कलीसियाई दस्तावेज़ - एक अध्ययन 1 नवम्बर, 2011 अन्तरधार्मिक वार्ता एवं सद्बाव तीर्थयात्री
कलीसिया
सभी धर्मो का लक्ष्य एक है - ईश्वर तक पहुँचना, ईश्वर को प्राप्त करना या ईश्वर में एक
हो जाना। ईश्वर को प्राप्त करना अर्थात् उस सत्य को प्राप्त करना जिससे मानव को सच्ची
शांति मिले। विश्व के सभी धर्मों का दावा है कि उनके संस्थापक या गुरु के वचनों, विचारों,
कर्मों उदाहरणों एवं उस पंथ की अच्छी परंपराओं का ईमानदारी से पालन करने से व्यक्ति को
मुक्ति मिलेगी, व्यक्ति परमात्मा में एक हो जायेगा, व्यक्ति को पूर्ण संतुष्टि या सच्ची
शांति प्राप्त हो जायेगी। राम, बुद्ध, महावीर, मुहम्मद और ईसा मसीह सबों के द्वारा दिखाये
गये धर्मों का आधार - दया, करुणा, क्षमा और अहिंसा की भावना ही है। इस सत्य को कदापि
नकारा नहीं जा सकता है धर्म का प्रासाद सत्य, प्रेम और अहिंसा की नींव पर खड़ा होता है।
महाकवि इकबाल ने ठीक ही कहा है कि " मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना।"
इस
तथ्य के बावजूद धर्म के नाम पर होनेवाले संघर्षों, अत्याचारों और हिंसा के जो समाचार
रोज़ अख़बारों में छपते रहते हैं निश्चय ही धर्म शब्द कलंकित हुआ है। धर्म की रक्षा
के नाम पर कट्टर धर्मांधता या कहें धर्म के प्रति चरमपंथी विचारों ने न मालूम कितने निर्दोषों
की जानें लीं हैं, न जाने कितने उपासना गृहों को अपवित्र किया गया है, कितनी पवित्र भूमि
रक्त-रंजित हुई इसका कोई हिसाब नहीं, सब कुछ - बस भगवान के नाम पर, ज़िहाद के नाम पर,
राम के नाम पर धर्मयुद्ध के नाम पर। वैश्वीकरण के इस युग में दुनिया को जिस बुराई ने
ग्रस लिया है उनमे साम्प्रदायिकता का नाम सबसे ऊपर होगा।
साम्प्रदायिकता का
अभिप्राय है किसी समप्रदाय या धार्मिक मतवाद के प्रति इतना विचल आग्रह कि यह असहिष्णुता
को जन्म दे, अन्य धार्मिक मतों को सहन न करे, धर्म की रक्षा के नाम पर उठाये अदूरदर्शी
कदमों एवं धर्म के दिव्य वचनों की गलत या त्रुटिपूर्ण व्याख्या कर इसका औचित्य साबित
करने के लिये इस हद तक तैयार रहे कि बन पड़े तो दूसरे धर्मावलंबियों का मूलच्छेद करने
से न चूके। आज धर्म के नाम पर इतने अधर्म हुए कि की जान कर हैरानी होती है। आयरिस लेखक
जोनाथान स्विफ़्ट ने एक बार कहा था " धर्म घृणा सिखाते हैं, धर्म धर्म क्यों नहीं कराते।"
साप्रदायिकता की इस महामारी को दूर करने के लिये कई उपाय हो सकते हैं। हमें
धर्म के मूल रहस्य और लक्ष्य को समझना होगा हमें व्यापक मानव धर्म में विश्वास करना होगा
हमें नई आध्यात्मकि दृष्टि को विकसित करनी होगी।
हममें ‘सर्वधर्मसमभाव’ ‘वसुधैव
कुटुम्बकम्’ और ‘सर्वाःजनाय हिताय’ की भावना को बढ़ावा देना होगा तब ही मानव की सही प्रगति
