फ्राँस के ट्रोयेज़ नगर में, मार्ग्रेट बुरजुईज़
का जन्म, सन् 1620 ई. में हुआ था। 20 वर्ष की आयु से ही वे अपने समुदाय के निर्धन एवं
ज़रूरतमन्द परिवारों की सहायता का नेक काम किया करती थी। सन् 1653 ई. में ई. में वे फ्राँस
छोड़कर कनाडा के जंगलों में चली गई थीं जो उस समय फ्राँस के अधीन थे। कनाडा स्थित फ्राँस
के इस उपनिवेश को न्यू फ्राँस के नाम से जाना जाता है। यहाँ जंगलों में प्रायः आग लगने
के कारण अथवा महामारियों के कारण वहाँ रहनेवाली जनजातियाँ बहुत अधिक समय तक एक स्थान
पर नहीं रहती थीं। मार्ग्रेट भी उनकी सेवा करती हुई उन्हीं के साथ इधर से उधर जाती रहीं।
सन् 1658 ई. में मार्ग्रेट ने महिलाओं के उद्धार के लिये नोत्र दाम नामक धर्मसंघ
की स्थापना की। कई युवतियाँ इस धर्मसंघ से जुड़ गई तथा मार्ग्रेट के साथ मिलकर न्यू
फ्राँस की किशोरियों, महिलाओं एवं जनजातियों में अपनी सेवाएँ अर्पित करने लगीं। इस धर्मसंघ
की धर्मबहनें लोगों के बीच रहकर काम किया करती थीं तथा उन्हीं के साथ जीवन यापन किया
करती थी। धर्मसंघ की प्रमुख प्रेरिताई शिक्षा प्रदान करना, महिलाओं को रसोई एवं सिलाई
आदि में प्रशिक्षण देना, चिकित्सा एवं स्वास्थ्य कार्यों में संलग्न होना तथा प्रभु येसु
के सुसमाचार का सन्देश फैलाना था।
अपनी इसी प्रेरिताई के दौरान मार्ग्रेट की
मुलाकात न्यू फ्राँस के राज्यपाल जाँ मान्चे से हो गई जिन्होंने होटेल डियु नामक अस्पताल
की स्थापना की थी। जाँ मान्चे मार्ग्रेट को विले मारी ले गये जो आज मोन्टरियाल के नाम
से जाना जाता है। मोन्टरियाल में मार्ग्रेट ने शिक्षा प्रेरिताई आरम्भ की और साथ ही महिलाओं
के लिये विभिन्न प्रशिक्षणों को शुरु किया ताकि वे अपने निर्धन परिवारों के लिये जीविका
के साधन जुटा सकें। उन्होंने उन्हें ईश्वर में आशा और विश्वास की शिक्षा दी तथा सुसमाचार
के प्रेम सन्देश से उन्हें अवगत कराया। राज्यपाल जाँ मान्चे ने उन्हें अपना रेन्च दान
में दे दिया था जहाँ मार्ग्रेट ने प्रथम औपचारिक स्कूल की स्थापना की। इसीलिये मोन्टरियाल
के लोग आज मार्ग्रेट को "मदर ऑफ द कॉलोनी" नाम से पुकारते हैं। नोत्र दाम धर्मसंघ की
संस्थापिका मार्ग्रेट बुरजुईज़ का निधन सन् 1700 ई. में हो गया था। सन् 1982 ई. में सन्त
पापा जॉन पौल द्वितीय ने उन्हें सन्त घोषित कर वेदी का सम्मान प्रदान किया था। सन्त मार्ग्रेट
बुरजुईज़ का पर्व 12 जनवरी को मनाया जाता है।
चिन्तनः "धन्य है
वह मनुष्य, जिसे प्रज्ञा मिलती है, जिसने विवेक पा लिया है! उसकी प्राप्ति चाँदी की प्राप्ति
से श्रेष्ठ है। सोने की अपेक्षा उस से अधिक लाभ होता है। उसका मूल्य मोतियों से भी बढ़कर
है। तुम्हारी कोई अनमोल वस्तु उसकी बराबरी नहीं कर सकती। उसके दाहिने हाथ में लम्बी आयु
और उसके बायें हाथ में सम्पत्ति और सुयश हैं। उसके मार्ग रमणीय हैं और उसके सभी पथ शान्तिमय"
(सूक्ति ग्रन्थ 3: 13-17)।