2015-08-01 10:02:00

प्रेरक मोतीः सन्त आल्फोनसुस मरिये लिगोरी (1696-1787 ई.) (01 अगस्त)


वाटिकन सिटी, 01 अगस्त, सन् 2015:

धर्माध्यक्ष, कलीसियाई आचार्य तथा मुक्तिदाता येसु को समर्पित रिडेम्ट्रिस्ट धर्मसमाज के संस्थापक आल्फोनसुस मरिये लिगोरी का पर्व पहली अगस्त को मनाया जाता है। आल्फोनसुस मरिये लिगोरी का जन्म, इटली के नेपल्स शहर के निकटवर्ती, मरियानेल्ला में, 27 सितम्बर सन् 1696 ई. को हुआ था। नेपल्स में स्कूली एवं विश्वविद्यालयीन शिक्षा प्राप्त करने के उपरान्त 16 वर्ष की आयु में ही आल्फोनसुस मरिये लिगोरी ने डॉक्टेरेड की उपाधि प्राप्त कर ली थी। 19 वर्ष की आयु में उन्होंने वकालात शुरु कर दी थी किन्तु संसार का माया-मोह उन्हें अधिक समय तक नहीं भाया और उन्होंने अदालतों और शोहरत से नाता तोड़ लिया।

28 अगस्त, सन् 1723 ई. को, असाध्य रोगियों के एक अस्पताल की भेंट के दौरान, उन्हें दर्शन मिले जिसमें उनसे कहा गया कि वे अपना जीवन प्रभु ईश्वर के प्रति समर्पित कर दें। उनका परिवार इससे सहमत नहीं था फिर भी आल्फोनसुस धर्मसमाजी जीवन यापन के लिये निकल पड़े। 21 दिसम्बर, 1726 ई. को वे पुरोहित अभिषिक्त हुए और इसके बाद से वे नेपल्स शहर के इर्द-गिर्द कई वर्षों तक घूम-घूम कर सुसमाचार प्रचार द्वारा अपनी प्रेरिताई का निर्वाह करते रहे। तत्कालीन धर्माध्यक्ष थॉमस फालकोइया की मदद से, उन्होंने 09 नवम्बर, 1732 ई. को पवित्र मुक्तिदाता को समर्पित धर्मसमाज की आधारशिला रखी। आरम्भिक बिन्दुओं में उन्हें कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा और स्थापना के एक वर्ष बाद ही उनके साथ केवल एक धर्मबन्धु रह गया जबकि अन्यों ने अपना एक अलग धर्मसमाज खोल लिया।

बाधाओं एवं अवरोधों के तूफान से निकलकर आल्फोनसुस ने सन् 1743 ई. में फिर से दो धर्मसमाजों की स्थापना की एक पुरुषों के लिये और दूसरा महिलाओं के लिये। इन धर्मसमाजों को सन्त पापा बेनेडिक्ट 15 वें ने अनुमोदन दे दिया। 1762 ई. में आल्फोनसुस को पालेरमो का धर्माध्यक्ष मनोनीत किया गया था किन्तु उन्होंने इस पद को अस्वीकार कर दिया तथा लोगों के बीच सुसमाचार प्रचार का विकल्प चुना। तदोपरान्त, लगभग 13 वर्षों तक, आल्फोन्सुस सैकड़ों युवाओं, पुरुषों एवं महिलाओं को प्रशिक्षित करते रहे, ग़रीबों को भोजन कराते रहे तथा ज़रूरतमन्दों की सहायता करते रहे। उन्होंने कई गुरुकुलों एवं धार्मिक आश्रमों को पुनर्संगठित किया तथा ईशशास्त्र का प्राध्यापक रूप में सेवाएँ अर्पित करते रहे।

अथक परिश्रम एवं कठिन जीवन शैली के परिणामस्वरूप आलफोन्सुस गठिया रोग से बीमार हो गये तथा सन् 1768 ई. में गठियाई बुखार की वजह से उन्हें लकवा लग गया। इसके बावजूद उन्होंने  अपने सेवाकार्य जारी रखे। 01 अगस्त, 1787 ई. को नेपल्स शहर के निकटवर्ती नोचेरा में, जब देवदूत प्रार्थना के अवसर पर, मध्यान्ह 12 बजे घण्टे बज रहे थे, उन्होंने अपने प्राण त्याग दिये। सन् 1816 ई. में आल्फोनसुस मरिये लिगोरी को धन्य तथा सन् 1839 ई. में सन्त घोषित किया गया था। सन् 1871 ई. में सन्त पापा पियुस 11 वें ने उन्हें कलीसिया के आचार्य घोषित कर सम्मानित किया था। नैतिकता, तपस्वी जीवन तथा ईशशास्त्रीय एवं धर्मतत्वविज्ञान सम्बन्धी उनके लेखों एवं प्रबन्धों के लिये आल्फोनसुस मरिये लिगोरी काथलिक कलीसिया के स्तम्भों में से एक बन गये हैं। उनका पर्व पहली अगस्त को मनाया जाता है। 

चिन्तनः "मैंने प्रार्थना की और मुझे विवेक मिला। मैंने विनती की और मुझ पर प्रज्ञा का आत्मा उतरा। मैंने उसे राजदण्ड और सिंहासन से ज्यादा पसन्द किया और उसकी तुलना में धन-दौलत को कुछ नहीं समझा। मैंने उसकी तुलना अमूल्य रत्न से भी नहीं करना चाहा; क्योंकि उसके सामने पृथ्वी का समस्त सोना मुट्ठी भर बालू के सदृश है और उसके सामने चाँदी कीच ही समझी जायेगी।  मैंने उसे स्वास्थ्य और सौन्दर्य से अधिक प्यार किया और उसे अपनी ज्योति बनाने का निश्चय किया; क्योंकि उसकी दीप्ति कभी नहीं बुझती" (प्रज्ञा ग्रन्थ 7: 7-10)। 

 








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