बेनिन के राष्ट्रपति और गणमान्य अधिकारियों को संत पापा का संदेश कोतोनु 19 नवम्बर,
2011
राष्ट्रपति महोदय गणमान्य नागरिक राजनीति और धार्मिक अधिकारियो राजनयिक मिशन के अध्यक्षों,
देवियो, सज्जनों, धर्माध्यक्षों और मेरे अति प्रिय मित्रो,
देशवासियों के नाम
पर बेनिन में मेरा स्वागत करने के लिये मैं आपको धन्यवाद देता हूँ। मेरा यह सौभाग्य है
कि मैं बेनिन के राष्ट्रीय जीवन में मुख्य भूमिका अदा करने वाले अग्रणी प्रतिनिधियों
को संबोधित करूँ और शुभकामनायें दूँ।
अफ्रीका के लोगों को संबोधित करते हुए कई
बार मैंने ‘आशा’ शब्द का प्रयोग किया था। मुझे याद है में लुवान्डा में अफ्रीकी धर्माध्यक्षों
की महासभा में ‘आशा’ शब्द का प्रयोग किया था और बाद में अफ्रीका के धर्माध्यक्षों की
दूसरी विशेष धर्मसभा के बाद तैयार किये गये प्रेरितिक उदबोधन ‘अफ्रीकाए मुनुस’ भी इसका
प्रयोग किया गया जिस पर आज मैं हस्ताक्षर करूँगा।
जब मैं कहता हूँ कि ‘अफ्रीका
आशा का महादेश’ है तो मैं तब मैं सिर्फ़ एक नारा नहीं देता हूँ पर मैं उस बात को कहता
हूँ जिस पर मुझे व्यक्तिगत दृढ़ विश्वास है और पूरी कलीसिया भी ऐसा ही विश्वास करती है।
कई बार हमारी पूर्वधारणाओं के कारण हम अफ्रीका के बारे में नकारात्मक सोचते हैं जो कि
एक धूमिल विश्लेषण का फल है। उन बातों को इंगित करना जो फलदायी नहीं है, अपने को नैतिक
या विशेषज्ञ बनाते हुए दूसरों पर गलत अनुमान लगाना, निर्णय करना और कुछ उपयोगी समाधान
प्रस्तुत करना मानव के लिये एक बहुत बड़ा प्रलोभन हैं।
ठीक वैसा ही अफ्रीकी जीवन
को एक उत्सुक मानवजाति वैज्ञानिक के समान सिर्फ़ इसके प्राकृतिक श्रोतों जैसे - बिजली,
खनिज पदार्थ, कृषि और मानवता को देखने जैसे संदिग्ध लक्ष्यों से इसका शोषित होना निश्चित
है। इस तरह के विचार को हम न्यूनकारी और असम्मानजनक मानते हैं जो अफ्रीका और इसके
लोगों को " वस्तु " मानता है।
अब मैं फिर से आशा के बारे बातें करता हूँ। आशा
शब्द हरदम एक ही अर्थ नहीं रखता है। कुछ वर्ष पहले मैंने एक दस्तावेज़ लिखे जिसमें मैंने
ख्रीस्तीय आशा के बारे में चर्चा की है। आशा के बारे में बातें करना मतलब भविष्य के बारे
में बातें करना और इसलिये ईश्वर के बारे में बातें करना। भविष्य की नींव भूत और वर्त्तमान
में होती है। बीते हुए दिनों को अच्छी तरह जानते हैं हम असफलताओं के लिये पश्चात्ताप
करते और सफलताओं की धन्यवाद देते हैं। मेरा विश्वास है कि हम ईश्वर की कृपा से वर्त्तमान
में जीते जैसा हम जी सकते हैं। जीवन की ऐसी उलझनों में कुछ विरोधाभासपूर्ण और कुछ अनुपूरक
बातों को लेते हुए ही हम ईश्वर की सहायता से अपना जीवन जीते हैं।
मित्रों, उन
बातों के आलोक में आप लोगों को दो बातों की चर्चा करना चाहता हूँ जो अफ्रीका से जुड़ी
हुई है। पहली, अफ्रीका महादेश की सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक जीवन और दूसरी अंतरधार्मिक
वार्ता। ये दोनों बातें न केवल आपलोगों को प्रभाविति करतीं हैं पर ऐसा लगता है कि पूरी
दुनिया इस शताब्दी में इन्हीं दोनों चुनौतियों का सामना कर रही है और यह प्रयास कर रही
है कि संघर्षों के बीच ही आशा प्रस्फुटित हो।
हाल के महीनों में लोगों ने स्वतंत्रता
की इच्छा को प्रकट किया है। उन्होंने इस बात को बताया है कि उन्हें भौतिक सुरक्षा चाहिये।
उन्होंने इस इच्छा को व्यक्त किया है कि वे अपने विभिन्न जातीय और धार्मिक समुदायों के
साथ सौहार्दपूर्ण जीवन जीना चाहते हैं। आज ज़रूरत है कि आपके बीच से एक नया राष्ट्र उत्पन्न
