2016-08-31 11:52:00

पवित्रधर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय, स्तोत्र ग्रन्थ 75 वाँ भजन


श्रोताओ, पवित्र धर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय कार्यक्रम के अन्तर्गत इस समय हम बाईबिल के प्राचीन व्यवस्थान के स्तोत्र ग्रन्थ की व्याख्या में संलग्न हैं। स्तोत्र ग्रन्थ 150 भजनों का संग्रह है। इन भजनों में विभिन्न ऐतिहासिक और धार्मिक विषयों को प्रस्तुत किया गया है। कुछ भजन प्राचीन इस्राएलियों के इतिहास का वर्णन करते हैं तो कुछ में ईश कीर्तन, सृष्टिकर्त्ता ईश्वर के प्रति धन्यवाद ज्ञापन और पापों के लिये क्षमा याचना के गीत निहित हैं तो कुछ ऐसे भी हैं जिनमें प्रभु की कृपा, उनके अनुग्रह एवं अनुकम्पा की याचना की गई है। इन भजनों में मानव की दीनता एवं दयनीय दशा का स्मरण कर करुणावान ईश्वर से प्रार्थना की गई है कि वे कठिनाईयों को सहन करने का साहस दें तथा सभी बाधाओं एवं अड़चनों को जीवन से दूर रखें। .........

"ईश्वर! हम तुझे धन्यवाद देते हैं। हम तेरा नाम लेते हुए और तेरे अपूर्व कार्यों का बखान करते हुए तुझे धन्यवाद देते हैं।"

श्रोताओ, ये थे स्तोत्र ग्रन्थ के 75 वें भजन के प्रथम दो पद। विगत सप्ताह हमने पवित्र धर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय कार्यक्रम के अन्तर्गत हमने इसी भजन की व्याख्या आरम्भ की थी। इसमें भजनकार ईश्वर को सृष्टिकर्त्ता स्वीकार कर उन्हें संसार का एकमात्र न्यायकर्त्ता घोषित करता है तथा उनके अपूर्व कार्यों के लिये उनकी महिमा का बखान करता है। ईश्वर से वह आर्त निवेदन करता है कि जिस सृष्टि की उन्होंने रचना की उसका वे विनाश न होने दें तथा उस पर निवास करनेवाले समस्त लोगों पर अपनी कृपा दृष्टि बनाये रखें। इस प्रकार स्तोत्र ग्रन्थ का 75 वाँ भजन प्रभु ईश्वर की महिमा में रचा गया गीत है। यह सृष्टिकर्त्ता ईश्वर की स्तुति करनेवाला प्रशस्ति गान है। ईश्वर के अपूर्व कार्यों का दीदार कर लेने के बाद भजनकार उनमें अपने विश्वास की अभिव्यक्ति करता है। उसका विश्वास अटल था कि कष्टों एवं संकटों से बचानेवाले एकमात्र ईश्वर ही हैं और इसीलिये मनुष्य सदैव उनसे प्रार्थना करे तथा उनके प्रति धन्यवाद अर्पित किया करे।

भजन में आगे प्रभु ईश्वर के वचनों को इन शब्दों में भजनकार व्यक्त करता हैः "निर्धारित समय आने पर मैं स्वयं निष्पक्षता से न्याय करूँगा। पृथ्वी अपने सब निवासियों के साथ ढह जायेगी। क्या मैंने उसके खम्भों को स्थापित नहीं किया? मैंने घमण्डियों से कहाः घमण्ड मत करो, और दुष्टों सेः अपना सिर मत उठाओ, अपना सिर उतना ऊँचा मत उठाओ, ईश्वर के सामने धृष्टता मत करो। क्योंकि न तो पूर्व से, न पश्चिम से और न मरुभूमि से उद्धार सम्भव है। ईश्वर ही न्यायकर्त्ता है; वह एक को नीचा दिखाता और एक दूसरे को ऊँचा उठाता है।"

