2016-12-15 07:59:00

पवित्रधर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय, स्तोत्र ग्रन्थ 78 वाँ भजन (भाग - 8)


पवित्र धर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय कार्यक्रम के अन्तर्गत इस समय हम बाईबिल के प्राचीन व्यवस्थान के स्तोत्र ग्रन्थ की व्याख्या में संलग्न हैं। स्तोत्र ग्रन्थ 150 भजनों का संग्रह है। इन भजनों में विभिन्न ऐतिहासिक और धार्मिक विषयों को प्रस्तुत किया गया है। कुछ भजन प्राचीन इस्राएलियों के इतिहास का वर्णन करते हैं तो कुछ में ईश कीर्तन, सृष्टिकर्त्ता ईश्वर के प्रति धन्यवाद ज्ञापन और पापों के लिये क्षमा याचना के गीत निहित हैं तो कुछ ऐसे भी हैं जिनमें प्रभु की कृपा, उनके अनुग्रह एवं अनुकम्पा की याचना की गई है। इन भजनों में मानव की दीनता एवं दयनीय दशा का स्मरण कर करुणावान ईश्वर से प्रार्थना की गई है कि वे कठिनाईयों को सहन करने का साहस दें तथा सभी बाधाओं एवं अड़चनों को जीवन से दूर रखें। .........

"वे अपनी लालसा को शान्त नहीं कर पाये थे, उनका भोजन अभी उनके मुँह में ही था कि ईश्वर का क्रोध उनपर भड़क उठा। उसने उनके शूरवीरों को मारा, उसने इस्राएल के युवकों को भूमि पर बिछा डाला। यह सब होने पर भी वे पाप करते रहे, उन्हें ईश्वर के चमत्कारों पर विश्वास नहीं था।"

श्रोताओ, ये थे स्तोत्र ग्रन्थ के 78 वें भजन के 30 से लेकर 32 तक के पद जिनकी व्याख्या  हमने विगत सप्ताह पवित्र धर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय कार्यक्रम के अन्तर्गत की थी। इनमें भजनकार दुखी है, व्यथित है, हैरान है कि जिन लोगों को ईश्वर से सबकुछ मिला था उन्हीं लोगों ने ईश्वर से बगावत की थी, उन्हीं लोगों ने उनके साथ विश्वासघात किया था। अपने उद्धारकर्ता ईश्वर को वे भूल गये थे और सोने के बछड़े में देवी-देवताओं को पूजने लगे थे और अपनी आपत्तियों का दोष ईश्वर पर मढ़ने लगे थे। वस्तुतः, उक्त पदों में भजनकार हैरान है क्योंकि मुसीबतें आने पर सभी मनुष्य ईश्वर की ओर अभिमुख होते हैं, उनसे दुआ करते हैं, यह मानव स्वभाव के अनुकूल है जबकि इस्राएली लोग अपने संकटों के लिये ईश्वर को ही ज़िम्मेदार मानते रहे और उनके नियमों की अवहेलना करते रहे। सिनई पर्वत से निकलनेवाली धधकती अग्नि को उन्होंने ईश्वर के प्रेम की ज्वाला समझने के बजाय विनाशकारी आग समझा।

इस तथ्य की ओर भी हमने आपका ध्यान आकर्षित कराया था कि उक्त पदों के, "ईश्वर का क्रोध उनपर भड़क उठा, उसने उनके शूरवीरों को मारा" आदि शब्दों द्वारा भजनकार ने कहना चाहा है कि प्रतिज्ञात देश की ओर यात्रा ख़तरों से खाली नहीं थी। लोगों को उजाड़ प्रदेशों से बिना जल और बग़ैर भोजन के आगे बढ़ते रहना पड़ा था। उन्हें जंगली जानवरों एवं ज़हरीले सर्पों का सामना करना पड़ा था और इसी के दौरान कई शूरवीरों की मौत भी हो गई थी। इसी सन्दर्भ में भजनकार कहता है कि ईश्वर ने उनके शूरवीरों को मारा। ईश्वर को ही वे अपने संकटों के लिये ज़िम्मेदार ठहराते रहे क्योंकि ऐसा करना उन्हें सरल लगा और इसीलिये उनका विश्वास डाँवाडोल हुआ। सच तो यह है कि किसी भी लक्ष्य की प्राप्ति हेतु अपने पथ से हट जाना या भटक जाना विश्वास की कमी का परिणाम होता है। विश्वास और भरोसे के अभाव में ही मनुष्य वह करता है जो उसे नहीं करना चाहिये। क्षण भर के लिये उसे प्रतीत होता है कि जो कुछ वह कर रहा होता है वही उचित, उत्तम है और सरल भी। हम सब जानते हैं कि भलाई करना या सत्मार्ग पर चलना सदैव कठिन रहा है, यह मार्ग सदा से ही टेड़ा रहा है, इस पर मानों सदैव काँटें बिछे रहते हैं किन्तु यही मार्ग सही है, यही है वह मार्ग जो सत्य की ओर हमारा पथ प्रदर्शित करता है। यही है वह मार्ग जो हमें ईश्वर  यानि कि अनन्त सत्य तक ले जाता है।  

