2011-10-11 12:04:36

कलीसियाई दस्तावेज़ - एक अध्ययन
11 अक्तूबर, 2011
अन्तरधार्मिक वार्ता एवं सद्बाव
स्वर्ग राज्य की घोषणा


सभी धर्मो का लक्ष्य एक है - ईश्वर तक पहुँचना, ईश्वर को प्राप्त करना या ईश्वर में एक हो जाना। ईश्वर को प्राप्त करना अर्थात् उस सत्य को प्राप्त करना जिससे मानव को सच्ची शांति मिले। विश्व के सभी धर्मों का दावा है कि उनके संस्थापक या गुरु के वचनों, विचारों, कर्मों उदाहरणों एवं उस पंथ की अच्छी परंपराओं का ईमानदारी से पालन करने से व्यक्ति को मुक्ति मिलेगी, व्यक्ति परमात्मा में एक हो जायेगा, व्यक्ति को पूर्ण संतुष्टि या सच्ची शांति प्राप्त हो जायेगी।

राम, बुद्ध, महावीर, मुहम्मद और ईसा मसीह सबों के द्वारा दिखाये गये धर्मों का आधार - दया, करुणा, क्षमा और अहिंसा की भावना ही है। इस सत्य को कदापि नकारा नहीं जा सकता है धर्म का प्रासाद सत्य, प्रेम और अहिंसा की नींव पर खड़ा होता है। महाकवि इकबाल ने ठीक ही कहा है कि " मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना।"

इस तथ्य के बावजूद धर्म के नाम पर होनेवाले संघर्षों, अत्याचारों और हिंसा के जो समाचार रोज़ अख़बारों में छपते रहते हैं निश्चय ही धर्म शब्द कलंकित हुआ है।
धर्म की रक्षा के नाम पर कट्टर धर्मांधता या कहें धर्म के प्रति चरमपंथी विचारों ने न मालूम कितने निर्दोषों की जानें लीं हैं, न जाने कितने उपासना गृहों को अपवित्र किया गया है, कितनी पवित्र भूमि रक्त-रंजित हुई इसका कोई हिसाब नहीं, सब कुछ - बस भगवान के नाम पर, ज़िहाद के नाम पर, राम के नाम पर धर्मयुद्ध के नाम पर।
वैश्वीकरण के इस युग में दुनिया को जिस बुराई ने ग्रस लिया है उनमे साम्प्रदायिकता का नाम सबसे ऊपर होगा।

साम्प्रदायिकता का अभिप्राय है किसी समप्रदाय या धार्मिक मतवाद के प्रति इतना विचल आग्रह कि यह असहिष्णुता को जन्म दे, अन्य धार्मिक मतों को सहन न करे, धर्म की रक्षा के नाम पर उठाये अदूरदर्शी कदमों एवं धर्म के दिव्य वचनों की गलत या त्रुटिपूर्ण व्याख्या कर इसका औचित्य साबित करने के लिये इस हद तक तैयार रहे कि बन पड़े तो दूसरे धर्मावलंबियों का मूलच्छेद करने से न चूके।
आज धर्म के नाम पर इतने अधर्म हुए कि की जान कर हैरानी होती है। आयरिस लेखक जोनाथान स्विफ़्ट ने एक बार कहा था " धर्म घृणा सिखाते हैं, धर्म धर्म क्यों नहीं कराते।"

साप्रदायिकता की इस महामारी को दूर करने के लिये कई उपाय हो सकते हैं। हमें धर्म के मूल रहस्य और लक्ष्य को समझना होगा हमें व्यापक मानव धर्म में विश्वास करना होगा हमें नई आध्यात्मकि दृष्टि को विकसित करनी होगी।

हममें ‘सर्वधर्मसमभाव’ ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ और ‘सर्वाःजनाय हिताय’ की भावना को बढ़ावा देना होगा तब ही मानव की सही प्रगति और सच्चा कल्याण संभव हो पायेगा।
काथलिक कलीसिया ने वर्षो पहले इस बात को समझते हुए एक धर्म का दूसरे धर्म के साथ संबंध शांति स्थापना में व्यक्ति की भूमिका तथा विवादास्पद मामलों को सुलझाने के लिये विभिन्न दस्तावेज़ों में अनेक उपाय प्रस्तुत किये हैं। हम चाहते हैं कि वार्ता एवं सद्भाव को बढ़ावा देने के लिये काथलिक कलीसिया के उन दस्तावेज़ों को प्रस्तुत करें जिससे एक शांतिपूर्ण विश्व की स्थापना में धर्म का योगदान अहम हो।

