2016-10-20 10:20:00

पवित्रधर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय: 77 वाँ भजन, भाग तीन


पवित्र धर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय कार्यक्रम के अन्तर्गत इस समय हम बाईबिल के प्राचीन व्यवस्थान के स्तोत्र ग्रन्थ की व्याख्या में संलग्न हैं। स्तोत्र ग्रन्थ 150 भजनों का संग्रह है। इन भजनों में विभिन्न ऐतिहासिक और धार्मिक विषयों को प्रस्तुत किया गया है। कुछ भजन प्राचीन इस्राएलियों के इतिहास का वर्णन करते हैं तो कुछ में ईश कीर्तन, सृष्टिकर्त्ता ईश्वर के प्रति धन्यवाद ज्ञापन और पापों के लिये क्षमा याचना के गीत निहित हैं तो कुछ ऐसे भी हैं जिनमें प्रभु की कृपा, उनके अनुग्रह एवं अनुकम्पा की याचना की गई है। इन भजनों में मानव की दीनता एवं दयनीय दशा का स्मरण कर करुणावान ईश्वर से प्रार्थना की गई है कि वे कठिनाईयों को सहन करने का साहस दें तथा सभी बाधाओं एवं अड़चनों को जीवन से दूर रखें। .........

"मैं प्रभु के महान कार्यों को याद करता हूँ, प्राचीन काल में उसके किये हुए चमत्कार। मैं तेरे सभी कार्यों पर विचार करता हूँ, तेरे अपूर्व कार्यों का मनन करता हूँ। ईश्वर तेरा मार्ग पवित्र है। कौन देवता हमारे ईश्वर जैसा महान है? तू वह ईश्वर है जो चमत्कार दिखाता है। तूने राष्ट्रों में अपना सामर्थ्य प्रदर्शित किया।"

श्रोताओ, ये थे स्तोत्र ग्रन्थ के 77 वें भजन के 12 से लेकर 15 तक के पद जिनकी व्याख्या से हमने विगत सप्ताह पवित्र धर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय कार्यक्रम समाप्त किया था। इन पदों में भजनकार प्रभु के अपूर्व कार्यों, उनके चमत्कारों तथा उनके सामर्थ्य का स्मरण दिलाता है। वस्तुतः,

प्रार्थना करते समय भक्त में इस तथ्य के प्रति चेतना जागृत होती है कि जो कुछ वह कर सक रहा था वह सब ईश कृपा का फल था। इसीलिये प्रभु के महान कार्यों पर चिन्तन करता है। प्रभु के कार्यों एवं ईश्वर के अस्तित्व पर सन्देह नहीं करता और न ही उनपर अटकलें लगाता हैं अपितु उसमें यह चेतना जागृत होती है कि ईश्वर कभी परिवर्तित नहीं होते। वे आदि से अनादि तक एक समान रहते हैं। जबकि मनुष्य बदल जाता है, वह हर पल बदल सकता है।  भरोसे और विश्वास के पुरुष से वह शक और सन्देह के अन्धेरे में चला जाता है।

 

श्रोताओ, इस तथ्य पर हमने आपका ध्यान आकर्षित कराया था कि बाईबिल का पाठ और अध्ययन तथा प्रार्थना एक ही सिक्के के दो बाजू हैं। 77 वें भजन का रचयिता सर्वप्रथम यह घोषित करता है कि प्रभु ईश्वर पवित्र हैं, वे पापी एवं नश्वर मनुष्यों से बिलकुल अलग हैं। द्वितीय, ईश्वर स्वतः को तथा अपने कार्यों को मनुष्यों के जीवन में ही प्रकट करते हैं। तृतीय, वह इस तथ्य को स्वीकार करता है कि ईश्वर अनन्त हैं। एक प्रकार से 77 वें भजन का प्रार्थी एक बार फिर ईश्वर एवं उनके अपूर्व कार्यों की पुनर्खोज में सफल हो जाता है। कहता है "मैं प्रभु के महान कार्यों को याद करता हूँ, ...मैं तेरे सभी कार्यों पर विचार करता हूँ, तेरे अपूर्व कार्यों का मनन करता हूँ।" जब मनुष्य को ईश्वर की ज़रूरत पड़ती है तब वह उनके अपूर्व कार्यों पर मनन करता है। सच तो यह है कि जब हम मनुष्य प्रार्थना करते हैं तब किसी न किसी चीज़ की कामना करते हैं, किसी न किसी चीज़ की अपेक्षा रखते हैं और 77 वें  भजन के प्रार्थी की तरह ही हमारी भी सोच होती है कि जिस ईश्वर ने सम्पूर्ण पृथ्वी और उसके राष्ट्रों पर अपना सामर्थ्य प्रकट किया वे ईश्वर हम पर भी अपनी कृपादृष्टि रखें, हमारे सब कामों को सफलता दें। सच तो यह है कि 77 वें भजन का प्रार्थी ईश्वर की कृपा से ही ईश्वर के बारे में बात करता और ईश्वर से बात करता है। वह स्वीकार करता है कि ईश्वर ने महान कार्य किये हैं। प्रभु ईश्वर ने इस सृष्टि की रचना की तथा अपने पुत्र प्रभु येसु ख्रीस्त के द्वारा हम मनुष्यों का उद्धार किया इसलिये ईश्वर के महान और अपूर्व कार्यों पर हम मनन-चिन्तन करें, उनसे प्रार्थना करें तथा यह कदापि न भूलें कि हम सब मुक्ति प्राप्त मानव परिवार के सदस्य हैं, हमारी प्रार्थना कभी व्यर्थ नहीं जायेगी।  