और सच्चा कल्याण संभव हो पायेगा। काथलिक कलीसिया ने वर्षो पहले इस बात को समझते हुए
एक धर्म का दूसरे धर्म के साथ संबंध शांति स्थापना में व्यक्ति की भूमिका तथा विवादास्पद
मामलों को सुलझाने के लिये विभिन्न दस्तावेज़ों में अनेक उपाय प्रस्तुत किये हैं। हम
चाहते हैं कि वार्ता एवं सद्भाव को बढ़ावा देने के लिये काथलिक कलीसिया के उन दस्तावेज़ों
को प्रस्तुत करें जिससे एक शांतिपूर्ण विश्व की स्थापना में धर्म का योगदान अहम हो।
पिछले दिनों हमने अन्तरधार्मिक वार्ता या संबंध पर वाटिकन द्वितीय का एक दस्तावेज़
‘नोसतरा अयेताते’ अर्थात् ‘हमारे युग में’ को प्रस्तुत किया। नोस्तरा आयेताते वाटिकन
द्वितीय महासभा का वह दस्तावेज़ है जिसे संत पापा पौल षष्टम् ने 28 अक्तूबर सन् 1965
में काथलिक कलीसिया के लिये घोषित किया। इसमें इस बात की चर्चा की गयी है कि काथलिक कलीसिया
का गैर काथलिक धर्मों के साथ क्या संबंध हो।
काथलिक कलीसिया चाहती है कि ईसाई
येसु के नाम का प्रचार करें। वे बतायें कि येसु मसीह सत्य, मार्ग और जीवन हैं और उन्हीं
में दुनिया के लोग अपनी परिपूर्णता पाते हैं। इसलिये काथलिक कलीसिया ने एक और दस्तावेज़
प्रस्तुत किया है जिसे ‘डायलॉग एंड प्रोक्लामेशन’ या वार्ता एवं प्रचार के नाम से जाना
जाता है।इस दस्तावेज़ में वार्ता और सुसमाचार प्रचार के बारे में बतलाया गया है। इसमें
इस बात पर बल दिया गया है कि वार्ता और सुसमाचार प्रचार दोनों के महत्त्वपूर्ण है।
श्रोताओ,
कलीसियाई दस्तावेज़ एक अध्ययन कार्यक्रम के अंतर्गत पिछले सप्ताह हमने सुना सुसमाचार
में अंतरधार्मिक वार्ता के महत्व के बारे में। आज हम जानकारी प्राप्त करेंगे तीर्थयात्री
कलीसिया और सत्य की पूर्णता के बारे में।
36.श्रोताओ हम आपको बता दें कि कलीसिया
इस धरती पर एक तीर्थयात्री है। हालांकि वह अपनी स्थापना के द्वारा पवित्र की गयी है फिर
भी इसके सदस्यों को अपनी पूर्णता के लिये लगातार कार्य करने की आवश्यकता है। उन्हें कई
बार इस बात का आभास होता है कि उनमें मानवीय कमजोरियाँ हैं। और उन मानवीय खामियों के
कारण मुक्ति के संस्कार के रूप कलीसिया की जो छवि या चमक है वह धूमिल होती जान पड़ती
है। यही कारण है कि कलीसिया मानवीय संस्था के रूप में, न केवल इसके सदस्यों को पर पूरी
संस्था को चाहिये कि वह अपना नवीनीकरण करे और अपने गलतियों या खामियों का सुधार करे।
37.अगर आज हम दिव्य प्रकाशना की बात करें तो द्वितीय महासभा हमें इस बात की शिक्षा
देती है कि " दिव्य प्रकाशना में ईश्वर और मानव मुक्ति के बारे जो सबसे बड़ी और आत्मीय
सत्य है वह येसु मसीह ख्रीस्त हैं जो खुद ही मध्यस्थ और प्रकाशना की पूर्णता हैं। येसु
से आज्ञा पाकर चेलों ने इस प्रकाशना या ज्योति को चेलों ने दुनिया को बतलाया। फिर भी
