2017-02-23 11:06:00

पवित्रधर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचयः स्तोत्र ग्रन्थ 80 वाँ भजन (भाग-3)


पवित्र धर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय कार्यक्रम के अन्तर्गत इस समय हम बाईबिल के प्राचीन व्यवस्थान के स्तोत्र ग्रन्थ की व्याख्या में संलग्न हैं। स्तोत्र ग्रन्थ 150 भजनों का संग्रह है। इन भजनों में विभिन्न ऐतिहासिक और धार्मिक विषयों को प्रस्तुत किया गया है। कुछ भजन प्राचीन इस्राएलियों के इतिहास का वर्णन करते हैं तो कुछ में ईश कीर्तन, सृष्टिकर्त्ता ईश्वर के प्रति धन्यवाद ज्ञापन और पापों के लिये क्षमा याचना के गीत निहित हैं तो कुछ ऐसे भी हैं जिनमें प्रभु की कृपा, उनके अनुग्रह एवं अनुकम्पा की याचना की गई है। इन भजनों में मानव की दीनता एवं दयनीय दशा का स्मरण कर करुणावान ईश्वर से प्रार्थना की गई है कि वे कठिनाईयों को सहन करने का साहस दें तथा सभी बाधाओं एवं अड़चनों को जीवन से दूर रखें। .........

"ईश्वर हमारा उद्धार कर। हम पर दयादृष्टि कर और हम सुरक्षित रहेंगे। विश्वमण्डल के प्रभु-ईश्वर! तू कब तक अपनी प्रजा की प्रार्थना को ठुकराता रहेगा? तूने उसे विलाप की रोटी खिलायी और उसे भरपूर आँसू पिलाये। हमारे पड़ोसी हमारे लिये आपस में लड़ते हैं; हमारे शत्रु हमारा उपहास करते हैं। विश्वमण्डल के प्रभु! हमारा उद्धार कर। हम पर दयादृष्टि कर और हम सुरक्षित रहेंगे।"

श्रोताओ, ये थे स्तोत्र ग्रन्थ के 80 वें भजन के चार से लेकर आठ तक के पद। इन पदों के पाठ से ही हमने विगत सप्ताह पवित्र धर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय कार्यक्रम समाप्त किया था। 80 वें भजन के प्रथम तीन पदों से स्पष्ट है कि इस्राएल के लोग चाहे वे उत्तर के थे अथवा दक्षिण के प्रभु ईश्वर को अपने पूर्वज युसूफ़ एवं दाऊद के युग से ही अपना गढ़, अपना दुर्ग एवं अपना चरवाहा मान कर उसी नाम से उन्हें पुकारते रहे थे। भजन के प्रथम तीन पद वास्तव में इस्राएलियों की पहली प्रार्थना है। ये संवेदनशील और निष्कासित लोग प्रभु ईश्वर से उसी प्रकार प्रार्थना करते हैं जैसे कि उनके पूर्वजों ने की थी। उन्होंने उसी प्रकार ईश्वर को पुकारा था जैसे उत्पत्ति ग्रन्थ के युसुफ़ ने।

इस बात की ओर हमने श्रोताओ का ध्यान आकर्षित कराया था कि राजा सुलेमान की मृत्यु के बाद वर्ष 921 ईसा पूर्व में उत्तर और दक्षिण के बीच विभाजन हो गया था। राजनैतिक तौर पर दक्षिण का राज्य यूदा का राज्य कहलाता था तथा उत्तर का राज्य इस्राएल। हालांकि, ईशशास्त्रीय दृष्टि से सम्पूर्ण ईश प्रजा का नाम इस्राएल ही था, जिसमें उत्तर तथा दक्षिण दोनों राज्य शामिल थे और इस प्रजा के पारलौकिक चरवाहे थे प्रभु ईश्वर। 80 वें भजन के चार से लेकर आठ तक के पदों में हम इस भजन की दूसरी प्रार्थना को पाते हैं। इस प्रार्थना से स्पष्ट है कि इस्राएली प्रजा को प्रार्थना करने के बावजूद ऐसा महसूस हुआ था कि उसके कष्ट और अधिक बढ़ गये थे। इसीलिये वह ईश्वर से प्रश्न कर बैठती है, "तू कब तक अपनी प्रजा की प्रार्थना को ठुकराता रहेगा?"  श्रोताओ, बहुत बार हमें भी इसी प्रकार का अनुभव होता है, हम प्रार्थना करते रहते हैं और हमें लगता है कि प्रभु हमारी प्रार्थना को नहीं सुनते हैं जबकि उचित समय और उचित क्षण हमें प्रार्थना का प्रत्युत्तर अवश्य मिलता है क्योंकि ईश्वर के घर भले ही देर हो जाये अन्धेर नहीं हो सकती।