हो।
राजनीतिक शक्ति और आर्थिक लाभ के प्रति मानव के अन्धे होने के कारण कई समस्यायें
उत्पन्न हुई हैं यहाँ तक कि इसने मनुष्य मानव की मर्यादा और प्रकृति की भी हँसी उड़ाया।
मानव स्वतंत्रता चाहता है। वह चाहता है कि उसका जीवन मर्यादापूर्ण हो, वह चाहता है अच्छे
स्कूल हों, बच्चों के लिये भोजन हों, अस्पताल हों । मनुष्य इस बात की माँग करता है कि
सरकार के कार्य पारदर्शी हो जो सरकारी और नागरिक हितों के बारे में लोगों को भ्रमित न
करे। हम कह सकते हैं कि व्यक्ति अंततः चाहता है – शांति और न्याय। सत्य तो यह है कि समाज
में कई अन्याय और घोटालों रहे हैं, समाज में भ्रष्टाचार और लोलुपता है, गलतियाँ और झूठ
हैं, हिंसा से मानव जीवन तबाह है। इससे पूरा महादेश निश्चिय ही प्रभावित है और यह पूरे
विश्व को प्रभावित करता है।
आज मानव इस बात को समझने का प्रयास करता है उनके
नाम पर जो राजनीतिक और आर्थिक निर्णय लिये जाते है वे क्या हैं? कई बार इस प्रक्रिया
में व्यक्ति महसूस करता है कि किसी ने उसके साथ छेड़-छाड़ किया है और इसलिये वह हिंसक
भी हो जाता है। वे चाहता है कि वे भी सुशासन का सहभागी हो।
हम इस बात को भी जानते
हैं कि कोई भी सरकार पूर्ण नहीं हैं और कोई भी आर्थिक निर्णय तटस्थ नहीं है पर यह ज़रूरी
है कि इनसे सार्वजनिक हित हो। इसलिये अब सब राष्ट्रों में पूर्ण मर्यादा और मानवता की
माँगे उठने लगीं हैं। व्यक्ति की माँग है कि उसकी मानवीयता का सम्मान हो और इसे बढ़ाया
जाये। इसी बात के मद्देनज़र राजनैतिक और आर्थिक नेताओं को मह्त्त्वपूर्ण निर्णय लेना
है जिसे वे नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते।
आज में अफ्रीकी देशों और पूरे राष्ट्र के
राजनीतिक और आर्थिक नेताओं से अपील करता हूँ कि आप अपने लोगों को आशा से वंचित न करें।
आप उन्हें उनके वर्त्तमान से खिलवाड़ कर उनके भविष्य बरबाद न करें। अपनी ज़िम्मेदारी
निभाने के लिये साहसपूर्ण नैतिक कदम उठाइये।अगर आप आस्तिक है तो ईश्वर से विवेक की याचना
कीजिये। यह विवेक आप लोगों की सेवा करने में मदद देगा और आप आशा के सच्चे सेवक बन पायेंगे।
सेवक का जीवन विभिन्न वर्त्तमान विचारों और दुनियावी प्रलोभनों के समक्ष आसान नहीं है।
इस प्रकार की शक्ति से व्यक्ति आसानी से अन्धा हो जाता है पर यह भी सत्य है कि जब व्यक्तिगत
पारिवारिक जातीय या धार्मिक मूल्य पर खतरा आने से सिर्फ़ ईश्वर ही हमारे दिल और इच्छाओं
को शुद्ध कर सकता है।
आज कलीसिया कोई ऐसा विशेष समाधान का प्रस्ताव नहीं कर
रही है न ही कोई राजनीतिक समाधान थोप रही है। बस, कलीसिया इस बात को दुहराती है " आप
डरिये नहीं;मानवता चुनौतियों के समक्ष अकेले नहीं है ईश्वर हरदम हमारे साथ है। हमारे
लिये आशा का संदेश है, एक ऐसी आशा जो शक्तिदायी है, जो बुद्धि को आलोकित करती और इच्छा
को गति प्रदान करती है। तौलोस के एक पूर्व महाधर्माध्यक्ष कार्डिनल सलियेगे ने कहा था,
"आशा करना अर्थात् कभी नहीं छोड़ना; पर अपने कार्य को द्विगुणित या घनीभूत करना है।"
कलीसिया चाहती है कि वह राज्यों तथा इसके मिशन में अपना साथ दे; वह चाहती है
कि शरीर में आत्मा का कार्य करे और अनवरत उन बातों को इंगित करे जो अति महत्त्वपूर्ण
हैः ईश्वर और मानव। वह स्पष्ट और निर्भय होकर यह बताना चाहती है कि वह शिक्षा और स्वास्थ्य
के कार्यों को पूरा करेगी, लगातार प्रार्थना करेगी, ईश्वर और पूर्ण मानवता की ओर इंगित
करेगी। निराशा व्यक्तिवादी है। आशा सामुदायिक है। क्या यह हमारे लिये एक सुन्दर रास्ता
नहीं है ?
