, "प्रभु! मैं तुझे पुकारता हूँ। प्रातःकाल मेरी प्रार्थना तेरे पास पहुँचती है।" कहता है कि मैं तो तुझसे प्रतिदिन प्रार्थना करता हूँ और तू मेरी प्रार्थना सुनता भी है किन्तु इस बार तूने देर क्यों कर दी। यहाँ ध्यान देने योग्य तथ्य यह कि हालांकि हमारी प्रार्थना तुरन्त सुनी न जाये तथापि, हमें प्रार्थना करना बन्द नहीं करना चाहिये क्योंकि धर्मशास्त्रों के अनुसार ईश्वर की सत्यप्रतिज्ञता एक नियुक्त एवं निश्चित्त क्षण के लिये है और उसी क्षण वह स्वतः को प्रकाशित करती है।

श्रोताओ, जब हमारी प्रार्थना सुनने में विलम्ब होता है तब निश्चित्त रूप से हम महसूस करते हैं कि हमारे धैर्य एवं दृढ़ता की परीक्षा ली जा रही है किन्तु इसके बावजूद जो व्यक्ति धैर्यवान रहते तथा दृढ़तापूर्वक प्रार्थना करते हैं उन्हें निराश नहीं होना पड़ता। धैर्यवान विश्वासी की प्रार्थना उस समय और अधिक गम्भीर हो उठती है जब वह संकट से घिरा होता है। प्रातः काल अपना काम शुरु करने से पहले वह ईश्वर का नाम लेता, उनकी दुहाई देता तथा अपने सभी कार्यों पर ईश्वर की अनुकम्पा एवं उनकी आशीष की मंगलकामना करता है। इसी प्रकार, सन्ध्या भले ही उसकी प्रार्थना अनसुनी रही हो, भले ही उसके सारे काम असफल रहे हों दृढ़तापूर्वक प्रार्थना करता रहता और अपने इस विश्वास को सुदृढ़ करता है कि एक न एक दिन प्रभु उसकी सुधि अवश्य ही लेंगे और कष्टों से उसका उद्धार करेंगे।








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