2015-06-18 12:15:00

पर्यावरण पर सन्त पापा का विश्व पत्र वाटिकन प्रेस सम्मेलन में प्रस्तुत


वाटिकन सिटी, गुरुवार, 18 जून 2015 (सेदोक): सन्त पापा फ्राँसिस का विश्व पत्र "लाओदातो सी" (प्रशंसा हो), गुरुवार को वाटिकन में आयोजित एक प्रेस सम्मेलन में पत्रकारों के समक्ष प्रस्तुत किया गया।

परमधर्मपीठीय न्याय एवं शांति समिति के अध्यक्ष कार्डिनल पीटर टर्कसन ने पत्रकारों के समक्ष इस ऐतिहासिक पत्र की प्रस्तावना करते हुए कहा कि विश्व को सम्बोधित अपने पत्र में सन्त पापा फ्राँसिस जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणामों की ओर ध्यान आकर्षित कराते तथा धरती के संसाधनों के सदुपयोग एवं समान वितरण की गुहार लगाते हैं।

"लाओदातो सी" शीर्षक ईश्वर की सृष्टि: धरती के ग्रहों एवं तत्वों के लिये प्रभु ईश्वर की प्रशंसा में असीसी के सन्त फ्राँसिस की प्रार्थना से लिया गया है।

वाटिकन प्रेस के प्रवक्ता फादर फेदरीको लोमबारदी ने विश्व पत्र के विषय में कहा है कि विगत 25 वर्षों से वे वाटिकन में सेवारत हैं किन्तु इन वर्षों में पहली बार उन्होंने किसी दस्तावेज़ की प्रकाशना से पूर्व उसपर इतनी अधिक, गहन और विश्वव्यापी चर्चा सुनी है जैसा कि इस समय सन्त पापा फ्राँसिस के विश्व पत्र "लाओदातो सी" पर हो रही है।

प्रेस सम्मेलन में संवाददाताओं से उन्होंने कहा, "पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन की अहमियत एवं सामयिकता को दृष्टिगत रख मानवजाति इस विषय पर स्पष्ट रूप से सार्वभौमिक कलीसिया के शब्द सुनने के लिये उत्सुक थी।"

फादर लोमबारदी ने कहा, "इस दिन हमें यह आभास हो रहा है कि सार्वभौमिक कलीसिया सन्त पापा के साथ संयुक्त है।"

वाटिकन ने "लाओदातो सी" विश्व पत्र की प्रकाशना से पूर्व विश्व के धर्माध्यक्षों को इसका प्रारूप प्रेषित किया था ताकि वे अपने धर्मप्रान्तों के विश्वासियों को इस पर आलोकित कर सकें। यह प्रारूप इस प्रकार हैः  लाओदातो सी : "एक नक्शा"

(आपकी स्तुति हो)

यह पाठ विश्व पत्र के आरम्भिक अध्ययन के लिये एक उपयोगी गाईड है। इससे आपको समग्र विकास को समझने तथा बुनियादी विषयों की पहचान करने में मदद मिलेगी। पहले दो पृष्ठ "लाओदातो सी" (अर्थात् "स्तुति हो" या बेहतर "आपकी स्तुति हो") का सिंहावलोकन है। फिर, छह अध्यायों में से प्रत्येक के लिये एक पृष्ठ सारांश है जो तर्क या मुख्य अंक और कुछ प्रमुख अंश प्रस्तुत करता है। कोष्ठक में दिये अंक विश्व पत्र के अनुच्छेदों से सम्बन्धित हैं। अन्तिम दो पृष्ठ सामग्री की तालिका हैं।

एक अवलोकन

"हमारे बाद आनेवालों के लिये हम किस प्रकार का विश्व छोड़ना चाहते हैं, बच्चों के लिये जो इस समय बढ़ रहे हैं?" (160)। यह प्रश्न "लाओदातो सी"  (आपकी स्तुति हो) का केन्द्र है, सामान्य घर की देखभाल पर सन्त पापा फ्राँसिस का नया विश्व पत्र। "यह प्रश्न मात्र पर्यावरण से से ही सम्बन्धित नहीं है, न ही इसका अलगाव ज़रूरी है; इस मुद्दे को टुकड़ों में नहीं देखा जा सकता।" यह हमें अपने आप से, अस्तित्व के अर्थ तथा सामाजिक जीवन पर आधारित इसके मूल्यों के बारे में पूछने तक अग्रसर करता हैः "इस विश्व में हमारे जीवन का क्या उद्देश्य है? हमारे कार्यों एवं हमारे समस्त प्रयासों का क्या लक्ष्य है?" सन्त पापा कहते हैं: "जब तक हम इन गहन मुद्दों पर विशद विचार-विमर्श नहीं करेंगे तब तक – मैं यह विश्वास नहीं कर सकता कि पारिस्थितिकी के लिये हमारी चिन्ता अर्थपूर्ण परिणाम उत्पन्न कर सकेगी" (160)।

