क्रूस के सन्त पौल का जन्म, इटली के जेनोवा
नगर के निकटवर्ती, ओवादा में, 03 जनवरी, सन् 1694 ई. को हुआ था। क्रूस के सन्त पौल एक
इताली रहस्यवादी थे जिन्होंने प्रभु येसु ख्रीस्त के दुखभोग को समर्पित पुरोहित धर्मसमाज
की स्थापना की थी।
पौल का बाल्यकाल एवं युवावस्था दोनों ही पवित्रता में
विकसित हुए थे। उनके बारे में लिखा गया है कि ऊपर की ओर से उन्हें एक धर्मसमाज की स्थापना
हेतु प्रेरणा मिली थी। प्रभु में ध्यान-मग्न होकर उन्होंने उस परिधान के दर्शन किये थे
जो वे और उनके साथी धारण करनेवाले थे। अपने आध्यात्मिक गुरु, एलेक्ज़ेनड्रिया के धर्माध्यक्ष
गास्तीनारा, से परामर्श के बाद वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि ईश्वर की इच्छा थी कि वे
प्रभु येसु के दुखभोग को समर्पित एक धर्मसमाज की स्थापना करें।
22 नवम्बर,
सन् 1720 ई. को, धर्माध्यक्ष गास्तीनारा ने पौल को धर्मसमाजी परिधान अर्पित किया, जिसे
उन्होंने पहले ही अपने दर्शन में देखा था। यह वही परिधान है जिसे इस समय विश्व के पैशनिस्ट
अर्थात् दुखभोग को समर्पित धर्मसमाजी धारण करते हैं। सन् 1720 ई. से ही पौल ने धर्मसमाज
के नियम बनाये; सन् 1721 ई. में धर्मसमाज को परमधर्मपीठ का अनुमोदन दिलवाने के लिये वे
रोम गये। क्रमशः, सन् 1741 तथा सन् 1746 ई. में, सन्त पापा बेनेडिक्ट 15 वें ने धर्मसमाज
को अनुमोदन दे दिया। पौल ने अपने प्रथम मठ की स्थापना ओबीतेल्लो में की। कुछ समय बाद,
उन्होंने रोम में सन्त पौल एवं सन्त जॉन को समर्पित गिरजाघरों के निकट अपने समुदायों
को स्थापित किया।
50 वर्ष तक क्रूस के सन्त पौल इटली में मिशनरी सेवाएं अर्पित
करते रहे। हालांकि, पौल बहुत से कामों में निपुण थे उन्होंने स्वतः को ईश्वर का दीन सेवक
माना तथा विनम्रता पूर्वक धर्मसमाज की प्रेरिताई में लगे रहे। वे अपने आप को महापापी
एवं बेकार का सेवक मानते थे। अपने लिये उन्होंने कठोर जीवन यापन के नियम लागू कर लिये
थे। 18 अक्टूबर, सन् 1775 ई. को, रोम में 81 वर्षीय कर्मठ मिशनरी, क्रूस के पौल का निधन
हो गया था। सन् 1867 ई. में सन्त पापा पियुस नवम ने उन्हें सन्त घोषित कर वेदी का सम्मान
प्रदान किया था। क्रूस के सन्त पौल का पर्व 20 अक्टूबर को मनाया जाता है।
चिन्तनः
"धन्य हैं वे जो अपने को दीन-हीन समझते हैं क्योंकि स्वर्ग राज्य उन्हीं का है" (मत्ती
5: 3)।