2013-09-13 10:23:44

प्रेरक मोतीः सन्त जॉन क्रिज़ोस्तम (347-407)


वाटिकन सिटी, 13 सितम्बर सन् 2013:

अन्ताखिया शहर में, सन् 344 ई. में, एक सिरियाई ख्रीस्तीय घराने में जॉन क्रिज़ोस्तम का जन्म हुआ था। जॉन क्रिज़ोस्तम की माता जी एक धर्मी महिला थी जिन्होंने बाल्यकाल से ही अपने पुत्र में सदगुणों को आरोपित कर दिया था।

उस युग के विख्यात भाषणबाज एवं सुवक्ता लिबानियुस के अधीन जॉन क्रिज़ोस्तम ने शिक्षा-दीक्षा प्राप्त की थी। वस्तुतः, क्रिज़ोस्तम का अर्थ होता है सुनहरा मुख और सन्त जॉन को इसी नाम से पुकारा जाता था इसलिये कि वे मृदु भाषी होने के साथ साथ वाकपटु भी थे। उनके मुख से निकला हर शब्द सुननेवाले के हृदय में घर कर जाता था।

सन् 374 ई. में जॉन क्रिज़ोस्तम ने अन्ताखिया के पहाड़ों में एकान्तवास आरम्भ कर दिया था किन्तु बिगड़ते स्वास्थ्य ने उन्हें, सन् 386 ई. में, अन्ताखिया लौटने पर बाध्य कर दिया जहाँ वे पुरोहित अभिषिक्त किये गये थे।

सन् 398 ई. में जॉन क्रिज़ोस्तम कॉनस्टेनटीनोपल की पीठ के प्राधिधर्माध्यक्ष नियुक्त हुए तथा कलीसिया के महानतम प्रकाशस्तम्भों में से एक सिद्ध हुए। जॉन क्रिज़ोस्तम की बढ़ती लोकप्रियता उनके विरोधियों की ईर्ष्या का कारण बनी। इनमें एलेक्ज़ेनड्रिया के प्राधिधर्माध्यक्ष थेओफिलुस भी शामिल थे जिन्होंने मरते समय पश्चाताप कर लिया था। जॉन क्रिज़ोस्तम की सर्वाधिक शक्तिशाली शत्रु महारानी यूक्सोडिया थीं जो क्रिज़ोस्तम के प्रवचनों की प्रेरितिक स्वतंत्रता से नाराज़ थी। क्रिज़ोस्तम पर कई आरोप लगाये गये तथा उन्हें निष्कासन में भेज दिया गया।

अपनी पीड़ा के बीच क्रिज़ोस्तम ने सन्त पौल से प्रेरणा प्राप्त की तथा अत्याचारों को सहने के बावजूद शांति और सुख की अनुभूति प्राप्त की। क्रिज़ोस्तम के लिये यह महान सान्तवना का विषय था कि काथलिक कलीसिया के तत्कालीन परमाध्यक्ष उनके मित्र थे।

क्रिज़ोस्तम को इतना अधिक उत्पीड़ित कर भी उनके शत्रुओं को सन्तोष नहीं हुआ और उन्होंने उन्हें साम्राज्य के अन्तिम छोर तक, "पिथियुस" निर्वासित कर दिया था। रास्ते में ही, 14 सितम्बर सन् 407 ई. को, जॉन क्रिज़ोस्तम का निधन हो गया था। पूर्वी ऑरथोडोक्स कलीसिया तथा काथलिक कलीसिया में, जॉन क्रिज़ोस्तम, कलीसिया के आचार्य एवं सन्त घोषित किये गये हैं। जॉन क्रिज़ोस्तम का पर्व 13 सितम्बर को मनाया जाता है।
चिन्तनः अत्याचारों एवं उत्पीड़न के बावजूद ईश्वर में अपने विश्वास को हम कदापि न खोयें बल्कि सतत् प्रार्थना द्वारा सम्बल प्राप्त करें।








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