इस विश्व पत्र का नाम प्राणियों के गुणगान शीर्षक से रचित सन्त फ्राँसिस के मंगलाचरण "मेरे प्रभु आपकी स्तुति हो" से लिया गया है। यह हममें से प्रत्येक को स्मरण दिलाता है कि पृथ्वी, हमारा सामान्य आवास "एक बहन के सदृश है जिसके साथ हम अपना जीवन साझा करते हैं तथा एक खूबसूरत माँ के सदृश है जो हमारा आलिंगन करने के लिये अपनी बाहें खोल देती है" (1)। लोग भूल गये हैं कि "हम ख़ुद धरती की धूल हैं (दे. उत्पत्ति 2:7); हमारे शरीर उसके तत्वों से बने हैं, उसकी हवा में हम सांस लेते हैं तथा उसके जल से हम जीवन और ताज़गी प्राप्त करते हैं।" (2)।    

अब, यह धरती, दुर्व्यवहार और शोषण की शिकार होकर रो रही है, तथा उसकी कराहें विश्व के समस्त परित्यक्त लोगों की कराहों से जा मिली हैं।  सन्त पापा फ्राँसिस हमें आमंत्रित करते हैं कि हम उन्हें सुनें, हममें से प्रत्येक से – व्यक्ति, परिवार, स्थानीय समुदायों, राष्ट्रों तथा अन्तरराष्ट्रीय समुदाय – वे, सन्त जॉन पौल द्वितीय की अभिव्यक्ति में "पर्यावरणीय मनपरिवर्तन"  का आग्रह करते हैं। अपने "सामान्य आवास की देखभाल" के सौन्दर्य एवं इस कार्य की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर लेकर हमें आमंत्रित किया जाता है कि हम "दिशा परिवर्तन" करें। सन्त पापा फ्राँसिस, सुखपूर्वक, यह मानते हैं कि "पर्यावरण तथा प्रकृति की रक्षा करने की आवश्यकता के प्रति लोगों में संवेदनशीलता की वृद्धि हुई है, साथ ही जो हमारे इस ग्रह पर हो रहा है, वास्तविक एवं दुखद, दोनों के प्रति चिन्ता बढ़ रही है" (19)। सम्पूर्ण विश्व पत्र में आशा की एक किरण प्रवाहित होती है, जो स्पष्ट संदेश देती हैः "मानवता में अभी भी हमारे सामान्य आवास के निर्माण हेतु एक साथ मिलकर काम करने की क्षमता है" (13)। "पुरुष और महिलाएँ अभी भी सकारात्मक हस्तक्षेप में सक्षम हैं" (58)। "सबकुछ खो नहीं गया है। मानव प्राणी, जिनमें सबसे बुरा करने की क्षमता, उनमें अपने आप से ऊपर उठकर फिर से अच्छा चुनने, तथा एक नई शुरुआत करने की भी क्षमता है" (205)। 

सन्त पापा फ्राँसिस, निश्चित् रूप से, काथलिक विश्वासियों को सम्बोधित करते समय, सन्त जॉन पौल को उद्धृत करते हैं: "अपनी ओर से ख्रीस्तीय धर्मानुयायी, इस बात को पूर्ण रूप से समझते हैं कि "सृष्टि के भीतर उनकी ज़िम्मेदारी, तथा प्रकृति एवं सृष्टिकर्त्ता के प्रति उनका दायित्व, उनके विश्वास का अनिवार्य अंग है" (64)। सन्त पापा फ्राँसिस, "अपने सामान्य आवास के बारे में सब लोगों के साथ सम्वाद का" विशेष रूप से, प्रस्ताव करते हैं (3)। सम्वाद, सम्पूर्ण पाठ में जारी रहता है तथा, अध्याय पाँच में वह समस्याओं को सम्बोधित करने तथा उनका समाधान करने का साधन बन जाता है। आरम्भ ही से, सन्त पापा फ्राँसिस स्मरण दिलाते हैं कि पर्यावरण के विषय पर "अन्य कलीसियाओं एवं ख्रीस्तीय समुदायों - और साथ ही अन्य धर्मों ने भी - गहन चिन्ता व्यक्त की है तथा मूल्यवान चिन्तन प्रस्तुत किये हैं" (7)। दरअसल, इस तरह के योगदान स्पष्ट रूप से आते हैं, जैसे "हमारे प्रिय ख्रीस्तीय एकतावर्द्धक प्राधिधर्माध्यक्ष बार्थोलोमेओ से"  जो आठवें और नवें अनुच्छेदों में बड़े पैमाने पर उद्धृत किये गये हैं (7)। कई बिन्दुओं पर सन्त पापा इस प्रयास के मुख्य पात्रों - व्यक्तियों और साथ ही संगठनों एवं संस्थाओं - को धन्यवाद देते हैं।  वे स्वीकार करते हैं कि "कई वैज्ञानिकों, दार्शनिकों, धर्मशास्त्रियों और नागरिक समूहों, सबके (...) चिन्तनों ने इन प्रश्नों पर कलीसिया के विवेचन को समृद्ध बनाया है" (7)। वे सभी को यह स्वीकार करने हेतु आमंत्रित करते हैं कि "अखण्ड पारिस्थितिकी एवं मानवता के पूर्ण विकास में धर्मों का समृद्ध योगदान हो सकता है" (62)। 

