2014-01-18 07:43:58

प्रेरक मोतीः हंगरी की सन्त मार्गेट (1242-1271)


वाटिकन सिटी, 18 जनवरी सन् 2014

सन्त मार्गेट दोमीनिकन धर्मसंघ की धर्मबहन तथा हंगरी के राजा बेला चतुर्थ एवं मरिया लासकारिना की सुपुत्री थीं। वे पोलैण्ड के सन्त किनेगुन्दा तथा पोलैण्ड की ही धन्य योलान्दा की छोटी बहन थीं। इसके अतिरिक्त, मार्गेट, हंगरी की विख्यात सन्त एलीज़ाबेथ की भतीजी भी थीं।

मार्ग्रेट का जन्म क्रोएशिया के क्लिस दुर्ग में हुआ था इसलिये कि सन् 1241 ई. में, मंगोलों द्वारा हंगरी पर आक्रमण के समय, उनके पिता राजा बेला चतुर्थ सपरिवार क्रोएशिया में जा बसे थे जो हंगरी के ही अधीन था। मार्ग्रेट के माता पिता ने प्रतिज्ञा की थी कि यदि हंगरी मंगोलों के चंगुल से स्वतंत्र हो जायेगा तो वे अपनी एक सन्तान को प्रभु ईश्वर की सेवा के सिपुर्द कर देंगे। इस प्रकार, चार वर्ष की आयु में ही, सन् 1245 ई. में, मार्ग्रेट को वेज़प्रेम स्थित दोमिनीकन मठ के सिपुर्द कर दिया गया। छः वर्षों के बाद मार्ग्रेट को यहाँ से बुडापेस्ट के निकट रेबिट द्वीप पहुँचा दिया गया। अपना शेष जीवन मार्ग्रेट ने वहीं व्यतीत किया। मार्ग्रेट के पिता उनका विवाह बोहेमिया के राजा ऑटोकार द्वितीय से करना चाहते थे किन्तु मार्ग्रेट ने प्रभु ईश्वर में अपना मन लगा लिया था जहाँ से भटकने का कोई सवाल ही नहीं उठता था। 18 वर्ष की आयु में उन्होंने धर्मसंघीय जीवन की शपथें ग्रहण की तथा त्याग एवं तपस्या का जीवन यापन करने लगीं।

14 वीं एवं 15 वीं शताब्दी में हंगरी की मार्ग्रेट के जीवन चरित्र पर कई पुस्तकें प्रकाशित हुईं जिनमें उनकी विनम्रता, उनकी परोपकारिता, उनकी पवित्रता तथा उनकी मध्यस्थता से सम्पादित चंगाईयों एवं चमत्कारों की अनेक कहानियाँ मिलती हैं। बाल्यकाल से ही मार्ग्रेट अपने प्रति कठोर रही थी तथा अनुशासन और संयम से परिपूर्ण जीवन यापन करती रही थीं। 28 वर्ष की आयु में ही, 18 जनवरी, सन् 1271 ई. को, हंगरी के शाही घराने की मार्ग्रेट का निधन हो गया था। सन् 1789 ई. में सन्त पापा पियुस छठवें ने मार्ग्रेट को धन्य घोषित किया था। 27 लोगों के जीवन में मार्ग्रेट की मध्यस्थता से सम्पादित चमत्कार एवं चंगाई की गवाही के बाद, सन् 1943 ई. में, सन्त पापा पियुस 12 वें ने, हंगरी की मार्ग्रेट को सन्त घोषित कर, कलीसिया में वेदी का सम्मान प्रदान किया था। हंगरी की सन्त मार्ग्रेट का पर्व 18 जनवरी को मनाया जाता है।


चिन्तनः "वह धर्मियों को सफलता दिलाता और ढाल की तरह सदाचारियों की रक्षा करता है। वह धर्ममार्ग पर पहरा देता और अपने भक्तों का पथ सुरक्षित रखता है" (सूक्ति ग्रन्थय 2, 7-8)।









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