2015-12-04 12:07:00

प्रेरक मोतीः दमिश्क के सन्त जॉन (645 ई.- 749 ई.)


वाटिकन सिटी, 04 दिसम्बर सन् 2015:

पूर्वी रीति की कलीसिया के महान धर्माचार्यों में दमिश्क के सन्त जॉन का नाम गिना जाता है जो अपनी कविताओं तथा ख्रीस्तीय कला एवं भक्ति पर अपने शोध प्रबन्धों के लिये भी पूर्व की कलीलिया में  विख्यात हो गये थे। दमिश्क के जॉन का जीवन चरित, उनके निधन के लगभग 200 वर्षों बाद, जैरूसालेम के जॉन ने लिखा था जिनके अनुसार दमिश्क पर अरबों के आक्रमण के बाद भी जॉन के पूर्वज ख्रीस्तीय धर्म के प्रति सत्यनिष्ठ रहे थे। जैरूसालेम के जॉन के लेखों से पता चलता है कि दमिश्क के जॉन को दमिश्क के धर्माध्यक्ष पेत्रुस द्वितीय ने बपतिस्मा संस्कार प्रदान किया था। बाद में धर्माध्यक्ष पेत्रुस द्वितीय अपने विश्वास के ख़ातिर शहीद हो गये थे।

जॉन के पूर्वजों की सत्यनिष्ठा से प्रभावित होकर अरबी शासकों ने उन्हें अपने न्यायिक कार्यालयों में नौकरी प्रदान कर दी थी ताकि सल्तनत की ख्रीस्तीय प्रजा पर उचित रीति से प्रशासन किया जा सके। उस युग में साराचेन के समुद्री डाकुओं ने सम्पूर्ण भूमध्यसागर तथा उसके तटों पर आतंक मचा रखा था। ये ख्रीस्तीयों का अपहरण कर उन्हें दास बना लिया करते थे। जॉन के पिता सल्तनत में उच्च पद पर नौकरीरत थे जिससे उन्होंने बहुत नाम और धन कमाया किन्तु अपनी अधिकांश धन सम्पत्ति उन्होंने ख्रीस्तीय धर्मानुयायियों को दासता से मुक्त कराने में लगा दी थी। धर्मी पुरुष के सुपुत्र होने के नाते जॉन में भी उदारता एवं अन्यों की सहायता के मूल्य पोषित हुए तथा पिता के बाद जॉन भी इसी नेक काम में लग गये।

पिता की मृत्यु के बाद जॉन को अरबी शासकों ने सल्तनत में उच्च पद पर नौकरी दे दी जो पिता के नेक कार्यों को जारी रखते रहे। इसी दौरान जॉन मूर्ति पूजा विषय पर पूर्व के सम्राट के साथ विवाद में पड़ गये तथा उन्होंने प्रतिमाओं की भक्ति पर अपने तीन शोध प्रबन्धों में से पहला प्रबन्ध लिख डाला। सम्भवतः इस शोध की प्रकाशना सन् 730 ई. में इसाओरियायों के लियो की आदेशाज्ञप्ति के तुरन्त बाद हुई थी। दूसरा शोध प्रबन्ध लिखने से पूर्व ही दमिश्क के जॉन सम्भवतः पुरोहित अभिषिक्त कर दिये गये थे क्योंकि अपने इस शोध में वे अधिकार के साथ अपने पाठकों को सम्बोधित करते प्रतीत होते हैं। जॉन के तीसरे शोध में उनके दोनों शोधों में लिखी बातों का सारांश मिलता है। दमिश्क के जॉन के इन तीन शोध प्रबन्धों का प्रचार उस युग में सम्पूर्ण ख्रीस्तीय जगत में उत्साहपूर्वक कर दिया गया था।

जैरूसालेम के जॉन के अनुसार दमिश्क के जॉन की ख्याति से क्रुद्ध इसाओरियायों के लियो ने उनके विरुद्ध षड़यंत्र रचा और एक झूठा पत्र जॉन के नाम से सम्राट को प्रेषित कर दिया। इस पत्र में जॉन के द्वारा लिखे शोध प्रबन्धों की बात को नकार दिया गया था। सम्राट ने सुल्तान से कहकर जॉन के दोनों हाथ कटवा दिये। जॉन ने अपना विश्वास नहीं त्यागा, वे पवित्र कुँवारी मरियम की प्रतिमा के आगे नत मस्तक हो गये तथा घण्टों घुटने टेककर मरियम से प्रार्थना करने लगे। एक बार प्रार्थना में लीन वे गहरी नींद में सो गये जब वे पुनः जागे तब उनके दोनों हाथ वापस आ गये थे।

माँ मरियम की मध्यस्थता से हुए इस चमत्कार से जॉन का यह विश्वास सुदृढ़ हुआ कि वे माँ मरियम की विशिष्ट सुरक्षा में जीवन यापन कर रहे थे। इस घटना के बाद वे मरियम भक्त बन गये तथा सन्त साबा के मठ में उन्होंने अपना सारा जीवन प्रार्थना में व्यतीत कर दिया। ख्रीस्तीय प्रतिमाओं के पक्ष में उनकी स्पष्ट व्याख्याओं ने दमिश्क के जॉन को "ख्रीस्तीय कला के आचार्य"  की संज्ञा से अलंकृत किया है।  दमिश्क के सन्त जॉन के निधन की तिथि पर धर्मतत्व वैज्ञानिकों में मतभेद है तथापि, यह माना जाता है कि उनका निधन सन् 754 ई. से 787 ई. के बीच हुआ था। दमिश्क के सन्त जॉन का पर्व 04 दिसम्बर को मनाया जाता है।   

चिन्तनः "मेरी आत्मा! ईश्वर में ही शान्ति प्राप्त करो, क्योंकि उसी से मुझे आशा है। वही मेरी चट्टान है, मेरा उद्धार और मेरा गढ़ है; मैं विचलित नहीं होऊँगा। ईश्वर से ही सुरक्षा और सम्मान मिलता है; वही मेरा बल और मेरा आश्रय है" (स्तोत्र ग्रन्थ 62: 6-8)।  








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