       विश्व पत्र का यात्राक्रम 15 वें अनुच्छेद में निहित है जिसे छः अध्यायों में विभाजित किया गया है। यह आज उपलब्ध सर्वोत्तम वैज्ञानिक निष्कर्षों के आधार पर वर्तमान स्थिति की प्रस्तावना से शुरु होता है (अध्याय 1), तदोपरान्त, बाईबिल की एक समीक्षा तथा यहूदी-ख्रीस्तीय परम्परा प्रस्तुत की गई है (अध्याय 2)। तकनीकी-तन्त्र में एवं मनुष्य की अत्यधिक आत्मकेन्द्रीयता में विद्यामन समस्याओं के मूल का विश्लेषण किया गया है (अध्याय 3)। तदोपरान्त, विश्व प्रस्ताव करता है (अध्याय 4) एक "समग्र पर्यावरण, जो स्पष्टतया और अलंघनीय ढंग से पर्यावरणीय मुद्दे सम्बन्धित, अपने मानवीय एवं सामाजिक आयामों का सम्मान करता हो" (137)। इस परिप्रेक्ष्य में, सन्त पापा फ्राँसिस (अध्याय 5) सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक जीवन के हर स्तर पर ईमानदार सम्वाद का प्रस्ताव करते हैं, जो पारदर्शी निर्णय-निर्माण प्रक्रियाओं की रचना करे। यह स्मरण दिलाकर कि ऐसी कोई योजना प्रभावशाली नहीं हो सकती जो प्रशिक्षित एवं ज़िम्मेदार अन्तःकरण से अनुप्राणित न हो (अध्याय 6), इस दिशा में, शैक्षिक, आध्यात्मिक, कलीसियाई, राजनैतिक एवं ईशशात्रीय स्तरों पर विकास हेतु विचार प्रस्तुत किये गये हैं। मूलपाठ दो प्रार्थनाओं से समाप्त होता है; प्रथम, "सर्वशक्तिमान ईश्वर" में विश्वास करनेवाले प्रत्येक व्यक्ति के साझा करने के लिये (246) अर्पित की गई है, तथा दूसरी, "आपकी स्तुति हो" टेक पर बल देते हुए, उन लोगों के लिये जो येसु ख्रीस्त में अपने विश्वास की अभिव्यक्ति करते हैं, जो विश्व पत्र को उदघाटित करता एवं सम्पन्न भी करता है।

कई मुख्य विषय-वस्तु मूलपाठ में जारी रहती हैं जो भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण से सम्बोधित हैं, इस प्रकार यह मूल पाठ जारी रहती हुई उसे एकीकृत करती हैं: 

 

अध्याय 1 – हमारे सामान्य आवास को क्या हो रहा है

पहला अध्याय, सृष्टि की पुकार को सुनने हेतु पर्यावरण पर हाल ही में निकाले गये वैज्ञानिक निष्कर्षों प्रस्तुत करता है, "जिससे हम, दुखद ढंग से, सचेत हो जायें, जिससे हम हमारी अपनी व्यक्तिगत पीड़ा में इस बात पर ध्यान देने की हिम्मत करें कि विश्व को क्या हो रहा है और इस प्रकार यह खोज करें कि हममें से प्रत्येक इस बारे में क्या कर सकता है" (19)। इस प्रकार इसमें  "वर्तमान पारिस्थितिकी संकट के कई पहलुओं"(15) पर विचार किया गया है।

प्रदूषण एवं जलवायु परिवर्तनः "जलवायु परिवर्तन, गम्भीर निहितार्थों सहित, पर्यावरणीय, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक एवं संसाधनों के वितरण से सम्बन्धित एक वैश्विक समस्या है; यह हमारे युग में मानवता के समक्ष प्रस्तुत प्रमुख चुनौतियों का प्रतिनिधित्व करती है" (25)। यदि "जलवायु एक सामान्य संसाधन है, जो सभी का है तथा सबके लिये हैं" (23) इस परिवर्तन का सर्वाधिक प्रभाव निर्धनतम लोगों पर पड़ता है, किन्तु "अनेक लोग जिनके पास अधिक संसाधन अथवा आर्थिक एवं राजनैतिक शक्ति है, वे प्रायः समस्याओं पर पर्दा डालने अथवा इनके लक्षणों को छिपाने के प्रति चिन्तित रहा करते हैं" (26)। इसके साथ ही, "हमारे भाइयों एवं बहनों से जुड़ी इन त्रासदियों के प्रति हमारी प्रतिक्रिया, हमारे उन साथी पुरुषों एवं महिलाओं के प्रति हमारी जवाबदेही की कमी की ओर इंगित करती है, जिनपर नागर समाज की स्थापना हुई है" (25)।       

पानी का मुद्दाः सन्त पापा स्पष्ट करते हैं कि "सुरक्षित पेयजल की उपलब्धि एक बुनियादी और सार्वभौमिक मानवाधिकार है, क्योंकि यह मानव की उत्तरजीविता के लिये अनिवार्य और इसलिये यह मानवाधिकारों की एक शर्त भी"। ग़रीब को पाने के पानी से वंचित करने का अर्थ है "व्यक्ति की  अपरिहार्य गरिमा के अनुरूप उसके जीवन के अधिकार" से इनकार  करना है" (30)।    