आज में सभी राजनीतिक और आर्थिक नेताओं और विश्वविद्यालय तथा सांस्कृतिक
क्षेत्रों में कार्यरत लोगों को आमंत्रित करता हूँ आप इसमें शामिल हो जाइये। मेरी शुभकामना
है कि आप आशा के बीज बोइये।
अब मैं दूसरी बिन्दु पर बोलना चाहूँगा वह है –अंतरधार्मिक
वार्ता। मैं इसे उचित नहीं समझता कि मैं पिछले दिनों में हुए तनावों के बारे में याद
करूँ जो ईश्वर के नाम पर हुआ या जान गंवाये गये। प्रत्येक व्यक्ति भला है वह यह समझता
है कि और सम्मान और सौहार्दपूर्ण सांस्कृतिक एवं धार्मिक वार्ता को बढ़ावा दिया जाना
चाहिये। सच्चा अंतरधार्मिक वार्ता मानव केन्द्रित सत्य को अस्वीकार करता है क्योंकि एकमात्र
सत्य ईश्वर है। ईश्वर सत्य है। इसलिये कोई भी धर्म या संस्कृति असहिष्णुता और हिंसा के
अपील को न्यायसंगत नहीं ठहरा सकता।
आक्रामकता एक पुराने ढंग का संबंधपरक रूप
है जो छिछला और अप्रतिष्ठित प्रवृत्ति के लोगों को भाता है। पवित्र ग्रंथ के दिव्य शब्दों
या भगवान के नाम पर अपने निजी हितों, सुविधाजनक नीतियों या हिंसा का औचित्य साबित करने
का प्रयाय एक गंभीर गलती है।
मैं दूसरे को तब ही जान सकता हूँ जब में खुद को
जानता हूँ। मैं जब तक अपने को प्यार नहीं करता दूसरे को प्यार नहीं कर सकता (संत मत्ती,
22:39)।इसलिये ज्ञान, गहरी समझदारी और अपने धर्म का पालन ही सच में अंतरधार्मिक वार्ता
है। यह तब ही आरंभ हो सकता है जब हम व्यक्तिगत प्रार्थना करें और दूसरी ओर वार्ता के
लिये इच्छुक हों। जैसा कि कहा गया है, "उस एकांत कमरे में जाने दीजिये और ईश्वर से प्रार्थना
करने दीजिये ताकि ईश्वर उसके विवेक को पवित्र करे और आशिष दे ताकि उसकी इच्छित मुलाक़ात
सफल हो। इस प्रार्थना में यह भी निवेदन हो कि ईश्वर उसे कृपा दे ताकि वह दूसरे व्यक्ति
को एक भाई के समान देख सके और प्यार कर सके और उसमें भी उस सत्यता को देख सके जो सबों
को आलोकित करता है। इसलिये सबों को चाहिये कि वे वार्ता के पूर्व अपने आपको ईश्वर और
दूसरों के समक्ष रखें। यह सत्य किसी को अलग नहीं करता न ही किसी को भ्रमित करता है।
अंतरधार्मिक वार्ता को ठीक से नहीं समझा गया तो यह इससे समन्वयता और अव्यवस्थित सोच उत्पन्न
होता है जो वार्ता के लिये नहीं उचित है।
अनेक प्रयासों के बावजूद हम जानते हैं
कि अंतरधार्मिक वार्ता करना आसान नहीं होता। इसकी राह में अनेक व्यवधान आ जाते हैं। इसका
अर्थ यह नहीं है कि यह असफल हो गया है।
अंतरधार्मिक वार्ता के कई रूप हैं। सामाजिक
और सांस्कृतिक क्षेत्रों में सहयोग करने से एक साथ जीने के लिये लोगों के बीच आपसी समझदारी
बढ़ती है। इस बात को जानना उचित है कि वार्ता हमारी कमजोरियों के कारण नहीं पर ईश्वर
में विश्वास के कारण संभव होती है। हम जो कुछ हैं उसका त्याग किये बिना ही हम वार्ता
के द्वारा ईश्वर और अपने पड़ोसियों को प्रेम कर सकते हैं।
उधर अपने दिल में
आशा बनाये रखने का अर्थ यह नहीं है कि हम शुद्ध हैं पर इसका अर्थ है इस बात पर विश्वास
