2011-09-24 13:35:57

पवित्र यूखरिस्तीय बलिदान में संत पापा का प्रवचन
एरफुर्त महागिरजाघर का प्रांगण
24 सितंबर, 2011


एरफुर्त, 24 सितंबर, 2011 (सेदोक,वीआर) जर्मनी की अपनी यात्रा के तीसरे दिन की शुरूआत संत पापा ने एरफुर्त के महागिरजाघर के प्रांगण में मिस्सा पूजा अर्पित करने से किया। उन्होंने अपने प्रवचन में कहा

मेरे अति प्रिय भाइयो और बहनों, सुसमाचार के पूर्व हमने एक गीत गया है ईश्वर की महिमा सदैव हो, क्योंकि वे भले हैं। यह उचित ही है कि हम ईश्वर को सारे ह्रदय से धन्यवाद दें। बहनों एवं भाईयो यहाँ थूरिनजिया और पूर्व जर्मन प्रजातांत्रिक गणतंत्र में आपको खाकी (हिटलर) और लाल (साम्यवादी) तानाशाही का सामना करना पड़ा था और ईसाई विश्वास के ऊपर एसिड या तेज़ाब की बारिस की गयी थी। उस समय जो कुछ हुआ उसके जो दुष्परिणाम हुए उसे आज भी धार्मिक और बौद्धिक स्तर पर सुलझाये जाने की आवश्यकता है।

उस अनुभव के बाद यहाँ के लोग येसु में विश्वास और कलीसियाई सामुदायिक जीवन से कट-सा गये। फिर भी विगत् दो दशक के अनुभव सुखद रहे हैः विस्तृत क्षितिज, सीमाओं के पार आदान-प्रदान, एक दृढ़ विश्वास कि ईश्वर हमारा परित्याग कभी नहीं करता और हमें सन्मार्ग में ले चलता का गहरा अनुभव किया । सच बात तो यह है कि " जहाँ ईश्वर है, वहीं भविष्य है " ।

आज हम पूरे विश्वास के साथ यह कह सकते हैं कि नयी स्वतंत्रता ने हमारे जीवन को एक नया आत्मसम्मान दिया है जिसमें नये जीवन जीने की कई संभावनायें दिखाई देतीं हैं।

अगर हम कलीसिया के नज़र से देखें तो हम पाते हैं कई बातें अब आसान हो गयी हैं, पल्लियों के क्रिया-कलाप, नवीनीकरण चर्चों और सामुदायिक केन्द्रों का विस्तार और धर्मप्रांतीय स्तर पर भी प्रेरितिक और सांस्कृतिक पहल। फिर भी मैं आप लोगों से एक प्रश्न पूछना चाहता हूँ कि क्या इनसे हमारा विश्वास बढ़ा है ? क्या आप ऐसा नहीं सोचते हैं कि ख्रीस्तीय जीवन और विश्वास की नींव को सामाजिक स्वतंत्रता से हट कर समझा जाना चाहिये?

मैं तो कहूँगा कि उन चुनौती भरे दिनों में कई समर्पित काथलिकों ने अपने येसु में अपने विश्वास और चर्च के प्रति वफ़ादारी दिखायी। इसके लिये मैं पुरोहितों और धर्मसमाजियों की सराहना करता हूँ। उन माता-पिताओं की तारीफ़ करता हूँ जिन्होंने अपने बाल-बच्चों की परवरिश की और चर्च विरोधी राजनीतिक परिस्थितियों के बावजूद उनमें काथलिक विश्वास को सुदृढ़ किया।

छुट्टियों में बच्चों के लिये धार्मिक शिक्षा सप्ताह का आयोजन एरफुर्त में ‘संत सेबास्तियन’ और हेईलिजेनसतात में मारसेन काल्लो काथलिक युवा केन्द्र के द्वारा उनके विश्वास को मजबूत किया। एइच्सफेल्ड में काथलिकों ने साम्यवादी विचारधारा का खुल कर विरोध भी किया था। इस प्रकार का साहसिक साक्ष्य और ईश्वरीय योजना में धैर्यपूर्ण आस्था दिखाना उस बीज के समान है जो निश्चिय ही भविष्य में प्रचुर फल लाता है।

भाइयो एवं बहनों, ईश्वर की उपस्थिति का आभास हम संतो में करते हैं। उनके विश्वास का साक्ष्य हमें भी आज एक नयी शुरुआत का साहस देता है। एरफुर्त के धर्मप्रांत ने कलीसिया को संत एलिजाबेथ संत बोनीफास और संत किलियन को दिये हैं। संत एलिज़ाबेथ हंगरी निवासी थी जिन्होंने प्रार्थनामय जीवन बिताया त्याग तपस्या की और खुद दरिद्र जीवन बिताते हुए एइसेनक शहर के ग़रीबों एवं ज़रूतमंदों की सेवा की और 24 की अल्पायु में ही उनकी मृत्यु हो गयी पर उसके जीवन का व्यापक प्रभाव हुआ। संत एलिज़बेथ का सम्मान न केवल काथलिक पर प्रोटेस्टंट भी किया करते हैं। आज उनका जीवन हम सबों को विश्वास की परिपूर्णता को खोजने और उसके अनुसार जीने में मदद दे सकतीं हैं।