जैव विविधता की क्षति: प्रतिवर्ष हज़ारों पौधों एवं पशु प्रजातियों को लापता होते देखा जाता है, जिनके विषय में हम कभी नहीं जानेंगे, जो हमारे बच्चे कभी नहीं देख पायेंगे, क्योंकि वे हमेशा के लिये विलुप्त हो गये हैं" (33)। ये बस कोई दोहन का "संसाधन" नहीं हैं, अपितु इनमें स्वयं एक मूल्य है तथा इनका मूल्य है। इस परिप्रेक्ष्य में, "हमें मानव रचित समस्याओं का समाधान खोजने के लिए समर्पित वैज्ञानिकों और इंजीनियरों द्वारा किए जा रहे सराहनीय प्रयासों के प्रति आभारी होना चाहिए", किन्तु जब मानवीय हस्तक्षेप वित्तीय एवं उपभोक्तावाद की सेवा में किया जाता है तब  "वास्तव में वह हमारी पृथ्वी को कम समृद्ध एवं सुन्दर, अधिक सीमित एवं भूरा कर देता है" (34)।  

मानव जीवन की गुणवत्ता में ह्रास और समाज की विभंग: अंतरराष्ट्रीय संबंधों के एक आचार-शास्त्र के ढाँचे में, विश्व पत्र इंगित करता है कि कैसे दुनिया में, एक "यथार्थ पारिस्थितिक कर्ज" (51)  मौजूद है, विशेष रूप से, दक्षिण की तुलना में उत्तर में"। जलवायु परिवर्तन का सामना करने में "अलग-अलग जिम्मेदारियाँ" हैं (52), और इसमें विकसित देशों की ज़िम्मेदारी अधिक से अधिक है।

इन मुद्दों पर गहन मतभेदों के प्रति सचेत रहते हुए,  सन्त पापा फ्राँसिस, कई लोगों एवं आबादियों पर घाव करनेवाले नाटक के समक्ष, "कमज़ोर प्रतिक्रियाओं" से, स्वतः को गहनतम ढंग से प्रभावित दर्शाते हैं। हालांकि, सकारात्मक जवाबों की कमी नहीं है (58), एक तरह की "आत्मसन्तुष्टि एवं हँसमुख लापरवाही प्रबल है" (59)।  एक समुचित संस्कृति का अभाव है (53) इसी प्रकार जीवन शैली, उत्पादन एवं खपत को बदलने की इच्छा की कमी है (59), लेकिन सौभाग्यवश "एक कानूनी ढांचे की स्थापना हेतु प्रयास जारी है जो स्पष्ट सीमाएं निर्धारित कर सकें तथा पारिस्थितिकी सम्बन्धी प्रणालियों की सुरक्षा सुनिश्चित कर सकें" (53)।  

अध्याय दो – सृष्टि का सुसमाचार

पूर्वाध्याय में सचित्र समस्याओं का सामना करने के लिए सन्त पापा फ्राँसिस, यहूदी-ईसाई परम्परा से आनेवाले व्यापक दृष्टिकोण प्रस्तुत करते तथा सृष्टि के प्रति मानव जाति की "जबरदस्त ज़िम्मेदारी" को सुस्पष्ट ढंग से उच्चरित करते हुए कुछ बाईबिल वृत्त्न्तों का चयन करते हैं (90), सभी प्राणियों के बीच अंतरंग संबंध और यह तथ्य कि "प्राकृतिक वातावरण एक सामूहिक संसाधन है, वह सम्पूर्ण मानवता की विरासत और हर किसी की जिम्मेदारी है" (95)।

बाईबिल में, "जो ईश्वर मुक्ति प्रदान करते तथा उद्धार करते वे वही हैं जिन्होंने सृष्टि की रचना की (...) और क्रियाशील रहने के ये दो दैवीय तरीके अन्तरंग और अपृथक रूप से संयुक्त हैं" (73)। सृष्टि की रचना की कहानी मानव प्राणियों तथा अन्य प्राणियों के बीच सम्बन्ध को समझने के लिये केन्द्रीय है तथा यह समझने के लिये किस प्रकार पाप उसकी पूर्णता में समस्त सृष्टि के सन्तुलन को भंग कर देता हैः "ये वृत्तान्त सुझाव देते हैं कि मानव जीवन तीन बुनियादी एवं बारीकी से गूथे गये सम्बन्धों पर आधारित हैः ईश्वर के साथ, हमारे पड़ोसी के साथ तथा स्वयं धरती के साथ। बाईबिल के अनुसार, ये तीन महत्वपूर्ण सम्बन्ध, बाहर से और भीतर से भी टूट चुके हैं। यह संबंध विच्छेद है पाप"(66)।    

      इसीलिये, हालांकि, "हम ख्रीस्तीयों ने कभी-कभी ग़लत तरीके से धर्मशास्त्रों की व्याख्या है, अब हमें बलपूर्वक इस धारणा का बहिष्कार करना चाहिये कि हमारा ईश्वर के प्रतिरूप में सृजन तथा पृथ्वी पर हमें दिया गया प्रभुत्व अन्य प्राणियों पर हमारे पूर्ण वर्चस्व को उचित ठहराता है" (67), यह जानते हुए कि "अन्य प्राणियों की अन्तिम उद्देश्य हममें नहीं मिल सकता है। इसके विपरीत, सभी प्राणी हमारे साथ एवं हमारे द्वारा, एक सामान्य मुकाम की ओर अग्रसर हो रहे हैं, जो है ईश्वर" (83)।

