रोमः संघर्षों के कठिन समय में सन्त अगस्टीन की शिक्षाएँ मार्गदर्शक, कार्डिनल पारोलीन
रोम, 30 अगस्त सन् 2014 (सेदोक): वाटिकन राज्य के सचिव कार्डिनल पियेत्रो पारोलीन ने
कहा है कि अनवरत जारी संघर्षों एवं बगावतों के कठिन समय में सन्त अगस्टीन की शिक्षाएँ
मार्गदर्शक सिद्ध हो सकती हैं।
रोम के फ्रास्काती में, 28 अगस्त से 31 अगस्त
तक, सम्पूर्ण विश्व के काथलिक सांसदों एवं विधायकों का पाँचवा वार्षिक सम्मेलन जारी है।
विश्व के काथलिक सांसदों एवं विधायकों के वार्षिक सम्मेलन की स्थापना, सन् 2010 में,
वियेना के कार्डिनल क्रिस्टोफ शोर्नबोर्न तथा ब्रिटेन हाऊस ऑफ लॉर्ड्स के सदस्य लॉर्ड
डेविड आल्टन द्वारा की गई थी।
शुक्रवार, 29 अगस्त को वाटिकन राज्य सचिव कार्डिनल
पियेत्रो पारोलीन ने विश्व के सांसदों एवं विधायकों को सम्बोधित कर सन्त पापा फ्राँसिस
की ओर से हार्दिक मंगलकामना अर्पित की।
अपने सम्बोधन में कार्डिनल पारोलीन ने
सांसदों एवं विधायकों से अनुरोध किया कि वे काथलिक शिक्षा के आधार पर अपने-अपने देशों
के सार्वजनिक एवं राजनैतिक जीवन तथा स्थानीय समुदायों में मानवीय मूल्यों का प्रसार करें
ताकि सर्वत्र न्याय, सहअस्तित्व एवं शांति की स्थापना हो सके।
उन्होंने इस तथ्य
की ओर ध्यान आकर्षित कराया कि 28 अगस्त को कलीसिया ने सन्त अगस्टीन का पर्व मनाया है
जिन्होंने दो नगरों की छवि हमारे समक्ष प्रस्तुत की हैः "धरती पर नगर" एवं "ईश्वर का
नगर"। इसमें सन्त अगस्टीन कहते हैं कि सांसारिक वस्तुओं के प्रति प्यार एवं ईश्वर के
प्रति प्रेम में सदैव विरोध बना रहता है इसलिये कि "धरती पर नगर" की कामना करनेवाले केवल
अपने बारे में सोचते हैं, वे अन्यों के प्रति उदासीन हो जाते हैं, उनकी अवहेलना करते
हैं। इसके विपरीत, "ईश्वर के नगर" के निर्माण में लगे लोग ईश्वर एवं पड़ोसी के प्रति
प्रेम से परिपूर्ण रहते तथा सदैव अन्यों का भला चाहते हैं।
सन्त अगस्टीन की इस
शिक्षा के सन्दर्भ में कार्डिनल पारोलीन ने कहा कि आज के विश्व में जब संघर्ष एवं युद्ध
का बोलबाला है, राजनीतिज्ञ, विधि निर्माता तथा राष्ट्रों के ज़िम्मेदार लोगों को "ईश्वर
के नगर" के निर्माण के लिये तत्पर रहना चाहिये। उन्हें वर्तमान परिस्थितियों को समझना
चाहिये तथा समाज में शांतिपूर्ण जीवन यापन हेतु नवीन निकाय की स्थापना हेतु एकजुट होकर
काम करना चाहिये।
कार्डिनल महोदय ने कहा ख्रीस्तीय विधि निर्माताओं
का कार्य सन्त अगस्टीन की इसी प्रज्ञा के अनुकूल होना चाहिये जो मानव हृदय को केन्द्र
में रखकर ख्रीस्तीय आशा की यथार्थ प्रकृति को इंगित करती है।