नबी इसायस 8, 23;9,3 1 कुरिन्थियों के नाम 1, 10-12; 17 संत मत्ती 4, 12-23 जस्टिन
तिर्की, ये.स,
विजय की कहानी मित्रो, आज मैं आपलोगों को एक व्यक्ति के बारे
में बताता हूँ जिसका नाम था विजय। विजय एक संगीतज्ञ था । वह म्यूजिक के कई कार्यक्रम
में हिस्सा लिया करता था। धीरे-धीरे विजय ने अपनी पहचान एक गिटार बजाने वाले के रूप में
बना ली थी। युवाओं के बीच तो वह अति लोकप्रिय हो गया था। एक दिन विजय एक प्रार्थना सेमिनार
में गिटार बजाने के लिये आमंत्रित किया गया था। उन्होंने प्रार्थना आरंभ करने के पूर्व
गिटार बजाये और प्रार्थना का कार्यक्रम शुरु हुआ। उस दिन की प्रार्थना सभा में लोग प्रार्थना
के बारे में अपने अनुभवों को बतला रहे थे। कई लोगों ने प्रार्थना के अर्थ को समझाया,
कई अन्यों ने बताया कि वे कैसे प्रार्थना करते हैं। तो कई लोगों ने बताया कि वे ईश्वर
से क्या माँगते हैं। सबों के अनुभव अनोखे और प्रेरणादायक थे। कई लोगों ने बताया कि जब
वे प्रार्थना करते हैं तो अपने कामों की सफलता तथा पारिवारिक जीवन की सफलता के लिये आशिष
माँगते हैं। प्रार्थना सभा में उपस्थित लोग एक-दूसरे की बात ध्यान से सुन रहे थे। एक
ने कहा कि जब वह प्रार्थना करता है तो वह उस कार्य के लिये ईश्वरीय आशिष माँगता है जो
वह खुद करने जा रहा है। जब विजय की बारी आयी तब उन्होंने कहा कि वह अब इसलिये प्रार्थना
नहीं करता है कि ईश्वर उसके कार्यों पर आशिष दे पर इसलिये प्रार्थना करता है कि जो कुछ
ईश्वर उसके जीवन में कर रहा है और करना चाहता है, उसके साथ सहयोग करे। विजय ने बताया
कि एक समय था जब वह गिरजा जाता था तब उसके पास निवेदनों की एक लंबी सूची हुआ करती थी
और वह ईश्वर से बस माँगा करता था। वह ईश्वर से निवेदन करता था कि वे उसकी इच्छाओं, निवेदनों
और मनोकामनाओं को पूरा करें। पर अब वह भगवान से सिर्फ़ इस बात की याचना करता है कि ईश्वर
उसे कृपा दे कि वह ईश्वर के कार्यों में हाथ बँटा सके। ईश्वर की योजना को जान सके और
उसमें अपना योगदान दे। उसने यह भी बताया कि ईश्वर ग़रीबों, असहायों ज़रूरतमंदों और कमजोरों
का साथ देते हैं इसलिये वह भी उनकी सेवा में हाथ बँटाता है। वह हर भले कार्य में अपना
छोटा योगदान देने के लिये तत्पर रहता है। वह उन सभी कार्यों को करता है जिसे करने का
आमंत्रण ईश्वर देते हैं और इसी लिये उसकी प्रार्थना, " हे ईश्वर मुझे बताइये कि आप मुझसे
क्या चाहते हैं? मैं आपका सहयोग करना चाहता हूँ।"
मित्रो, रविवारीय आराधना विधि
चिन्तन कार्यक्रम के अन्तर्गत पूजनविधि पंचाग के वर्ष ‘अ’ तीसरे सप्ताह के लिये प्रस्तावित
पाठों के आधार पर हम मनन –चिन्तन कर रहे हैं। आज प्रभु अपने प्रथम शिष्यों को बुलाते
हैं और उन्हें अपना शिष्य बनाते हैं ताकि वे उसके कार्यों को आगे बढ़ा सकें, सुसमाचार
का प्रचार कर सकें। आइये हम आज के सुसमाचार पाठ को सुनें जिसे संत मत्ती के 3 अध्याय
के 12 से 23 पदों से लिया गया है।
संत मत्ती 3, 12-23 12) ईसा ने जब यह सुना
कि योहन गिरफ्तार हो गया है, तो वे गलीलिया चले गये। 13) वे नाजरेत नगर छोड कर,
जबुलोन और नफ्ताली के प्रान्त में, समुद्र के किनारे बसे हुए कफ़रनाहूम नगर में रहने लगे।
14) इस तरह नबी इसायस का यह कथन पूरा हुआ- 15) जबुलोन प्रान्त! नफ्ताली प्रान्त!