       यह कि मनुष्य ब्रह्मांड की मालिक नहीं है "इसका अर्थ यह नहीं कि पर सभी जीवित प्राणियों को एक ही स्तर पर रख दिया जाये तथा मानव प्राणियों को उनकी अद्वितीय योग्यता एवं उससे जुड़ी ज़िम्मेदारी से वंचित कर दिया जाये। इसका यह अर्थ पृथ्वी का दैवीकरण है जो हमें उसपर काम करने से एवं उसकी दुर्बलता में उसकी रक्षा करने से वंचित कर सकता है" (90)। इस परिप्रेक्ष्य में,  "किसी भी प्राणी के प्रति क्रूरता का हर कृत्य "'मानव गरिमा के विपरीत है" (92)। हालांकि, "शेष प्रकृति के साथ एक गहन ऐक्य की भावना सच्ची नहीं हो सकती यदि हमारे हृदयों में, अपने साथी मानव प्राणियों के लिये, कोमलता, दया एवं उत्कंठा का अभाव हो" (91। आवश्यकता है एक सार्वभौमिक सहभागिता के प्रति जागरूकता की: हम सब "एक पिता द्वारा अस्तित्व में आने के लिये बुलाये गये हैं। हम सब एक अदृश्य बन्धन में जुड़े हैं तथा एक साथ मिलकर एक प्रकार के ब्रहमाणडीय परिवार की रचना करते हैं, एक उदात्त् सहभागिता जो हमें एक पवित्र, स्नेही और विनम्र सम्मान से भर देती है" (89)।

     अध्याय का समापन ख्रीस्तीय प्रकाशना के केन्द्र से होता हैः  विश्व के साथ  "अपने मूर्त एवं स्नेही सम्बन्ध रखनेवाले "सांसारिक येसु", पुनर्जीवित एवं महिमामय, सम्पूर्ण सृष्टि में अपने सार्वभौमिक स्वामीत्व सहित विद्यमान हैं" (100)।   

 

अध्याय तीन –पर्यावरणीय संकट की मानवीय जड़ें

    यह अध्याय, दर्शन और मानव विज्ञान के साथ सम्वाद में संलग्न रहते हुए, वर्तमान स्थिति का विश्लेषण प्रस्तुत करता है, "जिससे केवल इसके लक्षणों पर ही विचार न किया जाये अपितु इसके गहरे कारणों पर भी चिन्तन किया जा सके" (15)।

    प्रौद्योगिकी पर चिन्तन अध्याय का प्रारंभिक केन्द्र है। जीवन की स्थिति को बेहतर बनाने में  प्रौद्योगिकी और तकनीकियों के महान योगदान को आभार स्वरूप स्वीकार किया गया है। हालांकि  "यह ज्ञान रखनेवालों को, तथा, विशेष रूप से, आर्थिक संसाधनों के उपयोग हेतु उन्हें सारी मानवजाति एवं सम्पूर्ण विश्व पर प्रभावशाली प्रभुत्व प्रदान करता है" (104)। तकनीकी-तांत्रिक  वर्चस्व की मानसिकता ही प्रकृति के विनाश तथा लोगों के शोषण तक ले जाता है, विशेष रूप से, सबसे कमज़ोर आबादियों का। "तकनीकी-तांत्रिक प्रतिमान की प्रवृत्ति अर्थशास्त्र और राजनीतिक जीवन पर भी हावी होने की रहती है" (109), यह हमें यह पहचानने से भी वंचित रखता है कि है कि बाज़ार अकेले ही अखण्ड मानव विकास और सामाजिक समावेश की गारंटी नहीं दे सकते हैं"  (109)। 

    "आधुनिक युग एक अत्यधिक मानवकेन्द्रवाद से चिह्नित है" (116): मानव प्राणी विश्व के प्रति अब अपनी सही जगह को नहीं समझ पाते हैं तथा अपने आप पर एर आत्मकेन्द्रित स्थिति का वरण कर लेते हैं जो केवल स्वतः पर तथा स्वतः की सत्ता पर ध्यान केन्द्रित रखा करती है। इसका परिणाम "इस्तेमाल करो एवं फेंको" तर्क है जो हर प्रकार के अपव्यय को, पर्यावरणीय  एवं मानवीय दोनों को, उचित ठहराता है, जो अन्यों को एवं प्रकृति दोनों को साधारण वस्तु की तरह मानता तथा वर्चस्व के असंख्य रूपों की ओर ले जाता है। यही है वह मानसिकता जो बच्चों के  शोषण, वयोवृद्धों के परित्याग, अन्यों को दासता के लिये मजबूर करने, मानव तस्करी, माता-पिता की चाहत के अनुरूप न होने पर अजन्में शिशुओं को फेंक देने, "रक्त के हीरे" एवं विलुप्त होने के ख़तरे में पड़े पशुओं की खालों को बेचने तथा खुद को विनियमित करने के लिये बाज़ार की क्षमता के अतिरेक मूल्यांकन की ओर अग्रसर करती है। यह मानसिकता कई माफ़ियाओं की भी है जो नशीले पदार्थों एवं जननांगों की तस्करी में लिप्त हैं (123)।

      इस आलोक में, विश्व आज के विश्व की दो निर्णायक समस्याओं को सम्बोधित करता है। इसमें सर्वोपरि है कामः "अखण्ड पारिस्थितिकी से मानव प्राणी को अलग नहीं किया जा सकता और इसमें श्रम के महत्व को समाहित करना आवश्यक है" (124), क्योंकि "तुरन्त अधिक से अधिक लाभ हासिल करने के लिये, लोगों में निवेश करना बन्द कर देना, समाज के लिये बुरा व्यवसाय है" (128)।

