जेरोम का जन्म, सन् 1481 ई. में, इटली के वेनिस
नगर में हुआ था। वेनिस में वे सेना के कमान्डर थे। सन् 1508 ई. में जेरोम सेना में भर्ती
हुए थे। केम्ब्रे के विरुद्ध उन्होंने कास्टेलनुओवो की रक्षा की थी। वे बन्दी बना लिये
गये थे किन्तु चमत्कारिक ढंग से रिहा हो जाने के बाद जेरोम ने त्रेविज़ो के मरियम तीर्थ
की तीर्थयात्रा कर धन्यवाद ज्ञापित किया था। इसके बाद, जेरोम को कास्टेलनुओवो का पोदेस्ता
यानि न्यायाधीश नियुक्त कर दिया गया था। कुछ ही समय बाद वे पुनः वेनिस लौट आये तथा अपने
भतीजों की पढाई लिखाई पर ध्यान देने लगे। अपने खाली समय में जेरोन ईश शास्त्र का अध्ययन
किया करते तथा निर्धनों के पक्ष में काम किया करते थे।
जेरोम को प्रायः अस्पतालों
की भेंट करते या फिर ग़रीब बस्तियों में घूमते देखा जा सकता था। सन् 1528 ई. में, वेनिस
तथा आसपास के क्षेत्रों में अकाल पड़ा। महामारी का कहर भी वेनिस को झेलना पड़ा। संकट
के उस समय में जेरोम को सर्वत्र देखा जा सकता था। कभी वे अस्पताल में रोगी की देखभाल
करते तो कभी निर्धनों में भोजन वितरित किया करते थे। अनाथों की संख्या अधिक हो चली थी
जिन्हें जेरोम के यहाँ ही आश्रय मिला। सन्त रोज़ को समर्पित गिरजाघर के पास उन्होंने
एक अस्थायी आश्रम बनवाया तथा अनाथों को शरण दी। इसी प्रकार सन्त काजेतान द्वारा स्थापित
अस्पताल का कार्यभार भी जेरोम ने ही ढोया तथा रोगियों की भरपूर सेवा की।
सन्
1531 ई. में जेरोम वेरोना गये और वहाँ के लोगों को उन्होंने अस्पतालों के निर्माण हेतु
प्रोत्साहित किया। वेरोना के नागरिकों द्वारा एकत्र चन्दे से ब्रेशिया, बेरगामो, मिलान
तथा उत्तरी इटली के अनेक नगरों में अस्पतालों का निर्माण सम्भव बन पड़ा।
सन्
1532 ई., में जेरोम ने पुरोहितों के लिये बेरगामो के निकटवर्ती सोमास्का में एक धर्मसमाज
की स्थापना की। इसी धर्मसमाज के पुरोहितों को सोमास्की नाम से जाना जाता है। अनाथों,
निर्धनों एवं रोगियों की सेवा-सुश्रुषा इस धर्मसमाज का मिशन बन गया। घर-घर जाकर धर्मसमाजियों
ने रोगियों एवं निर्धनों की प्राथमिक आवश्यकताओं को पूरा किया। अपने धर्मोत्साह में जेरोम
रोगियों की सेवा करते करते ख़ुद बीमार पड़ गये। बेरगामो में फैली महामारी ने उन्हें जकड़
लिया था। 08 फरवरी सन् 1537 ई. को, सोमास्का में सेवा और प्रेम के महान मिशनरी जेरोम
का निधन हो गया। सन्त जेरोम का पर्व 08 फरवरी को मनाया जाता है।
चिन्तनः
"हे प्रभु मुझे अपनी शान्ति का साधन बना ले। जहाँ घृणा हो, वहाँ मैं प्रीति भर दूँ,जहाँ
आघात हो, वहाँ क्षमा भर दूँ और जहाँ शंका हो, वहाँ विश्वास भर दूँ। मुझे ऐसा वर दे
कि जहाँ निराशा हो, मैं आशा जगा दूँ, जहाँ अंधकार हो, ज्योति जगा दूँ, और जहाँ खिन्नता
हो, हर्ष भर दूँ। हे स्वामी, मुझको ये वर दे कि मैं सांत्वना पाने की आशा न करूँ,
सांत्वना देता रहूँ। समझा जाने की आशा न करूँ, समझता ही रहूँ। प्यार पाने की आशा न रखूँ
प्यार देता ही रहूँ। त्याग के द्वारा ही प्राप्ति होती है। क्षमा के द्वारा ही क्षमा
मिलती है। मृत्यु के द्वारा ही अनन्त जीवन मिलता है। आमेन।" (असीसी के सन्त फ्राँसिस
की प्रार्थना)।