2015-09-11 10:36:00

पवित्रधर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय


पवित्रधर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय

"ऊँचे पर्वतो! तुम उस पर्वत से ईर्ष्या क्यों करते हो? प्रभु ने उसे अपने निवास के लिए चुना है, जहाँ वह सदा-सर्वदा विराजमान होगा। ईश्वर के लाखों रथ हैं, प्रभु सिनई से अपने मन्दिर आया है।" और फिर, "हम प्रतिदिन प्रभु को धन्यवाद दिया करें। ईश्वर हमें संभालता और विजय दिलाता है।"

श्रोताओ, ये थे स्तोत्र ग्रन्थ के 68 वें भजन का 16 वें 17 वें और 20 वें पदों में निहित शब्द जिनकी व्याख्या हम पवित्र धर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय कार्यक्रम में कर चुके हैं। 68 वें भजन का रचयिता इस बात के प्रति सचेत कराता है कि जो लोग ईश्वर से तथा अपने भाई और पड़ोसी से प्रेम करते हैं बदले में वे भी प्रेम पायेंगे और आनन्द से भर उठेंगे।

भजनकार स्मरण दिलाता है कि ईश्वर के मुख से निकले शब्द से सृष्टि की रचना हुई और अब ईश्वर ही इसका पालन पोषण करते तथा मानव का उद्धार करते हैं। जल, थल और नभ में ईश्वर विद्यमान रहते, वे ही सृष्टिकर्त्ता, राखनहारा और त्राणकर्त्ता हैं जिन्हें सब समय धन्यवाद अज्ञापित किया जाना चाहिये। इस भजन के 4 से लेकर 6 तक के पदों में लिखा हैः "ईश्वर! राष्ट्र तुझे धन्यवाद दें। सभी राष्ट्र मिल कर तुझे धन्यवाद दें। सभी राष्ट्र उल्लसित हो कर आनन्द मनायें क्योंकि तू न्यायपूर्वक संसार का शासन करता और पृथ्वी पर राष्ट्रों का पथप्रदर्शन करता है।"   और इसी प्रकार  जब भजनकार कहता हैः "हम प्रतिदिन प्रभु को धन्यवाद दिया करें। ईश्वर हमें संभालता और विजय दिलाता है", तब भी वह हमसे प्रभु के महान कार्यों के लिये उनके प्रति आभार प्रकट करने का आग्रह करता है।     

इस सन्दर्भ में हमने इस तथ्य पर ग़ौर किया था कि सिनई पर्वत से भी और बहुत से ऊँचे पर्वत थे किन्तु प्रभु ने सिनई पर्वत को ही अपने नियमों की प्रस्तावना के लिये चुना था, उन्होंने उसे अपने निवास स्थान के लिये चुना था इसीलिये भजनकार हमसे कहता है कि प्रभु ने सिनई पर्वत को चुना इसलिये उससे ऊँचे पर्वतों को ईर्ष्या नहीं करनी चाहिये। अभिप्राय यह कि किसी से ईर्ष्या मत करो, यदि किसी को उसके भले कार्यों के लिये पुरस्कार मिलता है तो आप उससे ईर्ष्या न करें अपितु उससे प्रेरणा पाकर आप भी भले कार्यों में लगे, यदि ईश्वर की किसी पर कृपा रही है और उसका जीवन सुखी है तो उससे ईर्ष्या मत कीजिये अपितु ईश कृपा को पाने लिये निष्ठापूर्वक अपने दायित्वों का निर्वाह करते जाइये।     

आगे 68 वें भजन के 21 से लेकर 24 तक के पदों में हम पढ़ते हैं: "ईश्वर हमारा उद्धार करता है। प्रभु ईश्वर हमें मृत्यु से बचाता है। ईश्वर अपने शत्रुओं का सिर कुचलता है. उस व्यक्ति को, लम्बे बाल वाली खोपड़ी को, जो कुमार्ग पर चलता है। प्रभु ने कहाः "मैं तुम्हें बाशान से ले आऊँगा, तुम्हें समुद्र की गहराइयों से निकाल कर ले आऊँगा, जिससे तुम रक्त में अपने पैर धोओ और तुम्हारे कुत्तों की जीभों को शत्रुओं का अपना हिस्सा मिले।" 