इस बात पर ग़ौर किया जाना चाहिये कि जो कुछ प्रेरितों के द्वारा कलीसिया के सदस्यों को
बतलाया गया वह पवित्र आत्मा की कृपा से विकसित होता जाताहै। ईश्वर के बारे में सत्य की
जिन बातों को प्रेरितों ने बतलाया वह पवित्र आत्मा की कृपा से आलोकित होता रहता है।यह
कार्य धर्म के विद्वानों और उनके आध्यात्मिक अनुभवों के द्वारा विकसित होता जाता है।
धर्माध्यक्ष भी इस कार्य को आगे बढ़ाते हैं क्योंकि उन्हें भी इसकी ज़िम्मेदारी दी गयी
है। इस प्रकार अगर हम कलीसिया पर विचार करें तो हम पाते हैं कि यह सदा ही दिव्य सत्य
की ओर आग बढ़ती रहती है और ईश्वर के वचन को पूर्ण करने के लिये प्रयासरत है। और कलीसिया
का इस तरह का प्रयास किसी भी तरह से इस सत्य के विपरीत नहीं हैं कि कलीसिया एक दिव्य
संस्था है और येसु मसीह ईश्वर की पूर्ण प्रकाशना है।
38. श्रोताओ, इन कलीसिया
की इन बातों को समझने के बाद हम अन्तरधार्मिक वार्ता की बातें करें तो यह समझने में हमें
आसानी होगी कि किस तरह से वार्ता कलीसिया का एक अभिन्न हिस्सा है। श्रोताओ हम आपको यह
बता दें कि कलीसिया का अन्तरधार्मिक वार्ता के प्रति समर्पण मात्र मानवीय नहीं है पर
ईशशास्त्रीय है। ईश्वर ने आरंभ से ही चाहा कि मानव प्रत्येक व्यक्ति को मुक्ति प्रदान
करे। इसके लिये ईश्वर सदा ही हर व्यक्ति को मुक्ति में सहभाग होने के लिये आमंत्रित करता
है। ईश्वर के प्रति अपनी वफ़ादारी की प्रक्रिया में कलीसिया भी चाहती है कि वह ईश्वर
द्वारा आरंभ की गयी योजना में पूर्णतः सहभागी हो और दुनिया के हर प्राणी के साथ वार्ता
करे।
39. हम आपको बतला दें कि संत पापा पौल षष्टम् ने अपने एक दस्तावेज़ " एकलेसियाम
सुवाम " में वार्ता के बारे में स्पष्ट रूप से निर्देश दिये हैं। बाद में संत पापा जोन
पौल द्वितीय ने इसी बात पर बल देते हुए कहा कि अन्तरधार्मिक वार्ता कलीसिया का मौलिक
मिशन है जिसके तहत् कलीसिया को ईश्वरीय योजना में विभिन्न मानवीय तरीकों से सहभागी होना
है तथा प्रत्येक मानव का सम्मान करना है।
संत पापा जोन पौल द्वितीय ने अपने
दस्तावेज़ ‘अद जेन्तेस’ अर्थात् ‘राष्ट्रों के लिये’ में यह भी कहा कि अन्य लोगों के
साथ एकता के सूत्र में बँध कर येसु के अनुयायियों को चाहिये की वे येसु मसीह का साक्ष्य
दें और ऐसे स्थानों में भी मुक्ति के लिये कार्य करें जहाँ पूर्ण स्वतंत्रता से येसु
की घोषणा संभव न हो। उन्होंने कहा था कि अन्तरधार्मिक वार्ता कलीसियाई मिशन का एक अभिन्न
अंग है इसीलिये चर्च के मिशन को ‘मुक्ति के लिये वार्ता’ भी कहा जा सकता है।
कलीसियाई
दस्तावेज़ एक अध्ययन कार्यक्रम के अंतर्गत आज हमने जानकारी प्राप्त की कलीसिया के एक
तीर्थयात्री होने के बारे में। अगले सप्ताह हम जानकारी प्राप्त करेंगे पवित्र आत्मा और
पश्चात्ताप के बारे में।