      दूसरी समस्या वैज्ञानिक प्रगति की सीमितताओं से सम्बन्धित है जिसमें जीएमओ अर्थात् आनुवांशिक रूप से रूपांतरित जीव का स्पष्ट संदर्भ है (132-136)। यह "एक जटिल पर्यावरणीय मुद्दा है" (135)। यद्यपि, "कुछेक क्षेत्रों में इनके उपयोग ने आर्थिक विकास को प्रोत्साहित कर समस्याओं का हल ढूँढ़ा है, कुछ ऐसी कठिनाइयाँ जिन्हें कम महत्व का नहीं माना जा सकता" (134), उदारणार्थ, "उर्वरक भूमि का केवल कुछेक मालिकों के कब्ज़े में होना" (134)। सन्त पापा फ्राँसिस, विशेष रूप से, छोटे उत्पादकों एवं ग्रामीण मज़दूरों, जैव विविधता तथा पारिस्थितिकी प्रणालियों के नेटवर्क के बारे में चिन्तित हैं। इसीलिये, "स्वतंत्र, अंतःविषय अनुसंधान की तर्ज पर" (135) "एक व्यापक, जिम्मेदार वैज्ञानिक और सामाजिक बहस आवश्यक है, ऐसी बहस जो सभी उपलब्ध सूचना पर विचार करने तथा उन्हें उनके नाम से बुलाने में सक्षम हो"। 

 

अध्याय चार – समग्र पर्यावरण

     विश्व पत्र के प्रस्तावों का केन्द्र, न्याय के नये प्रतिमान रूप में अखण्ड पर्यावरण है, ऐसी पारिस्थितिकी "जो इस विश्व में मानव प्राणियों के सदृश हमारी जगह तथा हमारे आस-पास के साथ हमारे सम्बन्ध का सम्मान करती हो" (15)। वास्तव में, "प्रकृति को हमसे कुछ अलग अथवा मात्र एक जगह जहाँ हम निवास करते हैं नहीं माना जा सकता" (139)। यह सभी क्षेत्रों पर करा उतरता हैः अर्थव्यवस्था में तथा राजनीति में भी, विभिन्न संस्कृतियों में, विशेष रूप से, जो ख़तरे में पड़ी हैं तथा हमारे दैनिक जीवन के प्रत्येक क्षण में।

    समग्र पर्यावरण का परिप्रेक्ष्य संस्थानों की पारिस्थितिकी को भी शामिल करता हैः "यदि सब कुछ सम्बन्धित है, तो एक समाज के संस्थानों का स्वास्थ्य पर्यावरण और मानव जीवन की गुणवत्ता को प्रभावित करता है। 'एकजुटता और नागरिक मैत्री का हर उल्लंघन पर्यावरण को क्षति  पहुँचाता है" (142।

    अनेक ठोस उदाहरणों सहित, सन्त पापा फ्राँसिस, अपने इस विचार की पुष्टि करते हैं कि "पर्यावरणीय समस्याओं का विश्लेषण मानव, परिवार, श्रम-सम्बन्धित एवं शहरी सन्दर्भों, तथा मनुष्य के व्यक्तिगत सम्बन्धों के विशलेषण से अलग नहीं हो सकता" (141)। "हम दो अलग-अलग संकटों का सामना नहीं कर रहे हैं, एक पर्यावरणीय और दूसरा सामाजिक, अपितु एक जटिल संकट का सामना कर रहे हैं जो सामाजिक होने के साथ-साथ पर्यावरणीय भी है" (139)।

    "मानवीय पारिस्थितिकी जनकल्याण के विचार से अविच्छेद्य है" (156), किन्तु इसे ठोस रूप में समझना अनिवार्य हैः आज के सन्दर्भ में, जिसमें, "अन्याय प्रचुर है तथा बढ़ती संख्या में लोग बुनियादी मानवाधिकारों से वंचित हैं तथा उपभोजित माने जाते हैं" (158), जन कल्याण के लिये स्वतः को प्रतिबद्ध रखने का अर्थ है "हमारे निर्धनतम भाइयों एवं बहनों के विकल्प को पसन्द करने पर आधारित एकातमता का चयन करना है" (158)। यह भावी पीढ़ियों के लिये एक धारणीय विश्व को छोड़ने का सबसे उत्तम तरीका भी है, केवल इन तथ्यों की उदघोषणा के द्वारा नहीं, अपितु, आज के निर्धनों की देखभाल हेतु प्रतिबद्ध रहकर। बेनेडिक्ट  16 वें ने पहले ही स्पष्ट रूप से इस तथ्य पर बल दिया हैः "अन्तर-पीढ़ीगत एकजुटता की न्यायसंगत भावना के अलावा एक नवीकृत अंतरंग- नैतिक भावना की भी नितान्त आवश्यकता है" (162)।

