2016-11-03 09:48:00

पवित्रधर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचयः 78 वाँ भजन (भाग -2)


पवित्र धर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय कार्यक्रम के अन्तर्गत इस समय हम बाईबिल के प्राचीन व्यवस्थान के स्तोत्र ग्रन्थ की व्याख्या में संलग्न हैं। स्तोत्र ग्रन्थ 150 भजनों का संग्रह है। इन भजनों में विभिन्न ऐतिहासिक और धार्मिक विषयों को प्रस्तुत किया गया है। कुछ भजन प्राचीन इस्राएलियों के इतिहास का वर्णन करते हैं तो कुछ में ईश कीर्तन, सृष्टिकर्त्ता ईश्वर के प्रति धन्यवाद ज्ञापन और पापों के लिये क्षमा याचना के गीत निहित हैं तो कुछ ऐसे भी हैं जिनमें प्रभु की कृपा, उनके अनुग्रह एवं अनुकम्पा की याचना की गई है। इन भजनों में मानव की दीनता एवं दयनीय दशा का स्मरण कर करुणावान ईश्वर से प्रार्थना की गई है कि वे कठिनाईयों को सहन करने का साहस दें तथा सभी बाधाओं एवं अड़चनों को जीवन से दूर रखें। .........

"मेरी प्रजा! मेरी शिक्षा पर ध्यान दो। मेरे मुख के शब्द कान लगाकर सुनो। मैं तुम लोगों को एक दृष्टान्त सुनाऊँगा, मैं अतीत के रहस्य खोल दूँगा। हमने जो सुना और जाना है, हमारे पूर्वर्जों ने जो बताया है – हम यह उनकी सन्तति से नहीं छिपायेंगे। हम यह आनेवाली पीढ़ी को बतायेंगे – प्रभु की महिमा, उसका सामर्थ्य और उसके किये हुए चमत्कार।"   

श्रोताओ, ये थे स्तोत्र ग्रन्थ के 78 वें भजन के प्रथम पद जिनकी व्याख्या से हमने विगत सप्ताह पवित्र धर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय कार्यक्रम समाप्त किया था। 78 वें भजन की पृष्ठभूमि में हमने श्रोताओ का ध्यान इस बात की ओर आकर्षित कराया था कि बाईबिल आचार्यों ने 78 वें भजन को एक उपदेश की संज्ञा दी है। यह एक ऐसा उपदेश है जिसमें उपदेशक मन्दिर में उपस्थित श्रद्धालुओं को सम्बोधित कर उनसे आग्रह करता है कि वे उसकी बात सुनें, उस बात को जो ख़ुद उसने अपने पूर्वजों से सुनी थी। कहता है कि वह ऐसा रहस्य है जिसे छिपाया नहीं जा सकता। उसने अपने पूर्वजों से ईश्वर के महान कार्यों के बारे में सुना था और चाहता था कि उसकी सन्तति और भावी पीढ़ियाँ भी उन्हें जानें। वह अपनी बात दृष्टान्तों में रखना चाहता था।

हमने आपको दृष्टान्त शब्द का अर्थ भी समझाया था किन्तु विगत सप्ताह हमारा प्रसारण सुनने में असमर्थ रहे श्रोताओ के लाभार्थ हम इसे पुनः दुहराना चाहेंगे। दृष्टान्त शब्द का अर्थ होता है, मिसाल और इब्रानी या हिब्रू भाषा में इसके लिये "मशाल" शब्द प्रयुक्त हुआ है। वास्तव में, ऐसी शिक्षा जो ग्राहक अपने मन की आँखों से देख सकता था उसे "मशाल" कहा जाता था। सरल शब्दों में हम इसे उदाहरण कह सकते हैं। बहुत से व्यक्ति अपने जीवन द्वारा हमारे समक्ष आदर्श प्रस्तुत करते हैं उनके उदाहरण से हम बहुत कुछ सीख पाते हैं। इसी सन्दर्भ में 78 वें भजन का उपदेशक कहता है, "मैं तुम लोगों को एक दृष्टान्त सुनाऊँगा, मैं अतीत के रहस्य खोल दूँगा।"

इस बात का भी हमने अवलोकन किया था कि सम्भवतः उस युग में आप बीती घटनाओं को अन्यों तक प्रसारित करने का तरीका केवल मुख का शब्द  हुआ करता था और उपदेशक चाहता था कि उसने जो कुछ अपने पूर्वजों से सुना और सीखा था वह आनेवाली पीढ़ियाँ भी सुनें और सीखें। अपने पूर्वजों से भजनकार ने प्रभु के वैभव, उनके सामर्थ्य और ईश्वर द्वारा सम्पादित चमत्कारों के बारे में सुना था और अब चाहता था कि वर्तमान और भावी पीढ़ियाँ भी उन चमत्कारों से परिचित होवें तथा ईश्वर का गुणगान करें। तात्पर्य यह कि जो कुछ भजनकार ने अपने पूर्वजों से सीखा था अथवा सुना था वह अब अन्यों तक प्रसारित करना चाहता था क्योंकि वह जानता था कि प्राप्त शिक्षा को अपने तक ही रखने से उसका कोई महत्व नहीं होगा।

