2016-07-20 10:45:00

पवित्रधर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय, स्तोत्र ग्रन्थ, भजन 74


श्रोताओ, पवित्र धर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय कार्यक्रम के अन्तर्गत इस समय हम बाईबिल के प्राचीन व्यवस्थान के स्तोत्र ग्रन्थ की व्याख्या में संलग्न हैं। स्तोत्र ग्रन्थ 150 भजनों का संग्रह है। इन भजनों में विभिन्न ऐतिहासिक और धार्मिक विषयों को प्रस्तुत किया गया है। कुछ भजन प्राचीन इस्राएलियों के इतिहास का वर्णन करते हैं तो कुछ में ईश कीर्तन, सृष्टिकर्त्ता ईश्वर के प्रति धन्यवाद ज्ञापन और पापों के लिये क्षमा याचना के गीत निहित हैं तो कुछ ऐसे भी हैं जिनमें प्रभु की कृपा, उनके अनुग्रह एवं अनुकम्पा की याचना की गई है। इन भजनों में मानव की दीनता एवं दयनीय दशा का स्मरण कर करुणावान ईश्वर से प्रार्थना की गई है कि वे कठिनाईयों को सहन करने का साहस दें तथा सभी बाधाओं एवं अड़चनों को जीवन से दूर रखें। .........

"ऐसा लगा कि वे कुल्हाड़ी घुमाकर झाड़ झंकाड़ काट रहे हैं। उन्होंने कुल्हाड़ियों और हथौड़ों से मन्दिर के सभी उत्कीर्ण द्वार टुकड़े-टुकड़े कर दिये। उन्होंने तेरे मन्दिर में आग लगाई, तेरे नाम का निवासस्थान ढा कर दूषित कर दिया। उन्होंने अपने मन में कहा, "हम उनका सर्वनाश करें; हम देश भर के सब सभागृह जला दें।" 

श्रोताओ, ये थे स्तोत्र ग्रन्थ के 74 वें भजन के पाँच से लेकर आठ तक के पद। विगत सप्ताह हमने इन्हीं पदों के पाठ से पवित्र धर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय कार्यक्रम  की व्याख्या समाप्त की थी। 74 वें भजन का रचयिता जैरूसालेम के मन्दिर के विनाश पर विलाप करता है क्योंकि यही शहर इसराएली जाति के लिये उसका सन्दर्भ बिन्दु था। ईश प्रतिज्ञा के अनुसार जैरूसालेम शहर ही राष्ट्रों के मिलन बिन्दु तथा ईश प्रजा के प्रतिज्ञात शहर रूप में चुना गया था। यही था वह शहर जहाँ ईश्वरीय मुक्तियोजना की प्रमुख घटनाएँ घटी। इस भजन में ईश प्रजा रोते हुए ईश्वर को पुकारती है और कहती है, "ईश्वर तूने हमें क्यों त्याग दिया है, क्यों तेरा क्रोध हम पर बना हुआ है।" भजन के पाँच से लेकर आठ तक के पदों में भी मन्दिर के विनाश का भयंकर दृश्य देखने को मिलता है जिसमें ईश्वर का विरोध करनेवाले दुष्ट, घृणा का बीभत्स प्रदर्शन कर, जानबूझकर ईश्वर के पवित्र नाम को और उनके पवित्र स्थल को अपवित्र करने का दुस्साहस करते हैं। सर्वोच्च प्रभु और न्यायप्रिय ईश्वर के पवित्र स्थल पर वे प्रहार करते हैं।   

श्रोताओ, प्राचीन व्यव्स्थान के युग से लेकर नवीन व्यवस्थान तक ईश्वर को तथा उनके द्वारा चुने हुए लोगों को पवित्र नाम से पुकारा गया किन्तु प्रश्न यह उठता है कि सृष्टिकर्त्ता प्रभु ईश्वर ने क्यों अपने पवित्र निवास स्थान, अपने मन्दिर एवं अपनी प्रजा पर दुष्टों को विजयी होने दिया। क्यों प्रभु ईश्वर बुराई एवं भलाई के बीच अनन्त युद्ध में पराजित होते प्रतीत हुए? क्यों बारम्बार ईश प्रजा को, 22 वें भजन के अनुसार, यह कहना पड़ा, "मेरे ईश्वर, मेरे ईश्वर! तूने मुझे क्यों त्याग दिया है? तू मेरी पुकार सुनकर मेरा उद्धार क्यों नहीं करता?" यही पुकार सदियों तक गूँजती रही और अन्ततः स्वयं प्रभु येसु मसीह की आँहों में इसे अभिव्यक्ति मिली। क्रूस पर टँगे येसु ख्रीस्त पुकार उठते हैं: "एली एली लेमा सबाखतानी" अर्थात् मेरे ईश्वर, मेरे ईश्वर, तूने मुझे क्यों त्याग दिया है?" 