करना कि हमारा भविष्य उज्जवल हो। इसीलिये काथलिक कलीसिया ने वाटिकन द्वितीय महासभा की
एक प्रेरणा को सदा जीवित रखती और उसका प्रसार करती है वह है अख्रीस्तीयों के साथ सौहार्दपूर्ण
संबंध बनाये रखना।
अब दस साल हो गये, अन्तरधार्मिक वार्ता के लिये बनी परमधर्मपीठीय
समिति ने इस क्षेत्र में लगातार कार्य किये हैं, कई सेमिनारों का आयोजन किया गया है और
कई दस्तावेज़ प्रकाशित किये हैं ताकि अन्तरधार्मिक वार्ता का प्रसार हो। इस तरह कलीसिया
अपनी ओर से पूरा प्रयास करती और बाबेल के पाप से उत्पन्न भाषाओं के गड़बड़ी पर विजय प्राप्त
करती है।(उत्पति ग्रंथ,11)
आज मैं अफ्रीका के सभी धार्मिक नेताओं को इस बात का
आश्वासन देना चाहता हूँ कि काथलिक कलीसिया के द्वारा प्रस्तुत वार्ता हार्दिक है। मैं
आप लोगों को इस बात के लिये प्रोत्साहन देना चाहता हूँ कि आप युवाओं को वार्ता का प्रशिक्षण
दें ताकि वे इस बात को सीख सकें कि हमारा अंतःकरण वह मंदिर है जिसका सम्मान किया जाना
चाहिये, कि हमारी आध्यात्मिकता भ्रातृत्व का प्रचार करती है। सच्चा विश्वास प्रेम की
प्रेरणा देता है और इसी भाव से मैं आपको आशा के लिये आमंत्रित करता हूँ।
मैंने
जिन बातों को आपलोगों को बतलाया है उसे अफ्रीका में लागू किया जा सकता है। आपके महादेश
में कई लोग हैं जो विभिन्न धर्मों के अनुयायी है फिर भी ये एकता बनाये रखते हैं। आज मैं
सिर्फ़ एकता की इच्छा नहीं रखता पर चाहता हूँ एक ऐसी एकता बने जो भ्रातृप्रेम के सीमेंट
से एकता में बँधी रहे। मैं इसे भी स्वीकार करता हूँ कि हम असफल हो सकते हैं पर इससे सफलता
की शक्ति कम नहीं होती। इस क्षेत्र में अफ्रीका हमे विचार करने के लिये उदाहरण दे सकती
है जो सबों के लिये आशा का श्रोत बनेगा।
अन्त में मैं हाथ के बारे में दो शब्द
कहना चाहूँगा। एक हाथ में पाँच अंगुलियाँ है जो एक-दूसरे से भिन्न हैं। सभी महत्त्वपूर्ण
हैं और उन्हें मिलाकर ही हाथ बनता है। अगर हमारे बीच में संस्कृति ककी अच्छी समझदारी
बन जाये, एक-दूसरे का सम्मान और एक-दूसरे के अधिकारों का आदर करना हमारा परम दायित्व
है।
प्रत्येक धर्म को चाहिये कि वे इस बात को अपने धर्मावलंबियों को बतायें।
घृणा असफलता है, तटस्थता गतिरोध और वार्ता सादगी है। क्या यह अच्छी ज़मीन नहीं जहाँ हम
आशा के बीज बो सकते हैं। किसी को अपना हाथ देने का अर्थ है आशा को देना और बाद में प्रेम
देना और इससे बढ़कर और हो ही क्या सकता है। ईश्वर ने सदा चाहा कि वह किसी को न मारे या
दुःख पहुँचाये पर सदा दूसरे की चिन्ता करे और मदद करे ताकि वह जीवन पाये।
आज
हमारा मन, दिल तथा अपने हाथ वार्ता के साधन बन सकते हैं। इससे आशा फलेगा फूलेगा।धर्मग्रंथ
में आशा के तीन प्रतीक चिह्न हैं हेलमेट, जो निराशा से बचाता है, लंगर, जो हमें ईश्वर
से जोड़े रखता है और दीपक जो यह बताता है कि एक नयी सुबह आयेगी।
मैं पूरी आशा
के साथ शुभकामनायें देते हुए कहता हूँ अफ्रीका पूरे आत्म विश्वास के साथ खड़े हो जाओ,
ईश्वर तुम्हे बुला रहा है। ईश्वर तुम्हें आशिष दे।