नई दिल्लीः शरियत अदालतों को भारत में क़ानूनी मान्यता नहीं, सुप्रीम कोर्ट
नई दिल्ली, 08 जुलाई सन् 2014 (एपी): भारत की सर्वोच्च अदालत, सुप्रीम कोर्ट ने, सोमवार
को दिये एक फैसले में कहा है कि फतवों को कानूनी मान्यता नहीं है। अदालत का कहना था कि
दारूल कज़ा किसी शख्स के खिलाफ़ तब तक कोई फ़तवा जारी न करें जबतक कि उस व्यक्ति ने ख़ुद
इसके बारे में मांग न की हो।
न्यायमूर्ति सी. के. प्रसाद ने यह भी कहा कि भारतीय
कानून संहिता शरीयत अदालतों के फैसलों को मान्यता नहीं देती।
कोर्ट ने निर्दोष
लोगों के खिलाफ शरीयत अदालतों द्वारा फैसला दिए जाने पर आपत्ति जताते हुए कहा कि कोई
भी धर्म निर्दोष को प्रताड़ित करने की इजाजत नहीं देता है। सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति
ने 2005 के इमराना प्रकरण का हवाला देते हुए कहा कि फ़तवा किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों
का हनन है।
इमराना के ससुर ने उनका शील हरण किया था जिसके बाद शरियत अदालत ने
उनके विवाह को रद्द करार दे इमराना से मांग की थी कि वह अपने ससुर के साथ रहे।
सुप्रीम
कोर्ट ने यह फैसला दिल्ली के वकील विश्व लोचन मदन की याचिका पर दिया है। विश्व लोचन ने
अपनी याचिका में दारुल कज़ा और दारुल इफ्ता जैसी संस्थाओं द्वारा समानांतर अदालतें चलाए
जाने को चुनौती दी थी। उन्होंने अपनी याचिका में कहा था, 'ये अदालतें समानांतर अदालत
के तौर पर काम करती हैं और मुसलमानों की धार्मिक व सामाजिक स्वतंत्रता निर्धारित करती
हैं जो ग़ैर कानूनी है।
फरवरी में सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने फैसले को
सुरक्षित रखते हुए कहा था कि यह लोगों की आस्था का मामला है। इसी वजह से अदालत इसमें
दखल नहीं दे सकती। तत्कालीन यूपीए सरकार ने कोर्ट से कहा था कि वह मुस्लिम पसर्नल लॉ
के मामले में तब तक हस्तक्षेप नहीं करेगी, जब तक किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों के हनन
का प्रश्न न उठे।