इसी भजन में आगे के पदों में हमारे समक्ष इस्राएली जाति के निष्कासन की धर्मतत्व वैज्ञानिक व्याख्या प्रस्तुत की गई है। 80 वें भजन के आठ से लेकर 14 तक के पद इस प्रकार हैं: "विश्वमण्डल के प्रभु! हमारा उद्धार कर। हम पर दयादृष्टि कर और हम सुरक्षित रहेंगे। तू मिस्र देश से एक दाखलता लाया, तूने राष्ट्रों को भगा कर उसे रोपा। तूने उसके लिये भूमि तैयार की, जिससे वह जड़ पकड़े और देश भर में फैल जाये। उसकी छाया पर्वतों पर फैलती थी और उसकी डालियाँ ऊँचे देवदारों पर। उसकी शाखाएँ समुद्र तक फैली हुई थीं और उसकी टहनियाँ फ़रात नदी तक। तूने उसका बाड़ा क्यों गिराया? अब उधर से निकलनेवाले उसके फल तोड़ते हैं। जंगली सूअर उसे उजाड़ते हैं और मैदान के पशु उसमें चरते हैं।" 

श्रोताओ, जैसा हमने कहा कि 80 वें भजन के उक्त पद इस्राएली जाति के निष्कासन की धर्मतत्व वैज्ञानिक व्याख्या हमारे समक्ष प्रस्तुत करते हैं। वस्तुतः आठ से लेकर 14 तक के पदों में निहित बातें वे बातें हैं जो इतिहास में एक बार नहीं बल्कि बारम्बार दुहराती रही थीं। इन पदों पर यदि ग़ौर करें तो सर्वप्रथम तो ईश प्रजा प्रभु में अपने विश्वास की पुनरावृत्ति कर कहती है, "विश्वमण्डल के प्रभु! हमारा उद्धार कर। हम पर दयादृष्टि कर और हम सुरक्षित रहेंगे।" और फिर वह प्रभु ईश्वर के मुक्तिदायी कार्य को प्रकाशित कर कहती है, "तू मिस्र देश से एक दाखलता लाया, तूने राष्ट्रों को भगा कर उसे रोपा। तूने उसके लिये भूमि तैयार की, जिससे वह जड़ पकड़े और देश भर में फैल जाये।" इसका अर्थ यह हुआ कि मिस्र की गुलामी से मुक्ति और वहाँ से प्रतिज्ञात देश तक निष्कासन उन सब बातों और घटनाओं का आधार बना जो भविष्य में सम्पादित होनेवाली थीं।

नबी इसायाह ने पहले ही ऐसे दृष्टान्त की रचना की थी जिसमें उन्होंने ईश्वर को दाखबारी के मालिक और इस्राएल को उनकी पसंदीदा दाखबारी रूप में वर्णित किया है, इसायाह के ग्रन्थ के पाँचवे अध्याय के सातवें पद में लिखा हैः "विश्वमण्डल के प्रभु की यह दाखबारी इस्राएल का घराना है और इसके प्रिय पौधे यूदा की प्रजा हैं।" और वास्तव में ऐसा ही था इस्राएल वह अँगूरी थी जो प्रभु की दाखलता में विकसित हुई थी। इसायाह से पूर्व नबी होशेया ने इस्राएल को प्रभु की दाखबारी की अँगूरी कहकर पुकारा था जैसा कि हम होशेया के ग्रन्थ के 10 वें अध्याय के पहले पद में पढ़ते हैं: "इस्राएल फैलनेवाली दाखलता के सदृश है।" आगे 80 वें भजन के 13 वें और 14 वें पदों में हम इस्राएली जाति को यह कहते सुनते हैं, "तूने उसका बाड़ा क्यों गिराया? अब उधर से निकलनेवाले उसके उसके फल तोड़ते हैं। जंगली सूअर उसे उजाड़ते हैं और मैदान के पशु उसमें चरते हैं।" दाखबारी का बाड़ा गिरा और मैदान के पशु उसमें घुस आये और चरने लगे, जगली सूअरों ने उसे उजाड़ दिया इत्यादि सभी अशुभ घटनाओं के लिये इस्राएली जाति ईश्वर को दोषी ठहराती है, अपना दोष उसे नहीं दिखाई नहीं देता। यह बात यिरिमियाह के ग्रन्थ के दूसरे अध्याय के 21 पद से स्पष्ट हो जाती है जिसमें प्रभु ईश्वर प्रश्न करते हैं, "मैंने तुम्हें श्रेष्ठ जाति की उत्तम दाखलता की तरह रोपा फिर तुम्हारी डालियाँ कैसे जंगली दाखलता में बदल गई?" श्रोताओ, हम भी अपने साथ होनेवाली अशुभ घटनाओं का दोष ईश्वर पर मढ़ते हैं। अपने दोष हमें नहीं दिखते, बस यही कहते रहते हैं कि "हमने ईश्वर की दुहाई दी, उनसे विनती की किन्तु उसका कोई फल नहीं मिला बल्कि उसके बदले में हमें दुःख ही दुःख मिले" जबकि सच तो यह है कि प्रत्येक मनुष्य वही पाता है जो वह रोपता है।     

          








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