पिछले दिनों हमने अन्तरधार्मिक वार्ता या संबंध पर वाटिकन द्वितीय का एक दस्तावेज़ ‘नोसतरा अयेताते’ अर्थात् ‘हमारे युग में’ को प्रस्तुत किया। नोस्तरा आयेताते वाटिकन द्वितीय महासभा का वह दस्तावेज़ है जिसे संत पापा पौल षष्टम् ने 28 अक्तूबर सन् 1965 में काथलिक कलीसिया के लिये घोषित किया। इसमें इस बात की चर्चा की गयी है कि काथलिक कलीसिया का गैर काथलिक धर्मों के साथ क्या संबंध हो।

काथलिक कलीसिया चाहती है कि ईसाई येसु के नाम का प्रचार करें। वे बतायें कि येसु मसीह सत्य, मार्ग और जीवन हैं और उन्हीं में दुनिया के लोग अपनी परिपूर्णता पाते हैं। इसलिये काथलिक कलीसिया ने एक और दस्तावेज़ प्रस्तुत किया है जिसे ‘डायलॉग एंड प्रोक्लामेशन’ या वार्ता एवं प्रचार के नाम से जाना जाता है। इस दस्तावेज़ में वार्ता और सुसमाचार प्रचार के बारे में बतलाया गया है। इसमें इस बात पर बल दिया गया है कि वार्ता और सुसमाचार प्रचार दोनों के महत्त्वपूर्ण है।

कलीसियाई दस्तावेज़ एक अध्ययन कार्यक्रम के अंतर्गत पिछले सप्ताह हमने सुना अन्य धर्मों के बारे में ख्रीस्तीय विचारों को आज हम सुनेंगे काथलिक कलीसिया की भूमिका और येसु के मिशन के बारे।

22. हम आपको बता दे कि येसु ने अपने जीवन के द्वारा दुनिया को बताया कि उनका जीवन ही ईश्वर के राज्य की घोषणा है। अपने सार्वजनिक जीवन आरंभ करते हुए गलीलिया में उन्होंने कहा, " समय आ गया है और ईश्वर का राज्य हमारे निकट है। " इस समय येसु ने उन बातों को भी बताया जो स्वर्ग राज्य में प्रवेश करने के लिये आवश्यक हैं। उन्होंने कहा " पश्चात्ताप करो और सुसमाचार पर विश्वास करो। श्रोताओ, ये बातें सिर्फ़ उनके लिये लागू नहीं होतीं हैं जिन्हें अपने को चुनी हुई प्रजा का सदस्य समझने का दावा करते हैं। येसु जब ये स्वर्ग राज्य में प्रवेश करने का आमंत्रण देते हैं तो यह विशेष रूप से ग़ैरयहूदियों के लिये ही है। यह घोषणा ऐतिहासिक होने के साथ-साथ दुनिया के अंतिम निर्णय के साथ भी जुड़ी है। यह पिता के राज्य की घोषणा है और इसके इस धरा में आने के लिये प्रार्थना करने की नितान्त आवश्यकता का आग्रह है। यह येसु का भी राज्य है क्योंकि उन्होंने खुले तौर पर यह घोषणा की वे राजा हैं। सच बात तो यह है कि ईश्वर के पुत्र येसु मसीह में प्रकाशना और मुक्ति की पूर्णता तो है ही राष्ट्रों के अंतिम आकांक्षाओं की परिपूर्णता भी है।
23. अगर हम ग़ौर से विचार करें तो हम पायेंगे कि इस संबंध में नये व्यवस्थान में ग़ैरयहूदियों के धर्मसमाजी जीवन के बारे में और उनके धार्मिक जीवन में एक प्रकार का विरोधाभास नज़र आता है पर इसे एक-दूसरे के पूरक के रूप में देखा जा सकता है।
रोमियों के नाम संत पौलुस के पत्र को ही लीजिये इसमें हम एक ओर पाते हैं कि संत पौलुस ने ग़ैरयहूदियों को उनके अविश्वास के लिये उनकी आलोचना की है तो दूसरी ओर प्रेरित चरित में प्रेरित पौल उनकी ओर खुले और सकारात्मक दृष्टि अपनाते हुए देखे जा सकते हैं। संत पौल ने लिकाउनियन्स और अथेंस में अपने भाषण में ग़ैर यहूदियों की तारीफ़ की है। इसमें उन्होंने ग़ैरयहूदियों की धार्मिक प्रवृत्ति को की तारीफ़ की है और उनसे कहा कि यह समुदाय ऐसा समुदाय है जिसने अनजाने ही जिसका सम्मान करते हैं वह " अज्ञात ईश्वर " ही हैं। उन्होंने यह भी कहा कि नये व्यवस्थान यह भी बतलाया गया है कि शब्दधारी ईश्वर येसु दुनिया के हर प्राणी को आलोकित करते हैं। ये वही येसु ख्रीस्ती हैं जिन्होंने शरीरधारण किया और हमारे बीच निवास किया।

