फ्राँस के पोईतियर्स नगर के एक अति कुलीन परिवार
में हिलरी का जन्म हुआ था। अपने युग में उन्हें आरियनवादी अपधर्मियों का सामना करना पड़ा
था। (आरियनवादी, मिस्र के एलेक्ज़ेनड्रिया के याजक आयरस के अनुयायी थे जो त्रियेक ईश्वर
सम्बन्धी ख्रीस्तीय धर्मशास्त्र से सहमत नहीं थे। उनके अनुसार, प्रभु येसु ख्रीस्त पिता
ईश्वर के साथ एकतत्व न होकर उनके अधीनस्थ हैं, उनसे अलग हैं)
सन्त अगस्टीन ने
सन्त हिलरी को कलीसिया के महाप्रतिष्ठित धर्माचार्य की संज्ञा प्रदान की थी तथा सन्त
जेरोम सन्त हिलेरी को सबसे वाकपटु एवं आरियनवादी विभेदकों के विरुद्ध लैटिन कलीसिया की
बुलन्द आवाज़ कहकर समेबोधित किया करते थे। एक स्थल पर, सन्त हिलरी की चर्चा करते हुए
सन्त जेरोम कहते हैं: "ईश्वर ने सन्त सिपप्रियन एवं सन्त हिलरी रूपी दो देवदारू वृक्षों
को उखाड़ कर कलीसिया में आरोपित कर दिया है।"
हिलेरी का बाल्यकाल मूर्तिपूजा
एवं बहु-देववाद के संग बीता किन्तु बाद में वे ईश्वरीय ज्योति से आलोकित हुए और उन्होंने
इस तथ्य को बुद्धिगम्य किया कि मनुष्य ईश्वर द्वारा सृजित एक स्वतंत्र प्राणी है। उन्हें
आलोक मिला कि मनुष्य पृथ्वी पर धैर्य, संयम तथा सदगुणों के वरण हेतु बुलाया गया है तथा
पृथ्वी से चले जाने के बाद उसे उसके सत्कर्मों का समुचित पुरस्कार प्राप्त होगा। बहु-देवदवादी
होने के बाद हिलरी को आलोक मिला कि प्रभु ईश्वर एक हैं, वे ही इस ब्रहमाण्ड के स्वामी
हैं, वे आनादि हैं, वे ही सबकुछ के आदि एवं सबकुछ अन्त भी हैं। बाईबिल धर्मग्रन्थ का
अध्ययन कर उन्होंने अपने ज्ञान को प्रखर किया। इस तथ्य का उन्हें आलोक मिला कि ईश्वर
स्वयंभू अर्थात् "मैं हूँ जो हूँ" हैं जैसा कि नबी मूसा ने सर्वशक्तिमान् का परिचय दिया
है। बाईबिल के नवीन व्यवस्थान के अध्ययन ने हिलरी को यह आलोक प्रदान किया कि ईशपुत्र
प्रभु येसु ख्रीस्त, पिता ईश्वर का वचन हैं जो पिता ईश्वर के साथ अनादि एवं एकतत्व है।
इस प्रकार स्वाध्याय एवं मनन- चिन्तन द्वारा हिलरी ज्ञान के शिखर पर चढ़ते चले गये। व्यस्क
होने पर उन्होंने बपतिस्मा ग्रहण किया तथा प्रभु येसु ख्रीस्त में अपने विश्वास की अभिव्यक्ति
की।
सन् 350 ई. में हिलरी पोईतियर्स के धर्माध्यक्ष नियुक्त कर दिये गये। उनके
सदगुणों की चर्चा फ्राँस की सीमाओं से बाहर भी दूर दूर तक होने लगी थी। धर्माध्यक्ष नियुक्त
होने के बाद हिलरी ने सन्त मत्ती रचित सुसमाचार पर टीका लिखी जो आज तक प्रचलित है। आरियनवादी
अपधर्मियों की निन्दा करने के लिये हिलरी को तीन वर्षों तक निर्वासन में जीना पड़ा था।
इस दौरान, उन्होंने भजन संहिता पर टीका लिखी। बाद में उनकी लेखनी आरियनवाद के खण्डन में
व्यस्त रही। लेखन कार्य के साथ-साथ हिलरी जगह-जगह ख्रीस्त के सुसमाचार का प्रचार करते
रहे तथा एक सिद्धहस्त प्रवचनकर्त्ता रूप में विख्यात हो गये।