श्रोताओ, 68 वें भजन के उक्त पद हिंसक, क्रूर एवं रक्तरंजित तस्वीर प्रस्तुत करते हैं। 21 वें पद में तो भजनकार कहता है, "ईश्वर हमारा उद्धार करता है। प्रभु ईश्वर हमें मृत्यु से बचाता है", किन्तु उसके तुरन्त बाद उसके विचार हिंसक हो उठते हैं, वह बदले की भावना से भर उठता है और चाहता है कि ईश्वर शत्रुओं का सिर कुचल डालें, कि ईश्वर कुमार्ग पर चलनेवाले को दण्डित करें। उसकी भाषा भी हिंसक हो उठती है और वह चाहता है कि कुमार्ग पर चलनेवाले दुराचारी का रक्त रंजित शरीर उसके सामने हों और वह कुत्तों को उसे खाता देख सके।

इस स्थल पर यह स्मरण करना हितकर होगा कि मानवीय विचार, मानव का मन की सोच उस व्यक्ति को दण्डित देखना चाहता है जिसने उसका बुरा किया है और यहाँ तक तो यह उचित भी लगता है किन्तु उसका न्याय कर और यह कहकर कि वह ईश नियमों का पालन नहीं करता, वह हमारी बातें नहीं सुनता, हमारी तरह की सोच नहीं रखता उसे दण्डित करना अन्यायपूर्ण है। प्रभु येसु मसीह के साथ भी ऐसा ही हुआ था। उन्होंने तो किसी का बुरा नहीं किया था किन्तु उनकी सोच ढोंगी और पाखण्डी शास्त्रियों एवं फरीसियों जैसी नहीं थी इसलिये उन्होंने उन्हें प्राण दण्ड दिलवाया गया। येसु को क्रूस उठाते देख, क्रूस ढोते हुए भूमि पर गिरते देख, उन्हें क्रूस पर ठोंका हुआ और कष्ट से छटपटाता हुआ देख उनके विरोधी अत्यधिक प्रसन्न हुए थे।

श्रोताओ, 68 वाँ भजन भी इसी बात की ओर हमारा ध्यान आकर्षित कराता  है और हमें सावधान करता है कि कहीं हम भी अपने भाई और पड़ोसी के प्रति हिंसक न हो उठे, कहीं हम भी अपनी सोच के अनुसार उनका न्याय न कर डालें। बाईबिल धर्मग्रन्थ का 68 वाँ भजन इसी ख़तरे के प्रति सचेत कराता है क्योंकि बाईबिल धर्मग्रन्थ में निहित बातों का सम्बन्ध वास्तविक घटनाओं एवं  यथार्थ सत्य से है। 

आगे 68 वें भजन के 25 से लेकर 27 तक के पदों में ईश्वर के आदर में आयोजित की जानेवाली शोभायात्राओं का विवरण है, लिखा हैः "ईश्वर, उन्होंने तेरी शोभायात्राओं को देखा, मन्दिर में मेरे ईश्वर, मेरे राजा की शोभायात्राओं को। गायक आगे, वादक पीछे, बीच में वीणा बजाती हुई युवतियाँ। वे गाते हुए ईश्वर को धन्य कहते थे, इस्राएल के पर्वों में प्रभु को धन्य कहते थे।"

श्रोताओ, इन पदों से स्पष्ट है कि इस्राएली जाति मिस्र की दासता से मुक्ति पाने के लिये ईश्वर के प्रति धन्यवाद ज्ञापित करती रही थी और सर्वोच्च प्रभु का गुणगान करती रही थी। इसके साथ ही एक और बात की ओर हमारा ध्यान आकर्षित होता है और वह है महिलाओँ की भूमिका। प्राचीन व्यवस्थान के युग में महिलाओं की भूमिका महत्वपूर्ण रही थी। गायकों और वादकों के बीच भी उनका विशेष स्थान था और वे वीणा बजाती हुई ईश्वर का महिमागान करती थी। उक्त पदों में शोभायात्रा में शरीक समुदाय किसी एक व्यक्ति का समुदाय नहीं था वह लोगों का समुदाय था जो एकसाथ मिलकर प्रभु की स्तुति कर रहा था। इससे भजनकार ने यह सन्देश देना चाहा है कि एकता में सूत्रबद्ध होकर प्रभु से प्रार्थना करना, उनकी स्तुति करना तथा मनुष्यों के हित में काम करना कल भी सम्भव था, ऐसा आज भी सम्भव है तथा युगयुगान्तर तक सम्भव रहेगा।              








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