समुद्र के पथ पर, यर्दन के उस पार, ग़ैर-यहूदियों की गलीलिया! अंधकार में रहने 16)
वाले लोगों ने एक महती ज्योति देखी; मृत्यु के अन्धकारमय प्रदेश में रहने वालों पर ज्योति
का उदय हुआ। 17) उस समय से ईसा उपदेश देने और यह कहने लगे, ''पश्चात्ताप करो। स्वर्ग
का राज्य निकट आ गया है।'' 18) गलीलिया के समुद्र के किनारे टहलते हुए ईसा ने दो
भाइयों को देखा-सिमोन, जो पेत्रुस कहलाता है, और उसके भाई अन्द्रेयस को। वे समुद्र में
जाल डाल रहे थे, क्योंकि वे मछुए थे। 19) ईसा ने उन से कहा, ''मेरे पीछे चले आओ।
मैं तुम्हें मनुष्यों के मछुए बनाऊँगा।'' 20) वे तुरंत अपने जाल छोड़ कर उनके पीछे
हो लिए। 21) वहाँ से आगे बढ़ने पर ईसा ने और दो भाइयों को देखा- जेबेदी के पुत्र
याकूब और उसके भाई योहन को। वे अपने पिता जेबेदी के साथ नाव में अपने जाल मरम्मत कर रहे
थे। 22) ईसा ने उन्हें बुलाया। वे तुरंत नाव और अपने पिता को छोड़ कर उनके पीछे हो
लिये। 23) ईसा उनके सभागृहों में शिक्षा देते, राज्य के सुसमाचार का प्रचार करते
और लोगों की हर तरह की बीमारी और निर्बलता दूर करते हुए, सारी गलीलिया में घूमते रहते
थे।
मित्रो, मेरा पूरा विश्वास है कि आपने प्रभु के दिव्य वचनों को पर ग़ौर
किया है और प्रभु के वचन से आपको और आपके परिवार के सदस्यों को आध्यात्मिक लाभ हुए हैं।
मित्रो, येसु हमे बुलाते हैं ताकि हम उनके कार्यों में हाथ बटाएँ। कई बार हम यह सोचने
लगते हैं कि प्रभु का आमंत्रण दूसरों के लिये है। यह उन लोगों के लिये है जो प्रार्थना
करते हैं या धार्मिक कार्यों में रुचि दिखाते हैं। कभी-कभी तो हम यह सोचने लगते हैं कि
ईश्वर का आमंत्रण सिर्फ़ पढ़े-लिखे लोगों के लिये है।
आमंत्रण मित्रो,
अगर हम आज के सुसमाचार पर ग़ौर करें तो एक बात तो स्पष्ट हो ही जाती है कि ईश्वर किसी
को भी किसी भी काम में लगे व्यक्ति को अपनी इच्छा बताते हैं। उन्हें अपने कार्य के लिये
बुलाते हैं। येसु के पहले शिष्यों पर ही अगर हम चिन्तन करें तो हम पाते हैं कि वे मछुवे
थे और जब उन्हें प्रभु का निमंत्रण आया तब वे मच्छली पकड़ने में लगे हुए थे। मित्रो,
येसु ने अपने जीवन के आरंभ से ही दुनिया को इस बात को बताने का प्रयास किया कि ईश्वर
की रुचि, प्राथमिकतायें और निर्णय आम लोगों के सोच-विचार से बिल्कुल भिन्न हैं। येसु
ने अपने सुसमाचार के प्रचार के लिये जो क्षेत्र चुना वह गलीलिया प्राँत था - एक साधारण-सा
गाँव, साधारण लोग, साधारण मछली का पेशा करने वाले। संत मत्ती ने ऐसे लोगों के बारे में
कहते हुए कहा कि वे लोग अंधकार में निवास करते थे। इन्हीं लोगों के बीच येसु ने ईश्वर
के राज्य को लाने का कार्य शुरू किया और उन्हीं में से कछ लोगों को चुना ताकि वे दुनिया
के लिये ज्योति बन सकें।
उत्साह व समर्पण मित्रो, आज के सुसमाचार पर विचार
करने से दूसरी बात जो सामने दिखाई पड़ती है और हमारे मन-दिल को प्रभावित करती है वह है
येसु के पहले शिष्यों का मनोभाव, उत्साह और समर्पण। जैसे ही येसु मछुवों को आमंत्रित
करते हैं वे सब कुछ छोड़ कर उनके पीछे हो लिये । येसु ने मछुओं को देखकर कहा था ‘मेरे