अब आइये, 78 वें भजन के 32 से लेकर 35 तक के पदों पर दृष्टिपात करें, ये पद इस प्रकार हैं: "यह सब होने पर भी वे पाप करते रहे, उन्हें ईश्वर के चमत्कारों पर विश्वास नहीं थी। इसलिये  उसने एक ही साँस में उनके दिन और आतंक में उनके वर्ष समाप्त कर दिये। जब ईश्वर उनको मारता था, तब वे उसकी खोज करते थे – वे पश्चाताप करते हुए उसकी ओर अभिमुख हो गये। तब उन्हें याद आया कि ईश्वर ही उनकी चट्टान, सर्वोच्च ईश्वर ही उनका मुक्तिदाता था।"

इन पदों में भी 78 वें भजन का रचयिता अपना उपदेश जारी रखता है और लोगों को ईश्वर के महान कार्यों के बारे में याद दिलाता है जिनके बावजूद इस्राएली लोग पाप करते रहे ठीक वैसे ही जैसे वर्तमान युग के लोग कर रहे हैं। हम प्रतिदिन और प्रतिपल ईश्वर के महान कार्यों को अपनी आँखों के सामने देखते हैं, उनका सुखद लाभ उठाते हैं किन्तु उनके लिये ईश्वर के प्रति धन्यवाद ज्ञापित करना भूल जाते हैँ और फिर जब संकट आते हैं तब ईश्वर को ही उनके लिये ज़िम्मेदार ठहराने लगते हैं। इस्राएली लोगों ने यही तो किया था। उन्होंने ईश्वर को कोसा किन्तु और कोई हल न निकलने के बाद एर बार फिर उन्हीं की शरण लौटे, उनकी खोज करने लगे और उनसे दया की याचना करने लगे क्योंकि वे जानते थे कि ईश्वर ही उनकी चट्टान और उनके मुक्तिदाता थे।

78 वें भजन आगे के पदों में यानि 36 से लेकर 39 तक के पदों में हम पढ़ते हैं: "वे अपने मुख से उसे धोखा देना चाहते थे, उनकी जिव्हा उससे झूठ बोलती थी; क्योंकि उनके हृदय में उसके प्रति निष्ठा नहीं थी, उन्हें उसके विधान का भरोसा नहीं था। फिर भी दयासागर प्रभु ने उनका अपराध क्षमा कर उन्हें विनाश से बचा लिया। उसने बारम्बार अपना कोप दबाया; उसने अपना क्रोध भड़कने नहीं दिया। उसे याद रहा कि वे हाड़ माँस भर हैं, श्वास-मात्र, जो निकल कर नहीं लौटता।"

श्रोताओ, इन पदों में हम ईश्वर की करुणा से परिचित होते हैं। जैसे एक माँ अपने दुधमुँहे बच्चे का रुदन नहीं सुन पाती और उसे तुरन्त दूध पिलाने बैठ जाती है उसी प्रकार लोगों की याचना सुनने के बाद ईश्वर दया से पिघल जाते हैं, अपनी सन्तान के प्रति उनका प्रेम और वात्सल्य प्रस्फुटित होकर पश्चाताप करनेवालों को क्षमा प्रदान कर देता है। इन पदों में इस तथ्य की ओर भी ध्यान आकर्षित कराया गया है कि हालांकि, इस्राएली जाति हठीली थी तथापि, उसने भी अपने दुष्कर्मों को स्वीकार किया था और उसके लिये क्षमा की याचना की थी। श्रोताओ, भूल करना मानव स्वभाव के अनुकूल है किन्तु अपनी भूल का एहसास पाने तथा उसके लिये पश्चाताप कर क्षमा याचना करने में मनुष्य की महानता है।








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