2015-10-09 12:16:00

प्रेरक मोतीः सन्त डेनिस, रुस्तीकुस एवं एलियोथेरियुस (तीसरी शताब्दी)


वाटिकन सिटी, 09 अक्टूबर सन् 2015:

सन्त  डेनिस, रुस्तीकुस एवं एलियोथेरियुस तीसरी शताब्दी के शहीद सन्त हैं जिन्होंने ख्रीस्तीय विश्वास के ख़ातिर, सन् 258 ई. में, अपने प्राण न्यौछावर कर दिये थे। छठवीं शताब्दी के लगभग, टूअर्स के सन्त ग्रेगोरी के लेखों में इनका उल्लेख मिलता है। इन तीनों में डेनिस सबसे अधिक जाने जाते हैं।

डेनिस या दियोनिसियुस का जन्म, लालन-पालन एवं शिक्षा-दीक्षा इटली में हुई थी। लगभग सन् 250 ई. में, सन्त पापा सन्त क्लेमेन्त एवं पाँच धर्माध्यक्षों की समिति ने डेनिस को फ्राँस भेजने का फैसला किया जिसके बाद डेनिस फ्राँस के गौल में मिशनरी सेवा के लिये प्रेषित कर दिये गये।

पेरिस शहर के निकटवर्ती सिएने द्वीप पर डेनिस ने अपना मिशन केन्द्र स्थापित किया था इसीलिये उन्हें पेरिस के प्रथम धर्माध्यक्ष तथा फ्राँस के प्रेरित कहा जाता है। एक बार जब वे प्रवचन कर रहे थे तब पेरिसियाई सैनिकों ने उन्हें तथा उनके साथी रुस्तीकुस एवं एलियोथेरियुस को घेर लिया तथा गिरफ्तार कर लिया।

दीर्घकाल तक डेनिस तथा उनके साथी प्रचारकों को बन्दीगृह में रखा गया। कड़ी यातनाएं देकर, ख्रीस्तीय विश्वास के परित्याग की उनसे मांग की गई किन्तु डेनिस तथा उनके साथी मिशनरियों ने प्रभु ख्रीस्त में अपने विश्वास को नहीं त्यागा बल्कि साहसपूर्वक सुसमाचार का साक्ष्य देते रहे। कारावास में भी वे प्रवचन करते रहे तथा सुसमाचार का प्रचार करते रहे जिसके लिये उनके सिरों को धड़ से अलग कर उन्हें मार डाला गया।

किंवदन्ती है कि मृत्यु के बाद डेनिस विख्यात हो गये क्योंकि जब सैनिकों ने तलवार के वार से मिशनरियों के सिरों को धड़ से अलग कर दिया था तब डेनिस अपना सिर हाथ में उठाकर सड़क पर निकल गये थे। बताया जाता है कि लगभग दस किलो मीटर तक वे चलते गये तथा सुसमाचार का प्रचार करते रहे। यही कारण है कि सन्त चरित में, डेनिस को सिर ढोनेवाला तथा सिरदर्द से पीड़ित लोगों का संरक्षक सन्त कहा गया है। इसके अतिरिक्त, सन्त डेनिस अपदूत निवारक हैं। वे रेबिस से पीड़ित रोगियों तथा जलभीति या पानी से डरनेवालों के भी संरक्षक सन्त माने जाते हैं। रोमी शहादतनामें के अनुसार, शहीद सन्त डेनिस तथा उनके साथी शहीद रुस्तीकुस एवं एलियोथेरियुस का पर्व, 09 अक्टूबर को, मनाया जाता है।   

चिन्तनः धन्य हैं जो धार्मिकता के कारण अत्याचार सहते हैं, स्वर्ग राज्य उन्हीं का है। धन्य हो तुम, जब लोग मेरे कारण तुम्हारा अपमान करते हैं, तुम पर अत्याचार करते तथा तरह तरह के झूठे दोष लगाते हैं। खुश हो और आनन्द मनाओ – स्वर्ग में तुम्हें महान पुरस्कार प्राप्त होगा। (सन्त मत्ती 5: 10-12)   








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