     समग्र पारिस्थितिकी दैनिक जीवन को भी अपने आप में सम्मिलित करती है। विश्व, शहरी पर्यावरण पर विशेष ध्यान केन्द्रित करता है। मानव प्राणी में अनुकूल बनाने की महान क्षमता है तथा अपने आस-पड़ोस के प्रतिकूल प्रभावों समाप्त करने और साथ ही अव्यवस्था एवं अनिश्चितता के बीच उत्पादकता में जीना सीखकर पर्यावरणीय सीमाओं का प्रत्युत्तर देनेवाले व्यक्तियों एवं समूहों की रचनात्मकता और उदारता सराहनीय है" (148)। फिर भी, प्रामाणिक विकास को हासिल करने के क्रम में मानव जीवन की गुणवत्ता में अभिन्न सुधार - सार्वजनिक स्थान, आवास, परिवहन, आदि – की अभी भी की ज़रूरत है (150-154)। इसके अलावा, "ईश्वर के वरदान स्वरूप हमारे शरीरों की स्वीकृति सम्पूर्ण विश्व को पिता के वरदान एवं हमारे सामान्य आवास रूप में स्वीकार करने एवं उसका स्वागत करने के लिये महत्वपूर्ण है, जबकि यह मान लेना कि हमारे शरीरों पर हमारा पूर्ण प्रभुत्व है, प्रायः, इस सोच में बदल जाता है कि सृष्टि पर हमारा पूर्ण स्वामीत्व है" (155)।       

अध्याय पाँच – अभिमुखता एवं कार्य के लिये कुछ दिशाएँ

       इस अध्याय में हम क्या कर सकते हैं तथा हमें क्या करना चाहिये पर चर्चा है। विशलेषण पर्याप्त नहीं हैं: प्रस्तावों की ज़रूरत है,  "ऐसी वार्ताओं एवं ऐसे कार्यों की जिनमें हममें से प्रत्येक और साथ ही अन्तरराष्ट्रीय राजनीति शामिल रहे" (15), तथा "आत्म विनाश उस चक्रव्यूह से निकलने में हमारी मदद जिसमें हम डूब रहे हैं" (163)। सन्त पापा फ्राँसिस के लिये यह अनिवार्य है कि व्यावहारिक प्रस्ताव केवल एक वैचारिक, सतही अथवा न्यूनीकृत तरीके विकसित न हों। इसके लिये, सम्वाद आवश्यक है, यह वह शब्दावली है जो स अध्याय के हर विभाग में मौजूद है।  "पर्यावरण से जुड़े कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिनपर एक व्यापक सहमति प्राप्त करना आसान नहीं मुद्दे हैं। [...] कलीसिया वैज्ञानिक सवालों का उत्तर देने या राजनीति की जगह लेने का दावा नहीं करती है। लेकिन मैं एक ईमानदार एवं खुले विचार –विमर्श प्रोत्साहित करना चाहता हूँ ताकि विशिष्ट हितों अथवा विचारधाराओं का सामान्य जन हित पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़े" (188)।

       इस आधार पर, सन्त पापा फ्राँसिस, अंतरराष्ट्रीय गतिशीलता का, गंभीर रूप से, न्याय करने से नहीं डरते हैं:  "पर्यावरण पर हाल के विश्व शिखर उम्मीदों पर खरा उतरने में नाकाम रहे हैं,  क्योंकि इनमें राजनैतिक संकल्प की कमी रही और इस कारण वे पर्यावरण पर सही मायने में सार्थक और प्रभावी वैश्विक समझौते तक पहुँचने में असमर्थ रहे" (166)। और वे प्रश्न करते हैं: "क्यों आज उस सत्ता को बरकरार रखने की कोशिश की जा रही है जो जब अनिवार्य एवं अत्यावश्यक था हस्तक्षेप करने में असमर्थ सिद्ध हुआ?" (57)। इसके बजाय, ज़रूरत है, जैसा कि सन्त पापा फ्राँसिस कई बार दुहराया है "पाचेम इन तेर्रिस " से शुरु करना जिसमें वैश्विक शासन के रूपों एवं प्रभावशाली उपकरणों के सुझाव हैं (175): इस तथ्य को दृष्टिगत रखकर कि "केवल लागत और लाभ का वित्तीय गणना के आधार पर पर्यावरण संरक्षण को सुनिश्चित्त नहीं किया जा सकता कथित 'ग्लोबल कॉमन्स' की पूरी श्रृंखला के लिए शासन प्रणाली पर एक समझौते की आवश्यकता है" (174)। पर्यावरण उन वस्तुओं में से एक है जिसकी रक्षा या विकास बाज़ार की ताकतों द्वारा पर्याप्त रूप से सुनिश्चित्त् नहीं किया जा सकता" (190, कलीसिया की सामाजिक शिक्षा के संग्रह से)।  

    पांचवें अध्याय में, सन्त पापा फ्रांसिस ईमानदार और पारदर्शी निर्णय लेने की प्रक्रियाओं के विकास पर जोर देते हैं, ताकि उन नीतियों और व्यापार पहलों की पहचान की जा सके जो "वास्तविक अखण्ड विकास" को ला सकें। विशेष रूप से, एक नई योजनाओं के पर्यावरणीय प्रभाव पर अध्ययन "पारदर्शी राजनीतिक प्रक्रियाओं तथा विचारों को मुक्त आदान प्रदान की मांग करता है, जबकि भ्रष्टाचार जो लाभ के लिये पर्यावरण के असली परिणामों को छिपाता है वह प्रायः अस्पष्ट संधियों का निर्माण करता जो सूचना प्रदान करने के दायित्वों से निकल भागती तथा विचार-विमर्श का मौका नहीं देती हैं" (182)।   

