2015-06-04 11:58:00

प्रेरक मोतीः सन्त फ्राँसिस काराचच्योलो (1563-1608) (04 जून)


वाटिकन सिटी, 04 जून सन् 2015:

सन्त फ्राँसिस काराच्च्योलो का जन्म सन् 1563 ई. में इटली के अबरुत्सो प्रान्त के विला सान्ता मरिया में हुआ था। बपतिस्मा के समय उन्हें आसकानियो नाम दिया गया था। वे नेपल्स राज्य के काराचच्योलो परिवार के थे। बाल्यकाल से ही फ्राँसिस काराचच्योलो को मृदु भाषी, विनम्र एवं नेक इन्सान के तौर पर जाना जाता था। निर्धनों के प्रति दया के लिये वे विख्यात थे। 22 वर्ष की आयु में उन्होंने ईश्वर एवं पड़ोसी की सेवा हेतु समर्पित जीवन का चयन किया तथा सन् 1585 ई. में, ईशशास्त्र के अध्ययन हेतु, नेपल्स शहर चले गये। सन् 1587 ई. में वे पुरोहित अभिषिक्त कर दिये गये थे।

पुरोहिताभिषेक के बाद वे, प्राणदण्ड की सज़ा भोगनेवाले क़ैदियों की प्रेरिताई में संलग्न "द वाईट रोब्ज़ ऑफ जस्टिस" नामक धर्मसमाज के सदस्य बन गये। सन् 1588 ई. में फ्राँसिस काराचच्योलो को सन्त जॉन अगस्टीन अडोर्नो का एक पत्र मिला जिसमें ईश्वर की आराधना एवं मनन-चिन्तन में संलग्न होने के इच्छुक युवाओं के लिये एक नये धर्मसमाज की स्थापना का प्रस्ताव था। फ्राँसिस काराचच्योलो ने इस प्रस्ताव को ईश इच्छा मान इसे सर आँखों पर रखा तथा अपना शेष जीवन इसी धर्मसमाज के लिये व्यतीत कर दिया। सन्त जॉन अगस्टीन अडोर्नो के साथ स्थापित, तथा सन्त पापा सिक्सटुस पंचम द्वारा अनुमोदित, इस धर्मसमाज का नाम है "माईनर क्लेरिक्स रेग्यूलर"। धर्मसमाज का पहला आश्रम नेपल्स शहर में है। मरियम को समर्पित पियेत्रासान्ता नाम से स्थापित इसके प्रथम धर्मसमाज प्रमुख फ्राँसिस काराचच्योलो नियुक्त किये गये थे। इटली तथा स्पेन में धर्मसमाज के कई आश्रम एवं गिरजाघर हैं।

04 जून सन् 1608 ई. को, नेपल्स शहर में ही, एक लम्बी बीमारी के बाद, फ्राँसिस काराचच्योलो का निधन हो गया था। सन्त पापा क्लेमेन्त 15 वें ने, सन् 1769 ई. में, उन्हें धन्य घोषित किया था तथा 24 मई, 1807 ई. को वे, सन्त पापा पियुस सातवें द्वारा, सन्त घोषित किये गये थे। फ्राँसिस काराचच्योलो का पर्व 04 जून को मनाया जाता है।

चिन्तनः "पुत्र! यदि तुम मेरे शब्दों पर ध्यान दोगे, मेरी आज्ञाओं का पालन करोगे, प्रज्ञा की बातें कान लगा कर सुनोगे और सत्य में मन लगाओगेयदि तुम विवेक की शरण लोगे और सद्बुद्धि के लिए प्रार्थना करोगे; यदि तुम उसे चाँदी की तरह ढूँढ़ते रहोगे और खजाना खोजने वाले की तरह उसके लिए खुदाई करोगे, तो तुम प्रभु-भक्ति का मर्म समझोगे और तुम्हें ईश्वर का ज्ञान प्राप्त होगा; क्योंकि प्रभु ही प्रज्ञा प्रदान करता और ज्ञान तथा विवेक की शिक्षा देता है। वह धर्मियों को सफलता दिलाता और ढाल की तरह सदाचारियों की रक्षा करता है। ईश्वर एवं पड़ोसी की निःस्वार्थ सेवा ही यथार्थ आनन्द एवं सन्तोष का स्रोत है" (सूक्ति ग्रन्थ 2: 1-7)। 








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