2011-12-31 12:04:21

विरोधों और क्रान्ति के बीच अरब जगत ने सन् 2011 को किया विदा


अरब जगत, 31 दिसम्बर सन् 2011 (विभिन्न समाचार एजेन्सियाँ): 17 दिसंबर सन् 2010 वह दिन था जिसने अरब देशों एवं विश्व के इतिहास में खास अध्याय जोड़ दिया। भ्रष्टाचार, राजनैतिक दमन, अवसरों के अभाव, निर्धनता तथा पुलिस की ज़्यादतियों से तंग आकर, ट्यूनीशिया के युवा मोहम्मद बुअज़ीज़ी ने, इसी दिन, आत्मदाह से अरब जगत में क्राँति की लौ प्रज्वलित की थी जो अब भी शान्त नहीं हो पाई है।

अधिकारियों ने ट्यूनीशियाई फल विक्रेता मोहम्मद बुअज़ीज़ी को अपने मुहल्ले में फलों की दूकान लगाने की अनुमति नहीं दी थी और इसी से निराश होकर उसने अपने जीवन को समाप्त करने का फैसला किया था। मोहम्मद बुअज़ीज़ी के इस फैसले ने अरब जगत में क्रान्ति की चिनगारी भड़का दी जिसे मीडिया ने "अरब वसन्त" का नाम दे डाला।

अरब जगत में आई क्राँति के एक साल के भीतर ही ट्यूनिश्या के राष्ट्रपति बेन अली, मिस्र के राष्ट्रपति मुबारक तथा लिबिया के तानाशाह जनरल गद्दाफ़ी को सत्ता छोड़ने के लिये बाध्य होना पड़ा। मध्यपूर्व के कई देश अरब वसन्त की लहर से मानों महक उठे तथा सर्वत्र स्वतंत्रता एवं मानवाधिकारों की मांग करते लोग सड़कों पर निकल पड़े।

वह एक ऐतिहासिक दिन था जब राष्ट्रपति बेन अली, लगभग पूरी तरह जल चुके, युवा बुअज़ीज़ी को अस्पताल में देखने पहुँचे थे। अस्पताल में बेन अली की भेंट पूरी भी नहीं हुई कि उनके खिलाफ बाहर सड़कों पर जनाक्रोश भड़क उठा। चार जनवरी को बुआज़ीज़ी की अस्पताल में मौत हो गई जिसने सर्वत्र क्रान्ति का कोलाहल मचा दिया। इन्टरनेट और फेसबुक के जरिये एक छोटी सी चिनगारी आग की भयावह लपटों में बदल गई तथा विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला आरम्भ हो गया। ट्यूनीशिया के युवाओं के विरोध प्रदर्शनों के दबाव में, विगत 23 वर्षों से देश की सत्ता सम्भालनेवाले, ज़ाइन अल-अबिदीन बेन अली को सत्ता के परित्याग हेतु बाध्य होना पड़ा।

अब, ट्यूनीशिया में, नए सदन का गठन हो चुका है जिसकी सबसे बड़ी पार्टी, "एन्नाहादा" नामक एक मध्यममार्गी इस्लामी पार्टी है जिसने आश्वासन दिया है कि वह देश में कट्टर इस्लामी कानूनों को लागू नहीं करेगी। नया सदन ट्यूनीशिया के नये संविधान को लिखने की भी तैयारी कर रहा है।

"अरब स्प्रिंग" नाम से विख्यात हुई यह क्रांति बेन अली के सत्ता परित्याग से समाप्त नहीं हुई। पड़ोसी मिस्र देश भी ट्यूनीशिया में भड़की क्रान्ति की चपेट में आ गया तथा वहाँ भी, परिवर्तन के प्यासे लाखों लोग सड़कों एवं चौकों पर निकल पड़े। मिस्र की राजधानी काहिरा के तहरीर चौक पर एकत्र होकर उन्होंने राष्ट्रपति होस्नी मुबारक के इस्तीफ़े की मांग की। मुबारक के समर्थकों और सुरक्षाबलों ने लोगों को तितर बितर करने की पूरी कोशिश की किन्तु प्रदर्शनकारी परिवर्तन का फैसला कर चुके थे, वे तहरीर चौक पर डटे रहे। प्रदर्शनकारियों की मांगों के आगे, अन्ततः, तीन दशक तक मिस्र पर राज करने के बाद 82 वर्षीय होस्नी मुबारक को अपना पद छोड़ना पड़ा और देश की सत्ता सेना के हाथ में आ गई। इस समय, होस्नी मुबारक पर मुकदमा चल रहा है, किन्तु प्रदर्शन अब भी जारी हैं।

ट्यूनीशिया और मिस्र में उठे विरोध प्रदर्शनों की प्रचण्ड आँधी ने लिबिया को भी झिंझोड़ कर रख दिया। इन दो देशों के उदाहरणों से प्रेरित होकर लीबिया में सरकार विरोधियों ने देश के पूर्वी शहर बेनगाज़ी से प्रदर्शनों की सिलसिला आरम्भ किया। तथापि, प्रदर्शनों के पहले दौर में ही यह पता चल गया था कि चार दशकों से अधिक समय तक लिबिया पर लौहदण्ड से राज करनेवाले जनरल मुआम्मर गद्दाफ़ी सत्ता छोड़ने के लिए कतई तैयार नहीं थे।

गद्दाफ़ी को अपदस्थ करने तथा लिबिया में स्वतंत्रता को प्रतिष्ठापित करने के लिये नेटो सेना ने लिबिया के विद्रोही दलों का साथ दिया तथा कई माह तक लड़ाई चलती रही। नेटो सेना की मदद मिलने के बाद विद्रोहियों के हौसले और बुलन्द हो गये। बहुत अधिक खून ख़राबे के बाद, अक्टूबर माह में, गद्दाफ़ी को विद्रोहियों ने उनके ही गृह शहर सिर्त में मार डाला।

अब भी ट्यूनीशिया से शुरु हुई क्रान्ति के समापन के कोई आसार नहीं दिख रहे हैं। लिबिया के बाद सिरिया में क्रान्ति भड़क उठी। लोग सिरियाई राष्ट्रपति अल असद के खिलाफ़ सड़कों पर उतर आये। सेना और सुरक्षा बलों ने प्रदर्शनों को रोकने के लिये कई दमनकारी तरीके अपनाये। सैकड़ों को गिरफ्तार किया तथा लगभग चार हज़ार से अधिक लोग मारे गये। इसके बावजूद अभी भी क्रान्ति थमी नहीं है, परिवर्तन की प्यास अभी भी बुझी नहीं है।








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