2016-06-21 12:20:00

प्रेरक मोतीः सन्त अलोईशियुस गोनज़ागा (1568 ई.-1591 ई.) (21 जून)


वाटिकन सिटी, 21 जून सन् 2016:

अलोईशियुस गोनज़ागा का जन्म उत्तरी इटली स्थित कास्तिलियोने के प्रतिष्ठित गोनज़ागा परिवार में, 09 मार्च सन् 1568 ई. को, हुआ था। गोनज़ागा एक कुलीन परिवार था जो सम्राट फिलिप द्वितीय की सेवा में संलग्न था। अलोईशियुस के पिता सम्राट की सेना में नायक थे तथा चाहते थे कि उनके बाद उनके पुत्र इस पद को सम्भालें।

बचपन से ही अलोईशियुस बीमार रहा करते थे इसलिये उन्हें हवा बदली के लिये फ्लोरेन्स भेज दिया गया था। फ्लोरेन्स में ही उन्होंने आरम्भिक शिक्षा-दीक्षा पाई किन्तु, अक्सर बीमार रहने के कारण, अलोईशियुस को प्रार्थना का समय मिला और 09 वर्ष की छोटी सी आयु में ही उन्होंने त्याग-तपस्या, वैराग्य एवं प्रार्थना से परिपूर्ण जीवन का चयन कर लिया। अनेक सन्तों की जीवनी पढ़ने में वे अपना समय बिताया करते थे जो उनके प्रेरणा स्रोत बने।

सन्तों की जीवनी पढ़ते वक्त ही उन्होंने भारत में सेवारत येसु धर्मसमाजियों के बारे में पढ़ा तथा येसु धर्मसमाज में प्रवेश करने की इच्छा जताई। 18 वर्ष की आयु में उन्होंने रोम के येसु धर्मसमाजी गुरुकुल में प्रवेश पा लिया। सन् 1587 ई. में उन्हें मिलान के एक अस्पताल में सेवा के लिये भेज दिया गया जहाँ जी जान से उन्होंने रोगियों की सेवा की।

सन्त रॉबर्ट बेलारमिनो द्वारा लिखी सन्त अलोईशियुस गोनज़ागा की जीवनी के अनुसार, 23 वर्ष की उम्र में, रोम में, प्लेग महामारी से पीड़ित रोगियों की सेवा करते हुए, 21 जून, सन् 1591 को अलोईशियुस का निधन हो गया। मरने से पूर्व उन्होंने सन्त रॉबर्ट बेलारमिनो से अन्तिम संस्कार प्राप्त किये थे। सन्त बेलारमिनो के अनुसार येसु का पवित्र नाम अलोईशियुस द्वारा उच्चरित अन्तिम शब्द था। सन् 1605 ई. में अलोईशियुस गोनज़ागा को धन्य तथा 1726 ई. में सन्त घोषित किया गया था। उनका पर्व 21 जून को मनाया जाता है।

चिन्तनः "प्रभु मेरा चरवाहा है, मुझे किसी बात की कमी नहीं। वह मुझे हरे मैदानों में बैठाता और शान्त जल के पास ले जा कर मुझ में नवजीवन का संचार करता है। अपने नाम के अनुरूप वह मुझे धर्ममार्ग पर ले चलता है। चाहे अँधेरी घाटी हो कर जाना पड़े, मुझे किसी अनिष्ट की शंका नहीं, क्योंकि तू मेरे साथ रहता है। मुझे तेरी लाठी, तेरे डण्डे का भरोसा है। तू मेरे शत्रुओं के देखते-देखते मेरे लिये खाने की मेज सजाता है। तू मेरे सिर पर तेल का विलेपन करता और मेरा प्याला लबालब भर देता है। इस प्रकार तेरी भलाई और तेरी कृपा से मैं जीवन भर घिरा रहता हूँ। मैं चिरकाल तक प्रभु के मन्दिर में निवास करूँगा"  (स्तोत्र ग्रन्थ भजन 23)।








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