सन्त इरेनियुस का जन्म सम्भवतः 125 ई. में, एशिया
माईनर के उस क्षेत्र हुआ था जहाँ प्रेरितों का प्रभाव था तथा ख्रीस्तीय धर्मानुयायियों
की संख्या अन्य क्षेत्रों से अपेक्षाकृत अधिक थी। इरेनियुस का परिचय सन्त पोलीकार्प से
था जिन्होंने प्रेरितों को क़रीब से जाना था।
सन्त इरेनियुस के लेखों एवं शोध
प्रबन्धों ने, कलीसिया के महान आचार्यों के बीच उन्हें जगह दिलाई। धर्म और दर्शन पर लिखे
उनके शोध प्रबन्धों ने केवल ख्रीस्तीय धर्मशास्त्र की आधारशिला ही नहीं रखी अपितु गूढ़ज्ञानवादियों
के ग़लत विचारों को प्रकाश में लाकर काथलिक विश्वास को अपधर्मियों की धारणाओं के ख़तरों
से भी मुक्त किया।
अनेक एशियाई पुरोहितों एवं मिशनरियों ने ग़ैरविश्वासी गौल
लोगों के बीच सुसमाचार का प्रचार किया तथा स्थानीय कलीसिया की स्थापना की। पुरोहित इरेनियुस
को लियों के इसी कलीसियाई समुदाय की सेवा हेतु भेजा गया था जो धर्माध्यक्ष सन्त पोथीनुस
के अधीन था। सन् 177 ई. में इरेनियुस को रोम भेज दिया गया था इसीलिये जब लियों के ख्रीस्तीयों
के अत्याचार हुआ तथा सन्त पोथीनुस मारे गये तब वे उनके साथ नहीं थे।
पोथीनुस
की शहादत के बाद इरेनियुस पुनः लियों लौटे किन्तु वहाँ सबकुछ बदल चुका था। ख्रीस्तीयों
का उत्पीड़न बन्द हो गया था किन्तु गूढ़ज्ञानवादियों ने सर्वत्र अपना अधिकार जमा लिया
था। उनके कुप्रचार को दृष्टिगत रखकर ही इरेनियुस ने पाँच पुस्तकों में अपने शोध प्रबन्ध
लिखे गूढ़ज्ञानवादियों की ग़लतियों को इंगुत किया। उनके प्रबन्धों ने इस बात को स्पष्ट
किया कि गूढ़ज्ञानवादियों की शिक्षा प्रेरितों तथा धर्मग्रन्थ की शिक्षाओं से मेल नहीं
खाती थीं। ग्रीक भाषा में लिखे उनके शोध प्रबन्धों को लैटिन भाषा में भी अनुदित किया
गया जिससे गूढ़ज्ञानवादियों के मिथ्या प्रचार पर रोक लग सकी।
इरेनियुस के निधन
की निश्चित्त तिथि का पता नहीं चल पाया है किन्तु विश्वास किया जाता है कि सन् 202 ई.
में उनका निधन हो गया था। सन्त इरेनियुस के पवित्र अवशेषों को तत्कालीन सन्त जॉन गिरजाघर
में सुरक्षित रखा गया था जो बाद में जाकर सन्त इरेनियुस को समर्पित गिरजाघर के नाम से
विख्यात हुआ। बताया जाता है कि सन् 1562 ई. में केलवानिस्ट ख्रीस्तीय सम्प्रदाय के लोगों
ने इरेनियुस की समाधि को नष्ट कर दिया था तब से उनके अवशेषों का कोई पता नहीं लग पाया
है। सन्त इरेनियुस का पर्व 28 जून को मनाया जाता है।
चिन्तनः कठिन क्षणों
में ख्रीस्तीय विश्वास के तत्वों को अक्षुण रखने तथा प्रभु ख्रीस्त का साक्ष्य प्रदान
करने हेतु अनवरत प्रार्थना की नितान्त आवश्यकता है।