स्तोत्र ग्रन्थ के 74 वें भजन में ध्यान देनेवाली बात यह कि दुष्कर्मियों की गतिविधियां केवल बाहरी विनाश तक ही सीमित नहीं रही अपितु वे ईश्वर के पवित्र नाम के निवास स्थान को मिटा डालना चाहते थे। राजाओं के दूसरे ग्रन्थ के 25 वें अध्याय में बाबूल के दुष्ट राजा नबूकदनेज़र द्वारा जैरूसालेम के विनाश का विवरण मिलता है, इसके नवें और दसवें पदों में हम पढ़ते हैं: "उसने प्रभु का मन्दिर, राजा का महल और जैरूसालेम के सब घर जला डाले। उसने जैरूसालेम के सबसे बड़े भवन ध्वस्त कर दिये। अंगरक्षकों के नायक के साथ जो खल्दैयी सेना आयी थी, उसने जैरूसालेम की चारदीवारी गिरा दी।" 

आगे, 74 वें भजन के नवें, दसवें और ग्यारहवें पदों में हम पढ़ते हैं: "हमें कोई चिन्ह नहीं दिखाया जाता, एक भी नबी शेष नहीं रहा। हममें कोई नहीं जानता कि कब तक ऐसा रहेगा? प्रभु! बैरी कब तक तेरी निन्दा करता रहेगा? क्या शत्रु तेरे नाम का उपहास करता रहेगा? तू क्यों अपना हाथ खींचता है? क्यों अपना दाहिना हाथ अपने सीने में छिपाता है?”       

प्रभु याह्वे की भक्ति को पूर्णतया बन्द करने के अभिप्राय से दुष्टों ने जैरूसालेम के मन्दिर के अतिरिक्त यूदा के सभी गाँवों के प्रार्थनास्थलों को भी नष्ट दिया था। इन स्थलों पर सामुएल नबी से लेकर अब तक पुरोहित एवं लेवी वंश के याजक ईश्वर विषयक बातों की व्याख्या किया करते थे जिसका ईश विरोधियों ने अन्त कर दिया था। लोग कहने लग गये थे, "हमें हमारे प्रतीक नहीं मिल रहे हैं जैसे कि अर्का, मन्दिर एवं याजक"। उनके स्थान पर बाबूल के लोगों ने अपने बुतों को स्थापित कर दिया था, इसीलिये 74 वें भजन के चौथे पद में भजनकार कहता हैः "तेरे बैरियों ने तेरे प्रार्थनागृह में शोर मचाया और वहाँ अपने विजयी झण्डे फहराये।" इससे स्पष्ट है कि ईश्वर के शत्रु  इस धरती पर नर्क बनाने में सफल हो गये थे। उनका ईश निन्दक कृत्य प्रभु के विरुद्ध नहीं अपितु ईश इच्छा के विरुद्ध था क्योंकि वह ईश्वरीय अनन्त योजना का अंग नहीं अपितु घोर विनाश का अंग का था।  

श्रोताओ, क्या आज भी यही नहीं हो रहा? क्या आज भी लोग अपने स्वार्थ के लिये पवित्र स्थलों का विनाश नहीं कर रहे? क्या आज भी ईश्वर के नाम का दुरुपयोग नहीं किया जा रहा? अपने मलिन उद्देश्यों के लिये आज भी कुछेक ऐसे हैं जो ईश्वर के नाम से ही इनकार कर देते हैं। ईश्वर के नाम पर निर्मित स्थलों में तोड़-फोड़ मचाते हैं। ईश्वर का नाम लेकर लोगों की ज़मीनों को छीन लेते हैं, उनके आराधनास्थलों को नष्ट कर उनके घरों को आग के हवाले कर देते हैं। आप इन लोगों को कोई भी नाम दे दें, चाहें इन्हें उग्रवादी, चरमपंथी, रूढ़ीवादी अथवा धर्मान्ध किसी भी नाम से पुकार लें, वास्तव में, जो लोग ऐसे घृणित कृत्य करते हैं वे अपने कुकृत्यों का औचित्य ठहराने का हर सम्भव प्रयास करते हैं किन्तु सच तो यह है कि ऐसे कुकृत्यों का कोई औचित्य नहीं। किसी भी बहाने ईश्वर के पवित्र नाम एवं उनके पवित्र स्थल को नहीं मिटाया जा सकता और जो लोग ऐसा करने का दुस्साहस करते हैं वे मनुष्यों के विरुद्ध तो पाप करते ही हैं किन्तु स्वयं सृष्टिकर्त्ता ईश्वर का अपमान करते हैं।








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