2012-10-04 09:46:32

प्रेरक मोतीः असीसी के सन्त फ्राँसिस (1181-1226)


वाटिकन सिटी, 04 अक्टूबर सन् 2012:

04 अक्टूबर को कलीसिया असीसी के सन्त फ्राँसिस का पर्व मनाती है। इटली के असीसी नगर में सन् 1181 ई. को जोवान्नी फ्राँन्चेसको दी बेरनारदोने का जन्म हुआ था जो बाद में असीसी के सन्त फ्राँसिस नाम से विख्यात हुए। असीसी के फ्राँसिस एक काथलिक धर्मबन्धु एवं उपदेशक थे। उन्होंने पुरुषों के लिये फ्राँसिसकन धर्मसमाज की स्थापना की, समर्पित जीवन यापन की इच्छुक महिलाओं के लिये सन्त क्लेयर धर्मसंघ की स्थापना की तथा लोकधर्मियों के सन्त फ्राँसिस के थर्ड ऑर्डर का स्थापना की।

फ्राँसिस, असीसी के एक समृद्ध कपड़ा व्यापारी के पुत्र थे, और उसी के अनुकूल उन्होंने अपना बाल्यकाल एवं यौवन ठाठ बाठ के साथ व्यतीत किया। वे असीसी की सेना में सैनिक भी रहे थे। सन् 1204 ई. में जब वे एक युद्ध पर जा रहे थे तब एकाएक उन्हें एक दर्शन मिला जिसे पाकर वे तुरन्त असीसी वापस लौट आये। इस घटना ने फ्राँसिस को इस कदर प्रभावित किया कि उन्होंने सांसारिक सुख-सम्पदा के परित्याग का निर्णय ले लिया। रोम की तीर्थयात्रा पर वे सन्त पेत्रुस महागिरजाघर के समक्ष भिक्षा मांगनेवाले भिखारियों के संग हो लिये तथा भीख मांगने लगे। यह अनुभव उनके लिये इतना हृदय विदारक रहा कि उन्होंने अकिंचनता का वरण कर निर्धनता में जीवन यापन का प्रण कर लिया। वे असीसी लौटे जहाँ उन्होंने सड़कों पर उपदेश देना आरम्भ कर दिया और बहुतों को अपनी ओर आकर्षित किया। अपने अनुयायियों को एकत्र कर उन्होंने एक धर्मसमाज की स्थापना कर डाली जिसे सन् 1210 ई. में सन्त पापा इनोसेन्ट तृतीय का अनुमोदन मिला। इसके बाद भिक्षु फ्राँसिस ने धर्मबहनों के लिये अकिंचन क्लेयर धर्मसंघ तथा पश्चाताप के बन्धु एवं भगिनियों के लिये तीसरे धर्मसंघ की स्थापना की। इसी धर्मसंघ को द थर्ड ऑर्डर ऑफ सेन्ट फ्राँसिस कहा जाता है।

मिस्र के सुलतान के मनपरिवर्तन के प्रयास में, असीसी के फ्राँसिस ने सन् 1219 ई. में मिस्र और सिरिया की यात्रा की थी। फ्राँसिस कभी भी पुरोहित अभिषिक्त नहीं किये गये थे किन्तु सन्त पापा के आदेश पर उन्हें उपयाजक अभिषिक्त किया गया था तथा असीसी के धर्मबन्धु फ्राँसिस नाम दिया गया था। उनके द्वारा स्थापित धर्मसमाज दस वर्षों में ही, 5000 सदस्योंवाला विशाल धर्मसमाज बन गया जिसकी व्यवस्था आदि के लिये नई संरचनाएँ खोजी गई। फ्राँसिस उपदेशक रूप में अपना प्रेरितिक मिशन जारी रखते रहे जबकि धर्मसमाज के अन्य वरिष्ठ सदस्य इसे नित्य नये रूप देने का प्रयास करते रहे। इसके लिये उन्होंने फ्राँसिस का विरोध भी किया क्योंकि फ्राँसिस विनम्रता, दीनता और अकिंचनता के मूल्यों पर आधारित ठोस धर्मसमाज की रचना करना चाहते थे जबकि उनके साथी धर्मसमाजी विशाल भवनों एवं आलीशांन इमारतों की दीवारों को मज़बूत करने के लिये कृतसंकल्प थे। वर्षों तक निर्धनता में जीवन यापन तथा दूर दूर तक सुसमाचार प्रचार के लिये पैदल यात्रा करने के कारण फ्राँसिस का शरीर जर्जर हो चला था तथा उनकी दृष्टि विलुप्त हो रही थी। सन् 1223 ई. में अपनी बीमारी के साथ ही फ्राँसिस ने विश्व का सबसे पहले क्रिसमस गऊशाले की रचना की। सन् 1224 ई. तक उनकी दृष्टि पूर्णतः जाती रही थी, इसी समय अचानक उनके हाथों में प्रभु ख्रीस्त घाव उभर आये। लिखित प्रमाणों के अनुसार असीसी के सन्त फ्राँसिस पहले व्यक्ति थे जिनके शरीर पर प्रभु ख्रीस्तके दुखभोग के घाव उभरे थे।

असीसी के फ्राँसिस सृष्टि के प्रति प्रेम के लिये भी विख्यात हैं। इसकी अभिव्यक्ति स्वयं उनके द्वारा रचित "सूर्य स्तुति" में हुई है जिसमें गृहों, तारों, धरती की उपज एवं जल और थलचरों आदि के द्वारा वे प्रभु ईश्वर का गुणगान करते हैं। बताया जाता है कि यह स्तुति गीत फ्राँसिस ने उस समय लिखा था जब वे नेत्रहीन हो चुके थे। 03 अक्टूबर, सन् 1226 ई. को, स्तोत्र ग्रन्थ के 141 वें भजन पर उपदेश देते समय, असीसी के फ्राँसिस का निधन हो गया था। 1228 ई. में, सन्त पापा ग्रेगोरी नवम ने उन्हें सन्त घोषित कर वेदी का सम्मान प्रदान किया था।

असीसी के सन्त फ्राँसिस पशु-पक्षियों एवं पर्यावरण के संरक्षक सन्त हैं। सिएना की काथरीन के साथ वे भी इटली के भी संरक्षक सन्त हैं। उनका पर्व 04 अक्टूबर को मनाया जाता है।

चिन्तनः हम सब मिलकर आसीसी के सन्त फ्राँसिस की निम्नलिखित प्रार्थना का पाठ करेः

"हे प्रभु मुझको अपनी शान्ति का साधन बना।

जहाँ घृणा है वहाँ प्रेम के बीज बोने दे।

जहाँ आघात है, वहाँ क्षमा के बीज बो सकूँ और जहाँ शंका है वहाँ विश्वास की ज्योत जगा सकूँ।

जहाँ निराशा है, आशा का संचार कर सकूँ, जहाँ अंधकार है, ज्योति प्रज्वलित कर सकूँ, जहाँ दुख है वहाँ हर्ष भर दूँ।

ओ दिव्य स्वामी, मुझे ऐसा वर दे कि मैं सांत्वना पाने की आशा न करूँ बल्कि सांत्वना देता रहूँ।

समझे जाने का आशा न करूँ बल्कि अन्यों को समझ सकूँ।

प्यार पाने की अपेक्षा न करूँ बल्कि प्यार देता रहूँ।

क्योंकि देने पर ही हम पाते हैं, क्षमा करने पर ही क्षमा के हकदार बनते हैं तथा मर कर ही हम अनन्त जीवन प्राप्त करते हैं। आमेन।








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