श्रोताओ, इन शब्दों से भजनकार एक बार फिर कहता है कि उद्धारकर्त्ता केवल प्रभु ईश्वर हैं और प्रभु ही निर्धारित समय आने पर भक्त का उद्धार करते हैं। संकट कब टलेगा और कठिनाइयाँ कब पार होंगी यह निर्णय मनुष्य नहीं ले सकता क्योंकि केवल ईश्वर न्यायकर्त्ता है, प्रभु ही एकमात्र उद्धारकर्त्ता हैं वे मनुष्य को संकट से उबारने वाले हैं। अस्तु, मनुष्य इस भ्रम में कदापि न पड़े कि वह अपने जीवन का संचालन ख़ुद कर सकता है। इस भ्रम में न पड़े कि वह पीड़ाओं, रोगों, भूकम्पों एवं प्राकृतिक आपदाओं से भरे विश्व रूपी भँवर से स्वयं निकलने में समर्थ है। वस्तुतः, भजन के 06 से लेकर 08 तक के पदों में मनुष्यों से कहा गया है कि वे अपने आप पर घमण्ड न करे। इस बात पर गर्व न करें कि वे किसी की मदद कर सकते हैं अथवा किसी को रोज़गार प्रदान कर सकते हैं अथवा किसी को आवास प्रदान कर सकते क्योंकि जो कुछ मनुष्य कर सकने में समर्थ है वह सब ईश कृपा का परिणाम है। यह न तो जादू-टोने पर, न ही उसके सौभाग्यशाली नक्षत्रों पर और न ही विज्ञान और तकनीकी की प्रगति द्वारा अर्पित माध्यमों पर निर्भर रहता है। भजनकार लोगों में इस तथ्य की चेतना जाग्रत करता है कि ईश्वर की कृपा और ईश्वर की अनुकम्पा के बिना मनुष्य स्वतः कुछ भी करने में समर्थ नहीं होगा। मनुष्य को प्रतिपल ईश्वर की ज़रूरत है इसलिये मनुष्य ईश्वर में अपने विश्वास की अभिव्यक्ति करे, उनकी अनुकम्पा की याचना करे तथा ईश नियमों पर चलता हुआ प्रभु ईश्वर का गुणगान करे और उनकी ही महिमा का बखान किया करे।   

75 वें भजन के छठवें पद में हम पढ़ते हैं: "न तो पूर्व से, न पश्चिम से और न मरुभूमि से उद्धार सम्भव है।" श्रोताओ, सच तो यह है कि जैरूसालेम के दक्षिण-पूर्व स्थित यहूदिया की मरुभूमि उस युग में जंगली जानवरों और सांपों, राक्षसों और जिन्नों का सबब बनी हुई थी; वस्तुतः, यह 74 वें भजन में वर्णित कोलाहल का प्रतिनिधित्व करती है। भजनकार कहता है कि यदि मनुष्य मरुभूमि पर चिन्तन करेगा तो अवश्य ही उसका साक्षात्कार मानवीय अस्तित्व के भयावह पक्ष से होगा। यहाँ स्मरण दिलाना रुचिकर होगा कि सन्त योहन बपतिस्ता एवं स्वयं प्रभु येसु ख्रीस्त ने भी इसी प्रकार की मरुभूमि अथवा उजाड़ प्रदेशों में रहकर मनन-चिन्तन किया था। 75 वें भजन का आठवें पद में निहित "ऊँचा उठाना"  शब्दवली से तात्पर्य राजा के कृत्य से है जिसपर यह शाही फ़ैसला निर्भर रहा करता था कि किसे मार डाला जाना और किसे ऊपर उठाया जाना था। ऐसा ही है, ईश्वरीय न्याय।  न्यायकर्त्ता प्रभु ईश्वर ही जानते हैं कि किसे नीचा दिखाना है और किसे ऊपर उठाना अथवा किसे क्षमा प्रदान कर नवीकृत करना है।

आगे, 75 वें भजन के नवे और दसवें पदों में भजनकार इसी विचार को जारी रखते हुए कहता हैः "तिक्त उफनती मदिरा से भरा, प्रभु के हाथ में एक प्याला है। वह उस में से उँडेलता है – पृथ्वी के सब दुष्ट जनों को उसे तलछट तक पीना है।" और फिर दसवें पद में: "मैं सदा इसकी घोषणा करता रहूँगा, मैं याकूब के ईश्वर की स्तुति करूँगा। मैं सब दुष्टों का सिर झुकाऊँगा, किन्तु धर्मी का सिर ऊँचा उठाया जायेगा।" 

श्रोताओ, यहाँ यह ध्यान रखना हितकर होगा कि भजनकार एक विश्वासी व्यक्ति है, वह अपने पैरों  पर खड़ा एक धर्मपरायण और सत्यनिष्ठ व्यक्ति है जिसने ईश्वरीय क्षमा का सुखद अनुभव पाया है, वह एक नवीकृत, ताज़गी से भरा और आनन्दमय व्यक्ति है और इसी के फलस्वरूप वह साहसपूर्वक कहता हैः "मैं सदा इसकी घोषणा करता रहूँगा, मैं याकूब के ईश्वर की स्तुति करूँगा। मैं सब दुष्टों का सिर झुकाऊँगा, किन्तु धर्मी का सिर ऊँचा उठाया जायेगा।"  








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