सन्त काजीतान का जन्म इटली में, पहली अक्टूबर
सन् 1450 ई. को गायतानो गदेई कोन्ती दी तीयेन्ने शाही परिवार में हुआ था। उन्होंने थेयातीन
धर्मसमाज की स्थापना की थी।
कलीसिया में याजकों एवं पुरोहितों के भ्रष्टाचार
से चिन्तित, सन् 1523 ई. में, काजीतान ने रोम की यात्रा की। रोम की यात्रा का उद्देश्य
कलीसिया के परमाध्यक्ष सन्त पापा या धर्माध्यक्षों से मुलाकात करना नहीं था बल्कि ऑरेटरी
ऑफ द डिवाईन लव अर्थात् दिव्य प्रेम को समर्पित प्रार्थना समुदाय के सदस्यों से बातचीत
करना था। इससे कुछ वर्ष पूर्व काजीतान ने विचेन्सा में घर बार छोड़ कर पौरोहित्य का अध्ययन
किया था तथा पुरोहित अभिषिक्त किये गये थे।
प्रार्थना द्वारा ईश्वर की महिमा
का गुणगान करने तथा आत्माओं के कल्याण के लिये स्थापित उक्त धर्मसमुदाय कुछ बिखरने लगा
था। ऐसे समय में काजीतान ने समुदाय के सदस्यों में नवप्राण फूँकें तथा उन्हें सुसमाचारी
सन्देश के सौन्दर्य से अवगत कराया। रोम में दिव्य प्रेम को समर्पित प्रार्थना समुदाय
के सुदृढ़ हो जाने के बाद काजीतान ने इसी प्रकार के समुदाय विचेन्सा तथा वेरोना नगरों
में स्थापित किये। प्रार्थना प्रेरिताई तथा निर्धनों एवं रोगियों की सेवा करना इन समुदायों
का प्रमुख मिशन बना। अपने समुदाय के बन्धुओं से वे कहा करते थेः "इस प्रार्थना समुदाय
में हम आराधना और भक्ति द्वारा ईश्वर की सेवा करते हैं; अपने अस्पतालों में, हम कह सकते
हैं कि हम उन्हें वास्तविक रूप से पा लेते हैं।" काजीतान कहते थे कि असाध्य एवं कभी न
ठीक होनेवाली बीमारियों का ख़ौफ़ इतना विकराल नहीं था जितना कि अपने इर्द गिर्द विद्यमान
दुष्टता का था।
यद्यपि काजीतान अन्य पुरोहितों के बरताव से नाराज़ थे किन्तु
कलीसिया में विभाजन की बात उनके मन में कभी नहीं आई। उन्होंने कभी स्वतः को कलीसिया से
अलग करने की बात नहीं सोची। अपने अनुयायियों को प्रार्थना द्वारा परिशुद्ध होने का वे
परामर्श दिया करते थे ताकि कलीसिया का पुर्नोद्धार हो सके और वह वैसी ही बन जाये जैसा
प्रभु ख्रीस्त ने उसे स्थापित करते समय चाहा था। इसीलिये उन्होंने अपने बन्धु पुरोहितों
के साथ मिलकर एक ऐसे धर्मसमाज की स्थापना की जिनका आदर्श थे येसु के प्रेरित। प्रेरितों
के जीवन से प्रेरणा पाकर जीवन जीने का प्रण करनेवाले इन पुरोहितों ने येसु के प्रति समर्पित
रहने की शपथ ग्रहण की। इस समर्पण को परिष्कृत करने के लिये उन्होंने नैतिकतापूर्ण जीवन
यापन, पवित्र बाईबिल के अध्ययन, सुसमाचार प्रचार तथा निर्धनों एवं रोगियों की सेवा को
अपना मिशन माना। इसी धर्मसमाज को थेयातीन धर्मसमाज के नाम से जाना जाता है। इन्हें थेयातीन
रेग्यूलर क्लर्जी धर्मसमाज भी कहा जाता है क्योंकि यह पुरोहितों से गठित धर्मसमाज था
तथा थेयातेनतीस नामक धर्माध्यक्ष इस धर्मसमाज के प्रथम महाध्यक्ष थे (यद्यपि काजीतान
इसके संस्थापक माने जाते हैं)।
आरम्भ में काजीतान एवं उनके सहपुरोहितों को, लोभी
एवं भोगविलासी पुरोहितों एवं याजकवर्ग के, विरोध का सामना करना पड़ा किन्तु काजीतान हिम्मत
नहीं हारे और कलीसिया के सुधार के रास्ते पर आगे बढ़ते रहे। उनकी पवित्रता एवं उनके उपदेशों
से प्रभावित कई लोगों ने मनपरिवर्तन किया तथा सृष्टिकर्त्ता ईश्वर के सच को जानने हेतु
उनमें तृष्णा जागी। काजीतान के प्रयासों के परिणामस्वरूप कलीसिया में विभाजन हुए बग़ैर
सुधार लाये जा सके।
अथक परिश्रम के कारण काजीतान भी दुर्बल हो चले थे किन्तु
इसके बावजूद वे मिताहारी जीवन जीते थे। उनका अधिकाधिक समय प्रार्थना, मनन चिन्तन, उपवास
एवं मौन में बीता करता था। उनकी बीमारी के समय जब डॉक्टरों ने उन्हें काठ के बजाय पलंग
और गद्दे पर सोने की सलाह दी तब उनका उत्तर था, "मेरे मुक्तिदाता काठ के क्रूस पर मर
गये, मुझे कम से कम काठ पर तो मरने दो।" 07 अगस्त, सन् 1547 ई. को काजीतान का निधन हो
गया था। सन्त काजीतान श्रमिकों, जुआड़ियों, बेरोज़गारों एवं नौकरी की तलाश करनेवालों
के संरक्षक सन्त हैं। सन्त काजीतान या सन्त गायतानो का पर्व 07 अगस्त को मनाया जाता है।
चिन्तनः सन्त काजीतान के जीवन से प्रेरणा पाकर हम भी प्रार्थना, मनन चिन्तन,
बाईबिल पाठ तथा निर्धनों एवं रोगियों की सेवा को प्रोत्साहन दें।