सातवीं शताब्दी की कुँवारी एवं मठाध्यक्षा, आल्देगुनदिस,
मेरोविनजिएन्स शाही परिवार की सदस्या थीं। सन्त वालबेर्ट तथा सन्त बेरतीला उनके माता
पिता थे जिन्होंने बाल्यकाल से ही आल्देगुनदिस में धर्म, ईश्वर, आस्था एवं नीतिपरक मूल्यों
को आरोपित किया था। आल्देगुनदिस का शाही परिवार निचले देशों के फ्लेन्डर्स स्थित हाईनोल्त
में निवास करता था। आल्देगुनदिस विवेकी एवं बुद्धिमत्ता होने के साथ साथ एक सुन्दर युवती
थीं जिन्हें यौवनकाल में कई शाही परिवारों से शादी के प्रस्ताव मिले थे किन्तु उन्होंने
ईश्वर एवं पड़ोसी की सेवा में जीवन यापन का प्रण कर लिया था। अस्तु, मासट्रिख्ट के धर्माध्यक्ष
सन्त अमानदियुस के मार्गदर्शन में उन्होंने मठवासी जीवन का चयन किया तथा सुसमाचारी शपथें
ग्रहण कर ली। साम्ब्रे नदी के तट पर बसे मालबोदे के मठ में उन्होंने प्रवेश किया तथा
वहीं प्रभु की सेवा में जीवन यापन करने लगीं। इस मठ की स्थापना भी आल्देगुनदिस की बड़ी
बहन सन्त वाल्देट्रूड द्वारा की गई थी जो बाद में जाकर एक विख्यात बेनेडिक्टीन मठ सिद्ध
हुआ। इसी मठ में आल्देगुनदिस कैंसर से ग्रस्त हो गई तथा 54 वर्ष की आयु में उनका देहान्त
हो गया। सन्त आल्देगुनदिस का पर्व 30 जनवरी को मनाया जाता है।
चिन्तनः
"प्रभु मेरा चरवाहा है, मुझे किसी बात की कमी नहीं। वह मुझे हरे मैदानों में बैठाता और
शान्त जल के पास ले जा कर मुझमें नवजीवन का संचार करता है। अपने नाम के अनुरूप वह मुझे
धर्ममार्ग पर ले चलता है। चाहे अँधेरी घाटी हो कर जाना पड़े, मुझे किसी अनिष्ट की शंका
नहीं, क्योंकि तू मेरे साथ रहता है। मुझे तेरी लाठी, तेरे डण्डे का भरोसा है। तू मेरे
शत्रुओं के देखते-देखते मेरे लिये खाने की मेज सजाता है। तू मेरे सिर पर तेल का विलेपन
करता और मेरा प्याला लबालब भर देता है। इस प्रकार तेरी भलाई और तेरी कृपा से मैं जीवन
भर घिरा रहता हूँ। मैं चिरकाल तक प्रभु के मन्दिर में निवास करूँगा" ( स्तोत्र ग्रन्थ
भजन 23)।