पीछे चले आओ’। और शिष्यों ने बिना कोई सवाल किये ही येसु के पीछे हो लिया। अगर हमने सुसमाचार
के पदों को ठीक से सुना है तो हम पाते हैं कि शिष्यों ने "तुरन्त" ही सबकुछ छोड़ दिया।
उन मछुवों ने अपने कार्यों को छोड़ने में जो उत्सुकता और उदारता दिखलायी - वह सराहनीय
है। उन्होंने येसु का आमंत्रण सुनते ही, किसी प्रकार की कोई आनाकानी किये बिना ही उनके
पीछे चलने को तैयार हो गये। वे येसु के हो गये।
प्रभु की ओर लौटना मित्रो,
इन पहले शिष्यों ने प्रभु की उस आवाज़ को ठीक से समझा था जिसे येसु ने उनके सामने रखा।
येसु ने अपने सार्वजनिक जीवन की शुरूआत करते हुए कहा था "पश्चात्ताप करो, ईश्वर का राज्य
निकट है।" आज भी प्रभु का संदेश हमारे कानों से होकर हमारे दिल में सुनाई पड़ रहा है
"पश्चात्ताप करो प्रभु निकट हैं।" प्रभु के उपदेश का सार यही है कि हम पश्चात्ताप करें।
पश्चात्ताप करने का अर्थ है हम प्रभु की ओर लौटें पश्चात्ताप करने का अर्थ है हम प्रभु
की उपस्थिति को पहचानें। पश्चात्ताप का अर्थ यह भी है कि हम पुराने रास्ते को छोड़ कर
नये रास्ता में चलना आरंभ करें। मित्रो, कई बार हम यह सोचते हैं कि मुझे तो प्रभु की
वाणी सुनाई ही नहीं देती है। कई बार हम यह भी सोचते हैं कि हमने तो कोई गुनाह ही नहीं
किया है तो फिर किस लिये पश्चात्ताप करुँ। सच्चाई तो यह है कि जब भी हम कोई नया कदम बढ़ाते
हैं हमारी आत्मा में एक आवाज़ सुनाई पड़ती है। हमारे सामने दो मार्ग होते हैं. हमें निर्णय
करने का आमंत्रण मिलता है और अगर हम प्रभु की आवाज़ सुन लेते हैं तो हम प्रभु के शिष्य
होने का साक्ष्य दे देते हैं किन्तु यदि हमने प्रभु की पुकार को अनसुनी कर दी तो हम
प्रभु के वफादार शिष्य होने के अवसर चूक जाते हैं।
अनेक मार्ग मित्रो, आज हमारे
सामने यह समस्या नहीं है कि प्रभु हमें नहीं बुलाते हैं आज समस्या कि हमारे पास कई मार्ग
हैं, कई लुभावने रास्ते हैं जो हमारे चुनाव को प्रभावित करते हैं। प्रभु के साथ रहने
का चुनाव करने का अर्थ है उन बातों को कहना, उन कर्मों करना और उन मनोभावों के अनुसार
जीवन बिताना जैसा कि येसु ने खुद ही किया। आज प्रभु हमें बुला रहे हैं उन मार्गों को
छोड़ने के लिये जो क्षणिक सुख दे है पर शांति नहीं देता । आज प्रभु हमें बुला रहे हैं
उन बातों और आदतों से मुख मोढ़ने लेने के लिये जो लुभावने होते पर इसकी खुशी टिकाउ नहीं
होती।
केवल माँग नहीं, दान भी आज प्रभु हमें बुला रहे हैं उस योजना में सम्मिलित
होने के लिये जो हमारे व्यक्तिगत जीवन को तो मजबूत और स्थिर करती ही है, इससे मानव का
कल्याण भी होता है। यह सप्ताह ख्रीस्तीय एकता सप्ताह है जब हम पूर्ण एकता के लिये प्रार्थना
कर रहे हैं ऐसे समय में उन मूल्यों, सिद्धांतों तथा कार्यों - जैसे एकता, सद्भाव तथा
वार्ता के लिये अपने को सपर्पित करें जिससे जग का तो भला हो ही और दिल को भी सुकून मिले।
विजय के समान हमारी प्रार्थना हो सिर्फ माँगने की नहीं पर येसु के उन प्रथम शिष्यों के
समान मानव मुक्ति हेतू येसु के अभियान में तुरन्त शामिल होने की हो जिसका पुरस्कार है
आंतरिक आनन्द।