6 फरवरी को काथलिक कलीसिया सन्त पौल मिकी एवं
जापानी शहीदों का स्मृति दिवस मनाती है। पौल मिकी एक जापानी सेना नायक के पुत्र थे।
उनकी शिक्षा-दीक्षा येसु धर्मसमाजियों द्वारा आत्ज़ूकी तथा ताकातसूकी में हुई थी। सन्
1580 ई. में पौल मिकी येसु धर्मसमाज में भर्ती हो गये थे। वाकपटुता में दक्ष होने के
कारण थोड़े ही समय में वे एक सुवक्ता एवं प्रवचनकर्त्ता रूप में विख्यात हो गये। उनके
प्रवचनों को सुन जापान के कई लोगों ने ख्रीस्तीय धर्म का आलिंगन कर लिया था।
जापान
के लोगों में येसुधर्मसमाजियों के प्रभाव से भयभीत उस युग के जापानी सम्राट तायको टोयोटोमी
हिदेयोशी ने ख्रीस्तीयों को उत्पीड़ित करना आरम्भ कर दिया था। पहले तो केवल कुछेक प्रतिबन्ध
ही लगाये गये जैसे सार्वजनिक स्थलों पर धर्म की बात न करना आदि किन्तु बाद में ख्रीस्तीय
धर्म के प्रति लोगों की रुचि को देखते हुए सम्राट ने दमन चक्र आरम्भ कर दिया। पौल मिकी
के साथ साथ अन्य अनेक पुरोहितों एवं धर्मप्रचारकों को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया।
कारावास में उन्हें यातनाएँ दी गई किन्तु ख्रीस्तीय धर्मानुयायी अपने विश्वास मज़बूत
होते रहे। थक कर सम्राट ने सभी ख्रीस्तीय क़ैदियों को क्योटो से नागासाकी तक यानि लगभग
600 मील दूर तक पैदल यात्रा का आदेश दे दिया। इस यात्रा के दौरान भी पौल मिकी एवं उनके
साथी ते देयुम यानि प्रभु के आदर में धन्यवाद का गीत गाते चलते गये।
काथलिक बहुल
नागासाकी शहर पहुँचने पर सम्राट ने पौल मिकी एवं उनके साथियों पर लोगों को भड़काने का
आरोप लगाया तथा 05 फरवरी सन् 1597 ई. को उन्हें सबके सामने क्रूस पर ठुकवा दिया। पौल
मिकी ने अपना अन्तिम प्रवचन क्रूस से ही किया। प्रवचन द्वारा उन्होंने अपने आततायियों
को भी क्षमा कर दिया। पौल मिकी के साथ साथ सम्राट ने दो अन्य येसु धर्मसमाजी जोन सोआन
तथा सान्तियागो किसाई को भी क्रूसित करने का आदेश दे दिया। इनके अतिरिक्त, इसी दिन 23
अन्य काथलिक पुरोहित, धर्मबहनों एवं लोकधर्मी धर्मशिक्षकों को क्रूसित कर मार डाला गया
था। पौल मिकी सहित जापान के इन सब शहीदों के वीरोचित गुणों को मान्यता देकर सन्त पापा
पियुस नवम ने, सन् 1862 ई. में, इनहें सन्त घोषित कर वेदी का सम्मान प्रदान किया था।
पौल मिकी एवं जापानी काथलिक शहीदों का पर्व, 06 फरवरी को, मनाया जाता है।
चिन्तनः
"प्रभु मेरा चरवाहा है, मुझे किसी बात की कमी नहीं। वह मुझे हरे मैदानों में बैठाता और
शान्त जल के पास ले जाकर मुझ में नवजीवन का संचार करता है। अपने नाम के अनुरूप वह मुझे
धर्ममार्ग पर ले चलता है। चाहे अँधेरी घाटी हो कर जाना पड़े, मुझे किसी अनिष्ट की शंका
नहीं, क्योंकि तू मेरे साथ रहता है। मुझे तेरी लाठी, तेरे डण्डे का भरोसा है। तू मेरे
शत्रुओं के देखते-देखते मेरे लिये खाने की मेज़ सजाता है। तू मेरे सिर पर तेल का विलेपन
करता और मेरा प्याला लबालब भर देता है। इस प्रकार तेरी भलाई और तेरी कृपा से मैं जीवन
भर घिरा रहता हूँ। मैं चिरकाल तक प्रभु के मन्दिर में निवास करूँगा" (स्तोत्र ग्रन्थ
23)।