24. इस संबंध में बाईबल के बाद की परंपराओं में भी विरोधाभाषपूर्ण बातें बतायी गयीं है। आरंभिक धर्माचार्यों के लेखों में हम ग़ैरयहूदियों के प्रति अपनाये जाने वाले नकारात्मक बातों की झलक पाते हैं। इन सबों के बावजूद इस बात को भी नकारा नहीं जा सकता है कि आरंभिक धर्माचार्यों ने उनके प्रति अपने खुल भाव को दिखाया है। अगर हम द्वितीय शताब्दी के प्रथम भाग के लेखकों जस्टिन इरेनियुस और अलेक्सांद्रिया के संत क्लेमेंट के लेखों पर चिन्तन करें तो हम पायेंगे कि उनमे अन्य राष्ट्रों में भी ईश्वरीय बीज के बोये जाने के बारे में चर्चा है। इन लेखों को पढ़ने के बाद हम इस निष्कर्ष तक आसानी से पहुँच सकते हैं कि ईश्वर ने बहुत पहले ख्रीस्तीय व्यवस्था के पूर्व ही अपूर्ण रूप से अपने आप को प्रकट किया था। इस प्रकार वर्षों पहले ‘लोगोस’ अर्थात ‘शब्द’ का प्रकट होना. येसु मसीह के पूर्ण रूप से प्रकट होने की एक झलक थी।

25. सच बात तो यह है कि आरंभिक धर्माचार्यों ने जिस बात को हमें बताया है इस ऐतिहासिक ईशशास्त्र कहा जा सकता है। ऐतिहासिक ईशशास्त्र अर्थात् जिस सीमा तक ईश्वर इतिहास के दायरे से अपने आपको प्रकट करता और मानव के साथ इसकी अभिव्यक्ति करता है यह मुक्ति इतिहास बन जाता है। और यही अभिव्यक्ति की प्रक्रिया अपनी चरम सीमा में पहुँचता है जब येसु मसीह ईश्वर का पुत्र दुनिया में शरीरधारण करता है। इसी आधार पर इरेनियुस ने ईश्वर के साथ हुए मानव व्यवस्थान को चार खंडों में देखते हैं। ईश्वर का व्यवस्थान आदम के साथ नोवा, मूसा और येसु के साथ। इसी बात पर बल देते हुए संत अगुस्टीन ने कहा था कि येसु मसीह की उपस्थिति और प्रभाव दुनिया में उनके शरीरधारण करने के पूर्व से ही व्याप्त है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि मानव इतिहास के आरंभ से ही ख्रीस्तीयता विद्यमान है।

श्रोताओ, कलीसियाई दस्तावेज़ एक अध्ययन कार्यक्रम के अंतर्गत आज हमने सुना काथलिक कलीसिया की भूमिका और येसु के मिशन के बारे। अगले सप्ताह हम सुनेंगे मानव जीवन की एकता के बारे में।










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