    सबसे महत्वपूर्ण अपील राजनीतिक पदों पर बैठे लोगों को संबोधित, उनका आह्वान किया गया है कि वे आज बहु-प्रचलित "'दक्षता' और 'तुरंत्ता' की एक मानसिकता" से बचें (181): "यदि वे साहसी हैं तो वे ईश प्रदत्त् गरिमा को बरकरार रखेंगे तथा नि: स्वार्थ जिम्मेदारी की गवाही देंगे।"

 

अध्याय छह - पर्यावरण शिक्षा और आध्यात्मिकता

     अंतिम अध्याय प्रत्येक को पारिस्थितिक रूपांतरण के केन्द्र में आमंत्रित किया है। सांस्कृतिक संकट की जड़ें गहरी हैं, तथा आदतों और व्यवहार की पुनर्निर्माण आसान नहीं है। शिक्षा और प्रशिक्षण प्रमुख चुनौतियां हैं: "प्रेरणा और शिक्षा की प्रक्रिया के बिना परिवर्तन असंभव है" (15)। शिक्षा के सभी क्षेत्र इससे संलिप्त हैं, मुख्य रूप से "स्कूलों में, परिवारों में, मीडिया में, धर्मशिक्षा एवं अन्य क्षेत्रों में" (213)।  

     शुरुआती बिंदु, "एक नई जीवन शैली के प्रति अग्रसर होना चाहिये (203-208), जो राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक शक्ति रखनेवालों पर स्वस्थ प्रभाव डालने की संभावना के रास्ते खोल सके"  (206)। ऐसा तब होता है जब उपभोक्ता के विकल्प कारोबारों के संचालन के तौर तरीकों बदलने में समर्थ बनते हैं तथा उन्हें पर्यावरण पर उनके प्रभावों तथा उत्पादन के पैटर्न पर पर विचार करने के लिये मजबूर कर देते हैं" (206)।    

    पर्यावरण शिक्षा के महत्व को अतिरंजित नहीं किया जा सकता है। यह गतिविधियों एवं दैनिक आदतों को प्रभावित करने, पानी की खपत को कम करने, अपव्यय को अलग करने तथा "अनावश्यक रोशनी को बंद करने में भी सक्षम है" (211)। "एक अभिन्न पारिस्थितिकी साधारण दैनिक कृत्यों से भी निर्मित होती है जो हिंसा, शोषण और स्वार्थ के तर्क के भंग कर देती है" (230)। विश्वास जनित मननशील दृष्टिकोण के साथ शुरू करने से सब कुछ आसान हो जाएगा: "विश्वासी होने के नाते, हम विश्व को बाहर से नहीं अपितु भीतर से देखते तथा उस बन्धन के प्रति जागरुक रहते हैं जिसके द्वारा पिता ने हमें अन्य सभी प्राणियों से जोड़ा है। अपनी ईश प्रदत्त् वैयक्तिक क्षमताओं का विकास कर, पर्यावरणीय रूपान्तरण हमें अधिक रचनात्मकता एवं उत्सुकता हेतु प्रेरित कर सकता है" (220)।  

    जैसा कि एवान्जेलियुम गाओदी में प्रस्ताव किया गया हैः  "संयम, जब स्वतंत्र और सजग रूप जिया जाता है तब वह मुक्त करता है है," (223), उसी तरह जिस तरह "खुशी का अर्थ कुछ ज़रूरतों को सीमित करना जानना जो हमें कम करती हैं, तथा जीवन द्वारा प्रदत्त् अनेक सम्भावनाओं के प्रति उदार रहना" (223)। इस प्रकार, "इस विश्वास को पुन- प्राप्त करना चाहिये कि हमें एक दूसरे की ज़रूरत है, कि हम पर एक दूसरे की तथा विश्व की साझा ज़िम्मेदारी है तथा यह कि अच्छे और सभ्य होना हितकर है" (229)।   

   सभी सन्त हमारी इस तीर्थयात्रा में हमारे साथ चलें। सन्त फ्राँसिस ने कई बार इसका उल्लेख किया है, जिसका सर्वोत्कृष्ट उदाहरण "दुर्बल की देखभाल तथा आनन्दपूर्वक एवं सच्चे ढंग से अखण्ड पारिस्थितिकी का वरण है" (10)। वे, प्रकृति, समाज के निर्धनों के लिये न्याय, समाज के प्रति समर्पण तथा आन्तरिक शांति के बीच बन्धन के अपृथक आदर्श हैं" (10)। विश्व में, सन्त बेनेडिक्ट, लिसुक्स की सन्त तेरेज़ा तथा धन्य चार्ल्स दे फुको की भी चर्चा है। 

   लाओदातो सी अर्थात् प्रभु की प्रशंसा हो से प्रेरित होकर, ईश्वर के साथ सम्बन्ध के प्रकाश में अपने जीवन को अभिमुख करने के लिये कलीसिया द्वारा सदैव प्रस्तावित अन्तःकरण की नियमित जाँच में एक नया आयाम शामिल होना चाहियेः व्यक्ति को गम्भीर रूप से इस तथ्य पर चिन्तन करना होगा कि उसने किस प्रकार, केवल ईश्वर के साथ सहभागिता में ही नहीं, अपितु अन्यों के साथ एवं स्वयं के साथ और साथ ही सभी प्राणियों एवं प्रकृति के साथ भी सहभागिता में जीवन यापन किया अथवा नहीं।           








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