सन् 355 ई. में
रोमी सम्राट कॉस्तानतियुस द्वितीय ने इटली के मिलान नगर में एक सभा बुलाई तथा कलीसिया
के समस्त धर्माध्यक्षों को आदेश दिया कि वे सन्त अथानासियुस पर लगाये आरोपों का समर्थन
करते हुए दोषपत्र पर हस्ताक्षर करें। कुछ धर्माध्यक्षों ने हस्ताक्षर करने से इन्कार
कर दिया। इनमें हिलरी भी शामिल थे। इन सभी को निर्वासन का दण्ड प्रदान कर दिया गया। निर्वासन
में रहते ही हिलरी ने "कॉस्तानतियुस द्वितीय के नाम प्रथम पुस्तक" शीर्षक से एक कृति
की रचना की जिसमें सम्राट से कलीसया की शांति वापस लौटाने का निवेदन किया था जिससे क्रुद्ध
होकर सम्राट ने अन्यों की अपेक्षा हिलरी के निर्वासन काल को और अधिक बढ़ा दिया। हिलरी
ने इस समय का सदुपयोग कर कई कृतियों की रचना की जिनमें "त्रियेक ईश्वर" पर लिखी उनकी
कृति सबसे प्रसिद्ध हुई तथा आज भी ईशशास्त्र के छात्रों के लिये एक सर्वोत्तम संदर्शिका
है।
निर्वासनकाल के बाद, सन् 360 ई. में, हिलरी वापस अपनी जन्म भूमि फ्राँस
लौटे। पोईतियर्स के ख्रीस्तीयों ने हिलरी का हार्दिक स्वागत किया। इसी समय अपने शिष्य
सन्त मार्टिन की मदद से हिलरी ने फ्राँस में एक सभा बुलाई जिसमें, इटली के रिमीनी नगर
में सम्पन्न, आरियनवादी अपधर्मियों की सभा को अवैधानिक घोषित कर उसके प्रस्तावों का बहिष्कार
कर दिया गया। आरियनवादी धर्माध्यक्ष सातुरनिनस को भी इसी समय अपदस्त कर धर्मविरोधी घोषित
कर दिया गया तथा कलीसिया में अनुशासन, शांति एवं विश्वास की पुनः प्रतिष्ठापना की गई।
सन् 361 ई. में सम्राट कॉस्तानतियुस द्वितीय की मृत्यु हो गई और इसके साथ ही आरियनवादियों
का अपधर्म भी कमज़ोर पड़ गया।
सन् 364 ई. में हिलरी ने इटली के मिलान की यात्रा
की जिसकी धर्माध्यक्षीय पीठ पर आरियनवादियों ने कब्ज़ा कर लिया था। आरियनवादी नेता ऑक्सेनसियुस
को एक धर्मतत्व-वैज्ञानिक वाद-विवाद में परास्त कर हिलरी ने मिलान में पुनः कलीसिया को
प्रतिष्ठापित किया। तदन्तर, ऑक्सेनसियुस ने अपनी हार मानी तथा सार्वजनिक रूप से, प्रभु
येसु मसीह को सच्चे ईश्वर, पिता ईश्वर के साथ एक तत्व एवं एक ईश्वर स्वीकार किया।
सन्त
हिलरी का निधन सन् 368 ई. में हो गया था। रोमी शहादतनामे के अनुसार सन्त हिलरी का पर्व
14 जनवरी को मनाया जाता है। सन् 1851 ई. में सन्त पापा पियुस नवम् ने सन्त हिलरी को काथलिक
कलीसिया के धर्माचार्य घोषित किया था।
चिन्तनः "धन्य है वह मनुष्य,
जिसे प्रज्ञा मिलती है, जिसने विवेक पा लिया है! उसकी प्राप्ति चाँदी की प्राप्ति से
श्रेष्ठ है। सोने की अपेक्षा उस से अधिक लाभ होता है। उसका मूल्य मोतियों से भी बढ़कर
है। तुम्हारी कोई अनमोल वस्तु उसकी बराबरी नहीं कर सकती। उसके दाहिने हाथ में लम्बी आयु
और उसके बायें हाथ में सम्पत्ति और सुयश हैं। उसके मार्ग रमणीय हैं और उसके सभी पथ शान्तिमय"
(सूक्ति ग्रन्थ 3: 13-17)।