2015-01-21 11:36:00

प्रेरक मोतीः सन्त एग्नेस (291 -304 ई.)


वाटिकन सिटी, 21 जनवरी सन् 2015

सन्त एग्नेस रोम की कुँवारी एवं शहीद सन्त हैं जिन्होंने 14 वर्ष की कोमल आयु में ही ख्रीस्तीय विश्वास के ख़ातिर शहादत प्राप्त कर ली थी। एग्नेस ने प्रतिज्ञा की थी कि वे सदैव ईश्वर के प्रति समर्पित रहेंगी तथा स्वतः को निर्मल बनाये रखेंगी। प्रभु के प्रति उनका प्रेम महान था तथा पाप से वे घृणा करती थीं। चूँकि एग्नेस एक अत्यन्त सुन्दर युवती थी अनेक युवा उनके प्रति आकर्षित हुए थे तथा उनसे विवाह रचाना चाहते थे किन्तु एग्नेस हमेशा कहा करती, "येसु ख्रीस्त मेरे एकमात्र वर हैं।"

उस समय के राज्यपाल का बेटा प्रोकॉप एग्नेस के इनकार से अत्यधिक क्रुद्ध हुआ। उसने बहुमूल्य उपहारों द्वारा एग्नेस का दिल जीतना चाहा किन्तु वे कहती रहीं कि "उसने ब्रहमाण्ड के प्रभु के प्रति स्वतः को समर्पित कर दिया है जो सूर्य एवं तारों से अधिक वैभवशाली और प्रतापमय है।" एग्नेस के इस उत्तर को सुनकर प्रोकॉप आग बबूला हो उठा तथा उनपर ख्रीस्तीय होने का आरोप लगाकर उसने एग्नेस को राज्यपाल के समक्ष प्रस्तुत कर दिया।

राज्यपाल ने एग्नेस को कई सांसारिक वस्तुओं एवं उपहारों का लालच दिया तथा उनसे ख्रीस्तीय धर्म के परित्याग का आग्रह किया किन्तु एग्नेस अपने विश्वास पर अटल रहीं। राज्यपाल ने उन्हें बेड़ियों से बँधवा दिया किन्तु एग्नेस के मुखमण्डल पर दर्द के कोई निशान नहीं उभरे। तब राज्यपाल ने उन्हें पाप और प्रलोभन के गर्त में डालना चाहा किन्तु एक स्वर्गदूत ने यहाँ एग्नेस की रक्षा की। हारकर राज्यपाल ने, सन् 304 ई. में, एग्नेस को प्राणडण्ड देकर मार डाला। इतनी कमउम्र एवं सुन्दर युवती को मरते देख ग़ैरविश्वासी भी रोने लगे किन्तु एग्नेस एक नवनवेली वधु की तरह खुश थी। उन्होंने प्रार्थना पढ़ी तथा अपना सिर झुका दिया, तलवार के वार से एग्नेस को मार डाला गया। सन्त एग्नेस शुद्धता, बलात्कार की शिकार लड़कियों, कुँवारियों तथा वाग्दत्त युवाओं की संरक्षिका हैं। सन्त एग्नेस का पर्व 21 जनवरी को मनाया जाता है।

चिन्तनः "प्रभु मुझे संकट में से निकाल लाया, उसने मुझे छुड़ाया, क्योंकि वह मुझे प्यार करता है।  प्रभु मेरी धार्मिकता के अनुसार मेरे साथ व्यवहार करता है, मेरे हाथों की निर्दोषता के अनुरूप;  क्योंकि मैं प्रभु के मार्ग पर चलता रहा। मैंने अपने ईश्वर के साथ विश्वासघात नहीं किया। मैंने उसके सब नियमों को अपने सामने रखा, मैंने उसकी आज्ञाओं का उल्लंघन नहीं किया" (स्तोत्र ग्रन्थ 18,20-23)। 

 








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