78 वें भजन का उपदेशक इसी बात की ओर संकेत करता है, इसी पर हमारा ध्यान आकर्षित कराता है कि उपदेशक का कार्य ईश्वर के महान कार्यों के बारे में बताना होता है। उसका कार्य प्रचार करना, शिक्षा देना तथा परामर्श प्रदान करना होता है और हमारा काम होता है उसे ध्यानपूर्वक सुनना तथा उससे मिली शिक्षा को अपने जीवन पर अमल करना। 78 वें  भजन के पाँचवे और छठवें पदों में कहता हैः "उसने याकूब के लिये एक नियम लागू किया; उसने इस्राएल के लिये एक विधान निर्धारित किया। उसने हमारे पूर्वजों को यह आज्ञा दी कि वे उसे अपने पुत्रों को सिखायें, जिससे आनेवाली पीढ़ी, भविष्य में उत्पन्न होनेवाले उनके पुत्र उसे जान जायें और वे भी उसे अपने पुत्रों को बतायें।"

श्रोताओ, विश्वासी परिवार में पोषित होने के कारण ही हम विश्वास के मर्म को समझ पाते हैं इसलिये कि विश्वास को हम अपने ही परिवार में देखते एवं उसका अनुभव करते हैं। ऐसा तब होता है जब माता-पिता या अभिभावक अपने बच्चों के संग-संग कृपा एवं समझदारी में जीवन यापन करते हैं। प्रभु ईश्वर का परम रहस्य उन्हीं लोगों तक प्रसारित होता है जो कृपा की संहिता के अधीन रहकर जीवन यापन करते हैं अर्थात् जो ईशादेशों का निष्ठापूर्वक पालन करते हैं। इस अर्थ में, भजनकार के अनुसार प्रभु ईश्वर ने पहल की। उन्होंने, 78 वें भजन के उक्त पदों के अनुसार, "याकूब के लिये एक नियम लागू किया; उसने इस्राएल के लिये एक विधान निर्धारित किया",  याकूब और इस्राएल एक ही हैं, सम्पूर्ण ईश प्रजा के पूर्वज।

श्रोताओ, साक्ष्य स्मृति को ताज़ा करता है। किसी के द्वारा दिया गया साक्ष्य बताता है कि अतीत में क्या हुआ था अथवा हमें चेतावनी देता है कि कौनसा रास्ता हम न अपनायें। हममें इस तथ्य के प्रति चेतना जागृत करता है कि साक्ष्य जिस बात का प्रतिनिधित्व करता है वह ईश्वर से आती है, जैसा कि हम निर्गमन ग्रन्थ के 16 वें अध्याय के 34 वें पद में हम पढ़ते हैं: "प्रभु ने मूसा को जैसी आज्ञा दी थी, हारून ने उसी के अनुसार उसे विधान-पत्र के सामने रख दिया, जिससे वह सुरक्षित रहे।" ईश्वर के दस नियमों से अंकित पत्थर की दो पाटियों को यही नाम दिया गया। निर्गमन ग्रन्थ के 31 अध्याय के 18 वें पद में लिखा हैः "जब प्रभु सीनई पर्वत पर मूसा से अपनी बातें समाप्त कर चुका, तब उसने उसे विधान की दो पाटियाँ, ईश्वर के हाथ से लिखी हुई दो पत्थर की पाटियाँ दीं।"

"विधान" शब्द, वस्तुतः, 78 वें भजन के पहले पद में निहित "शिक्षा" शब्द का ही पर्याय है। जब हम इसे स्वीकार करते हैं तब हमारी आँखें "मूसा की पाँच पुस्तकों" के प्रति खुल जाती हैं। "तोराह" में प्रभु ईश्वर ने अपनी इच्छा को प्रकट किया है ताकि आनेवलाली सभी पीढ़ियाँ अतीत के अनुभव से शिक्षा प्राप्त कर सके। तात्पर्य यह कि ईश प्रजा अथवा स्वतः को ईश सन्तान या ईश्वर भक्त बतातेवालों को हठधर्मी नहीं बनना है अपितु उन्हें विनम्रतापूर्वक ईश्वर द्वारा दिये गये नियमों पर चलकर जीवन की तीर्थयात्रा पूरी करनी है, जैसा कि मीकाह के ग्रन्थ के छठवें अध्याय के आठवें पद में लिखा है, "मनुष्य तुमको बताया गया है कि उचित क्या है और प्रभु तुम से क्या चाहता है। यह इतना ही है – न्यायपूर्ण व्यवहार, कोमल भक्ति और ईश्वर के सामने विनयपूर्ण आचरण।"








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