आगे 77 वें भजन के अन्तिम छः पदों में हम पढ़ते हैं: "तूने अपने बाहूबल से अपनी प्रजा का, याकूब और युसूफ़ के पुत्रों का उद्धार किया। ईश्वर! सागर ने तुझे देखा। सागर तुझे देखकर काँप उठा, अगाध गर्त्त भी घबरा गया। बादल बरसने लगे, आकाश गरजने लगा, बिजली चारों ओर चमकने लगी। तेरा गर्जन बवण्डर में सुनाई पड़ा, बिजली ने संसार को आलोकित किया, पृथ्वी काँप उठी और डोलने लगी। तेरा मार्ग समुद्र होकर जाता था, गहरे सागर से होकर तेरा पथ जाता था। तेरे पदचिन्हों का पता नहीं चला। तूने मूसा और हारून के द्वारा झुण्ड की तरह अपनी प्रजा का पथ प्रदर्शन किया।"    

श्रोताओ, 77 वें भजन के अन्तिम छः पद अपने आप में एक पूरे भजन की तरह प्रतीत होते हैं हालांकि ऐसा नहीं है क्योंकि ये पद भजनकार की प्रार्थना को जारी रखते हैं। अपनी प्रार्थना में इस तथ्य के प्रति भजनकार में चेतना जागृत होती है कि हालांकि धरती पर वह एक छोटा सा, महत्वहीन प्राणी है ईश्वर के लिये वह महत्वपूर्ण है तथा ईश्वर उसके प्रति अनवरत चिन्तित रहा करते हैं। 77 वें भजन के अन्तिम छः पद स्तोत्र ग्रन्थ के अन्य भजनों के सदृश प्रभु के महान कार्यों के प्रति अभिमुख हैं। सर्वप्रथम सृष्टि में सम्पन्न कार्य और फिर मुक्ति के कार्य। 16 से लेकर 18 तक के पदों में ईश्वर के उन कार्यों का बखान किया गया है जब वे ब्रहमाण्ड की प्राकृतिक शक्तियों के कोलाहल से सृष्टि की रचना में लगे थे और जिसे उन्होंने मात्र अपने मुख के शब्द से सम्पादित कर दिया था। उत्पत्ति ग्रन्थ के पहले अध्याय के प्रथम दो पदों में लिखा हैः "प्रारम्भ में ईश्वर ने स्वर्ग और पृथ्वी की सृष्टि की। पृथ्वी उजाड़ और सुनसान थी। अथाह गर्त्त पर अन्धकार छाया हुआ था और सागर पर ईश्वर का आत्मा विचरता था।"

आगे 19 से लेकर 21 तक के पदों में मिस्र की गुलामी से प्रतिज्ञात देश इस्राएल की ओर जाती इस्राएली जाति के निर्गमन का सन्दर्भ है। इस्राएली जाति इस जटिल यात्रा को ईश्वर के सामर्थ्य से ही पूरा कर सकी थी। निर्गमन ग्रन्थ के 20 वें अध्याय के प्रथम दो पदों में हम पढ़ते हैं: "ईश्वर ने मूसा से यह सब कहा, "मैं प्रभु, तुम्हारा ईश्वर हूँ। मैं तुमको मिस्र देश से, गुलामी के घर से, निकाल लाया। मेरे सिवा तुम्हारा कोई ईश्वर नहीं होगा।" प्रतिज्ञात देश की यात्रा के विषय में निर्गमन ग्रन्थ के 23 वें अध्याय के 20 वें पद में हम ईश्वर के मुख से निकले शब्दों को इस तरह पढ़ते हैं: "मैं एक दूत को तुम्हारे आगे-आगे भेजता हूँ। वह रास्ते में तुम्हारी रक्षा करेगा और तुम्हें उस स्थान तक ले जायेगा, जिसे मैंने निश्चित्त किया है।" इस तरह, 77 वें भजन का रचयिता ईश प्रजा के इतिहास की घटनाओं को याद कर प्रभु ईश्वर से प्रार्थना करता है।

श्रोताओ, इस भजन के पाठ से इस बात के प्रति हमारा ध्यान आकर्षित होता है कि चाहे प्राचीन व्यवस्थान के लोगों द्वारा मन्दिर में प्रार्थना करनेवाला भक्त हो या फिर आज गिरजाघरों में प्रार्थना करनेवाला व्यक्ति हो सबके भाव एक ही प्रकार हैं। 77 वें भजन में इसी तथ्य के प्रति चेतना जागृत की गई है कि ईश्वर से अलग होने की पीड़ा हममें प्रार्थना को जगाती है। चाहे किसी ख़तरनाक बीमारी का सामना करना हो, किसी परिजन की मृत्यु का दुःख हो या फिर युद्ध और संघर्ष की स्थिति में हम प्रार्थना की आवश्यकता को महसूस करते हैं और अपने दुःख में ईश्वर को पुकारते हैं और सान्तवना की आशा करते हैं।

 








All the contents on this site are copyrighted ©.