मैं आपको यह भी बता दूँ कि एरफुर्त धर्मप्रांत की नींव सन् 742 में संत बोनीफास के द्वारा की गयी और यही है ख्रीस्तीय जीवन की नींव। मिशनरी धर्माध्यक्ष बोनीफास इंगलैंड निवासी थे जिन्हें संत पीटर के उत्तराधिकारियों के साथ कार्य करने निकट अनुभव था। उनकी मृत्यु एक शहीद के रूप में हुई और उन्हें हम ‘जर्मनी का प्रेरित’ रूप में सम्मान देते हैं। ग़ौरतलब है धर्माध्यक्ष बोनीफास के ही दो अन्य साथियों को एरफुर्त की धरती में अपने ख्रीस्तीय विश्वास के कारण शहादत मिली जिन्हें एरफुर्त के महागिरजाघर में दफ़नाया गया है वे हैं - संत एयोबन और अदेलर।

संत किलियन एक आयरिश मिशनरी थीं जिन्हें अपने दो साथियों के शहीद होना पड़ा क्योंकि उन्होंने ड्यूक ऑफ थुरिन्जिया के अनैतिक कार्यों की आलोचना की थी। हम संत सवेरुस की भी याद करें जो सवेरुस महागिरजाघर के संरक्षक हैं। वे चौथी शताब्दी में रावेन्ना के धर्माध्यक्ष थे और उनके अवशेष को सन 836 ईस्वी में एरफुर्त लाया गया।

आज हम विचार करें कि इन सभी संतों का जीवन हमारे लिये क्यों अनुकरणीय है। इन सभी संतों ने इस बात को दिखाया कि ईश्वर के साथ गहरा संबंध बना कर जीवन जीना संभव और उचित है। उन्होंने यह भी दिखाया कि ईश्वर का ही स्थान हमारे जीवन में पहला है और किसी का नहीं।

संतों ने हमें दिखाया है कि ईश्वर ने हमारे पास आने की पहल की और अपने को येसु मसीह के द्वारा प्रकाशित करना जारी रखा है। येसु हमारे बीच आये हैं और हमें आमंत्रित करते हैं कि हम उनकी अनुकरण करें। संतों ने येसु के इसी आमंत्रण का लाभ उठाया। उन्होंने येसु के साथ प्रार्थनामय संबंध स्थापित किया और येसु के दिव्य वचनों से आलोकित होकर सच्चा जीवन का मार्ग प्राप्त किया।

विश्वास की पूर्णता इसमें है कि हम इसे दूसरों को बाँटें। आज अगर मुझे धन्यवाद देना हो तो मैं ईश्वर को धन्यवाद दूँगा क्योंकि मुझे विश्वास का दान प्राप्त हुआ है और वे मेरे विश्वास को सदा प्रज्वल्लित करते रहते हैं। दूसरी ओर, व्यावहारिक रूप से मुझे उनके प्रति भी कृतज्ञ होना है जिन्होंने मेरे पूर्व विश्वास किया और जो मेरे साथ विश्वास करते हैं। जो मेरे साथ विश्वास करते हैं अर्थात चर्च के सदस्यों के बिना मेरा कोई व्यक्तिगत विश्वास नहीं हो सकता । यह कलीसिया या चर्च, राष्ट्रीय सीमाओं से बँधा नहीं है जैसा कि हमने संतों के जीवन में पाया। कोई हंगरी, इंगलैंड, आयरलैंड तो कोई इटली से यहाँ आये थे।

यहाँ विचार करने से यह बात स्पष्ट है कि आध्यात्मिक आदान-प्रदान का होना सार्वभौमिक कलीसिया के लिये स्वाभाविक बात है। अगर हम विश्वास के इतिहास और साक्ष्य पर ग़ौर करें तो जर्मनी में काथलिक विश्वास का जनमत की शक्ति रूप में एक प्रभावपूर्ण भविष्य है। हालाँकि संतों की संख्या कम ही है पर उनके जीवन हमें बताते हैं कि पवित्र जीवन, ईश्वर और मानव के प्रति उनका गहरा प्यार दुनिया को बदल सकता है।

आपको याद होगा कि आपके देश में सन् 1989 में जो राजनीतिक बदलाव आये उसके पीछे सिर्फ़ समृद्धि और स्वतंत्रता की प्रेरणा नहीं थी पर सत्य को पाने की प्रबल इच्छा ने भी निर्णायक भूमिका अदा की। ईश्वर के लिये इस प्रबल इच्छा को उन लोगों ने जीवित रखा था जो ईश्वर और लोगों की सेवा के लिये समर्पित थे, यहाँ तक कि वे अपने जान की कुर्बानी देने को भी तत्पर थे।

आज हम विश्वास को छिपाना नहीं चाहते, पर चाहते हैं कि कठिनाई से प्राप्त इस स्वतंत्रता को एक निश्चित दिशा दें। संत किलियन, संत बोनीफास, संत अदेलर संत इओबन और संत इलिज़बेथ के समान ही एकजुट होकर हम लोगों को आमंत्रित करें और सुसमाचार की पूर्णता को प्राप्त करें तब ही हम एरफुर्त के महागिरजाघर का घंटा ‘ग्लोरियोसा’ अर्थात् ‘महिमामय’ कहला पायेंगे। यह दुनिया का झूलनेवाला सबसे बड़ा मध्ययुगीन घंटा के नाम से प्रसिद्ध है।

यह ख्रीस्तीय परंपरा में हमारी गहरी नींव का जीवन्त चिह्न तो है ही, हमें मिशन को पूरी करने की प्रेरणा देता है। मिस्सा पूजा के अंत में यह घंटा फिर से एक बार हमारे मिशन का आह्वान करेगा। यह घंटा हमें प्रेरित करे ताकि हम संतों का उदाहरण जैसा ही येसु मसीह का ऐसा साक्ष्य दें जिसे लोग हमारे जीवन में देखें और सुन सकें।








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