सन्त लॉरेन्स ओटूल का जन्म, सन् 1125 ई. में,
आयरलैण्ड के कासेलडेरमॉट में हुआ था तथा नोरमाण्डी में, 14 नवम्वर, सन् 1180 ई. को, उनका
निधन हो गया था। सन्त पापा ऑनोरियुस तृतीय द्वारा लॉरेन्स ओटूल, सन् 1225 ई. में, सन्त
घोषित किये गये थे।
जब लॉरेनेस दस वर्ष की आयु के थे तब उनके पिता ने उन्हें
लाईन्स्टर के राजा, डेरमॉड मैकमुरेहद के सिपुर्द कर दिया था। राजा के यहाँ बालक लॉरेन्स
को नाना प्रकार उत्पीड़ित किया जाता था तथा वयस्कों की तरह मज़दूरी में लगाया जाता था।
जब पिता को इस बात का पता चला तो उन्होंने अपने पुत्र लॉरेन्स को वहाँ से हटाकर ग्लेनडालाफ
के धर्माध्यक्ष के सिपुर्द कर दिया। धर्माध्यक्ष के अधीन रहकर ही लॉरेन्स की शिक्षा दीक्षा
हुई। पुरोहिताभिषेक के बाद लॉरेन्स आध्यात्मिक सीढ़ी पर निरन्तर बढ़ते गये तथा अन्यों
के लिये वे सदगुणों का आदर्श बने।
धर्माध्यक्ष के निधन पर हालांकि लॉरेन्स की
उम्र केवल 25 वर्ष की थी उन्हें उस मठ का मठाध्यक्ष चुन लिया गया जिसके प्रमुख स्वयं
धर्माध्यक्ष थे। सूझबूझ, विवेक एवं धैर्य के साथ लॉरेन्स ने मठ के सभी समुदायों का सुचारु
रूप से प्रशासन किया। सन् 1161 ई. में, उन्हें नये महाधर्मप्रान्त डबलिन का धर्माध्यक्ष
नियुक्त कर दिया गया।
सन् 1171 ई. में, धर्मप्रान्त की ओर से वे सम्राट हेनरी
द्वितीय से मिलने इंग्लैण्ड गये। इंग्लैण्ड के कैन्टरबरी में बेनेडिक्टीन मठवासियों ने
महाधर्माध्यक्ष लॉरेन्स का आदर-सत्कार सहित भावपूर्ण स्वागत किया। इसके दूसरे ही दिन,
जब महाधर्माध्यक्ष लॉरेन्स ख्रीस्तयाग करने निकले थे तब, किसी विक्षिप्त ने उनपर हमला
कर दिया। उनके सिर में गहन चोट आई। सबने यह स्वीकार कर लिया था कि चोट जानलेवा थी और
लॉरेन्स के बचने की उम्मीद नहीं थी उसी क्षण लॉरेन्स निश्चेत अवस्था से जाग उठे और उन्होंने
पानी मांगा, उसपर आशीष दी तथा अपने घाव को धो डाला। खून बहना बन्द हो गया तथा महाधर्माध्यक्ष
लॉरेन्स ख्रीस्तयाग के लिये चले गये।
सन् 1175 ई. में, इंग्लैण्ड के सम्राट
हेनरी आयरलैण्ड के राजा रोडरिक से किसी बात पर क्रुद्ध हो गये थे। दोनों के बीच सुलह
के लिये महाधर्माध्यक्ष लॉरेन्स ने एक बार फिर इंग्लैण्ड की यात्रा की। इस अवसर पर सम्राट
हेनरी महाधर्माध्यक्ष लॉरेन्स की पवित्रता, उनकी दया, उदारता और साथ विवेक से इतने अधिक
प्रभावित हुए कि रोडरिक से सुलह करने पर राज़ी हो गये। कुछ समय तक बीमार रहने के उपरान्त
14 नवम्बर, सन् 1180 ई. को महाधर्माध्यक्ष लॉरेन्स ओटूल का निधन हो गया। उनका पवित्र
अवशेषों को नोरमाण्डी की सीमा से लगे एयू मठ में दफनाया गया है। सन्त लॉरेन्स ओटूल का
पर्व 14 नवम्बर को मनाया जाता है।
चिन्तनः "मैं हर पल प्रभु को
धन्य कहूँगा; मेरा कण्ठ निरन्तर उसकी स्तुति करेगा। मेरी आत्मा गौरव के साथ प्रभु का
गुणगान करती है। दीन-हीन उसे सुन कर आनन्द मनाये। मेरे साथ प्रभु की महिमा का गीत गाओ।
हम मिल कर उसके नाम की स्तुति करें" (स्तोत्र ग्रन्थ 34:1-3)।