15 दिसम्बर को काथलिक कलीसिया सन्त मेरी दी
रोज़ा का स्मृति दिवस मनाती है। सन् 1848 ई. में, द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, इटली
के ब्रेश्या नगर में, लूटमार मचाने कॉन्वेन्ट पहुँचे सैनिकों का सामना करनेवाली साहसी
धर्मबहन पाओला दी रोज़ा का नाम ही बाद में मेरी दी रोज़ा पड़ा। इस साहसी एवं धर्मी महिला
के विषय में लिखे वृत्तान्तों के अनुसार धर्मसंघीय एवं धर्मसमाजों के मठों एवं आश्रमों
में निवास करनेवाले मठवासियों को डराना धमकाना उस युग के सैनिकों की दिनचर्या थी।
एक
बार बीमारों की देखरेख को समर्पित उदारता की दासियाँ नामक धर्मसंघ के कॉन्वेन्ट पर सैनिकों
ने हमला कर दिया तथा तोड़ फोड़ मचाने लगे। वे प्रवेश द्वार को ज़ोर ज़ोर से खटखटा रहे
थे किन्तु दरवाज़ा खोलने की किसी भी धर्मबहन की हिम्मत नहीं पड़ी। इसपर पाओला दी रोज़ा
आगे बढ़ी। उन्होंने अपने साथ छः धर्मबहनों को लिया तथा एक विशाल क्रूस की प्रतिमा लिये
उनके आगे-आगे चलने लगी। दरवाज़ा खोलने पर सैनिक भौंचक्चे रह गये। सैनिकों के सामने कभी
किसी का साहस नहीं हुआ था कि उनका रास्ता रोक दे किन्तु पाओला दी रोज़ा सैनिको के आगे
क्रूस की प्रतिमा लिये डटी रही। उन्हें देख सैनिकों स्तब्ध रह गये, लूटमार के वादे भूल
गये तथा पीछे हट गये। पाओला दी रोज़ा के विश्वास एवं साहस को देख वे पानी-पानी हो गये
तथा वहाँ से चले गये।
पाओला दी रोज़ा अर्थात् मेरी दी रोज़ा का जन्म, इटली
में, सन् 1813 ई. में हुआ था। 17 वर्ष की आयु में ही उन्होंने किशोरियों एवं युवतियों
के उत्थान हेतु कई प्रशिक्षण योजनाएँ आरम्भ कर दी थी। अपने नगर की पल्ली की किशोरियों
एवं महिलाओं को एकत्र कर वे सिलाई, बुनाई, बीमारों की भेंट आदि के अतिरिक्त, आध्यात्मिक
साधनाओं एवं प्रार्थना घड़ियों का आयोजन किया करती थी।
24 वर्ष की आयु में,
उनके द्वारा सम्पादित प्रेरितिक कार्यों से प्रसन्न, नगर के पल्ली पुरोहित ने पाओला दी
रोज़ा को निर्धन लड़कियों के लिये संचालित प्रशिक्षण केन्द्र की अध्यक्षा नियुक्त कर
दिया था। इसके दो वर्ष बाद ही पाओला ने उन लड़कियों के प्रति चिन्ता व्यक्त की जिन्हें
यह नहीं पता था कि दिनभर के कामकाज के बाद जायें कहाँ। रात के ख़तरों का डर अलग लगा रहता
था। इन लड़कियों के लिये पाओला ने एक शरणस्थल के निर्माण का प्रस्ताव रखा जो ठुकरा दिया
गया।
पाओला कहा करती थी कि उन्हें तब तक नींद नहीं आती थी जब तक उनका अन्तकरण
साफ़ न हो। उन्होंने प्रशिक्षण केन्द्र एवं श्रम शिविर का परित्याग कर दिया तथा लड़कियों
के लिये छात्रवास के निर्माण में लग गई।
27 वर्ष की उम्र में पाओला दी रोज़ा
को "उदारता की दासियाँ" नामक धर्मसंघ की अध्यक्षा नियुक्त कर दिया गया। इस धर्मसंघ का
मिशन बीमारों की चिकित्सा एवं देखरेख करना था। अस्पतालों में धर्मबहनों का तिरस्कार किया
जाता था तथा उन्हें घुसपैठिया कहा जाता था किन्तु पाओला के मार्गदर्शन में धर्मबहनें
अपने मिशन पर आगे बढ़ती रहीं। इसी बीच पाओला को गाब्रिएला बोर्नाती एवं मान्यवर पिनसोनी
जैसे मित्र मिल गये जिन्होंने उनके कार्यों को भरपूर समर्थन दिया।
सन् 1848 ई.
में द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ गया तथा अस्पतालों में घायल सैनिकों का आना आरम्भ हो गया
जिनकी पाओला दी रोज़ा एवं उनके धर्मसंघ की सदस्याओं ने खूब सेवा की। धर्मबहनों ने मरणासन्न
सैनिकों को शारीरिक चिकित्सा ही नहीं अपितु आध्यात्मिक विश्राम भी प्रदान किया। सन् 1855
ई. में पाओला दी रोज़ा अर्थात् मेरी दी रोज़ा का निधन हो गया। मेरी दी रोज़ा ने जीवन
के हर अवरोध को सेवा करने का नवीन अवसर समझा। सन्त मेरी दी रोज़ा का स्मृति दिवस 15 दिसम्बर
को मनाया जाता है।
चिन्तनः "प्रज्ञा से घर बनता और समझदारी से
दृढ़ होता है। ज्ञान से उसके कमरे सब प्रकार की बहुमूल्य और सुन्दर वस्तुओं से भरते हैं।
प्रज्ञासम्पन्न व्यक्ति शक्तिशाली है और ज्ञान से उसका सामर्थ्य बढ़ता है। युद्ध में पथप्रदर्शन
की आवश्यकता होती है, विजय परामर्शदाताओं की भारी संख्या पर निर्भर है" (सूक्ति ग्रन्थ
24:3-6)।