2011-09-23 12:37:19

बर्लिनः सन्त पापा ने धर्म की उपेक्षा न करने की दी चेतावनी


बर्लिन, 23 सितम्बर सन् 2011 (सेदोक): जर्मनी की यात्रा के प्रथम दिन, बर्लिन के ऐतिहासिक राईखस्टाड भवन में, सन्त पापा बेनेडिक्ट 16 वें ने बुन्डेसटाग यानि जर्मन संसद के निचले सदन के सांसदों को सम्बोधित कर धर्म की उपेक्षा न करने की चेतावनी दी। उन्होंने जर्मन सासंदों से अनुरोध किया कि सत्ता के लिये वे नैतिकता का परित्याग न करें तथा नाज़ी ज़्यादतियों के कारण जर्मनी के इतिहास में हुई ग़लतियों से शिक्षा ग्रहण करें।

ग़ौरतलब है कि जर्मन संसद के निचले सदन के 620 सांसदों में से काथलिक कलीसिया की कुछ शिक्षाओं से असहमत लगभग 100 सांसदों ने इस समारोह का बहिष्कार कर दिया था। सांसदों के विरोध पर रोम से जर्मनी तक की यात्रा के दौरान आयोजित एक पत्रकार सम्मेलन में सन्त पापा ने कहा था, "सबको स्वतंत्रतापूर्वक अपना मत प्रकट करने की छूट है। यह स्वाभाविक है कि कुछ लोग इस यात्रा तथा काथलिक कलीसिया का विरोध करें क्योंकि आज हम धर्म के प्रति उदासीनता के युग में जीवन यापन कर रहे हैं। दूसरी ओर, यह भी नहीं भुलाया जाना चाहिये कि कुछ लोगों के विरोध के साथ साथ बहुत अधिक लोग ऐसे हैं जो मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं इसलिये अपनी मातृभूमि जाने तथा अपने जर्मन भाई बहनों के समक्ष प्रभु येसु ख्रीस्त के सुसमाचार की उदघोषणा करने के लिये मैं अत्यधिक प्रसन्न हूँ।"


जर्मनी के सांसदों को सन्त पापा बेनेडिक्ट 16 वें ने लगभग 20 मिनटों तक सम्बोधित किया। इस सम्बोधन में उन्होंने राजनीति में नैतिकता की उपेक्षा न करने, अपने इतिहास से शिक्षा ग्रहण करने तथा सबके लिये न्याय एवं शांति की स्थापना करने का सन्देश दिया। बाईबिल धर्मग्रन्थ के राजा सुलेमान का उदाहरण देकर सन्त पापा ने राजनीतिज्ञ की परिभाषा प्रस्तुत की, उन्होंने कहा, कि राजनैतिक कार्यों का लक्ष्य केवल सफलता हासिल करना या केवल भौतिक लाभ प्राप्त करना नहीं होना चाहिये...................... "राजनीति को न्याय के लिये संघर्षरत रहना चाहिये, और इसीलिये शांति निर्माण हेतु वातावरण तैयार करना भी राजनीति का मूलभूत कार्य होना चाहिये।"

सन्त पापा ने आगे कहा कि यह स्वाभाविक है कि राजनीतिज्ञ सफलता की खोज करे किन्तु इस बात के प्रति भी सचेत रहा जाना चाहिये कि सफलता भी प्रलोभनकारी हो सकती है और इस प्रकार सच को झूठ बनाने का माध्यम बन सकती है, न्याय के विनाश का साधन बन सकती है। जर्मनी के भूतपूर्व तानशाह हिटलर के शासन काल में व्याप्त अन्यायी और भ्रष्ट विचारधाराओं के सन्दर्भ में सन्त पापा ने सन्त अगस्टीन के शब्दों को उद्धृत कर कहा कि न्याय के बिना राष्ट्र क्या हो सकता है केवल डाकुओं का एक दल?
उन्होंने कहा, ".......................................हम जर्मन लोग अपने अनुभवों के आधार पर जानते हैं कि ये शब्द कोई खोखला प्रेत नहीं है। हमने ख़ुद देखा है किस प्रकार सत्ता सत्य से अलग हट गई, कैसे सत्ता ने सत्य को दरकिनार किया और उसे कुचल दिया जिससे राज्य, सत्य को कुचलने का अस्त्र बन गया, वह डाकुओं का एक सुव्यवस्थित एवं संघटित दल बन गया जिसने सम्पूर्ण विश्व को धमकाने तथा उसे विनाश के गर्त में फेंक देने का दुस्साहस किया।" इसलिये सन्त पापा ने कहा कि सत्य की सेवा करना तथा ग़लत के विरुद्ध संघर्ष करना ही राजनीतिज्ञों का मूलभूत कर्त्तव्य होना चाहिये।

सन्त पापा ने कहा कि आज के राजनीतिज्ञों के समक्ष राजा सुलेमान का ही प्रश्न बारम्बार सामने आता है और वह यह कि क्या सही है और क्या ग़लत? उन्होंने कहा कि अधिकांश व्यावाहारिक बातों में विधान और कानून के अन्तर्गत रहकर समाधान ढूँढ़ा जा सकता है किन्तु मानवीय आयाम को यदि देखा जाये तो यह मापदण्ड पर्याप्त नहीं है। उन्होंने कहा यह स्पष्ट है कि उन विषयों पर जिनसे मानव प्रतिष्ठा एवं मानवता का प्रश्न जुड़ा है यह मापदण्ड पर्याप्त नहीं है। सन्त पापा ने स्मरण दिलाया कि इतिहास में, कानून निकाय आरम्भ ही से धर्म पर आधारित रहे हैं। तथापि, ख्रीस्तीय धर्म ने कभी भी राज्य अथवा समाज के कानूनी निकाय का प्रस्ताव नहीं किया, इसके विपरीत उसने प्रकृति एवं तर्कणा की ओर इंगित किया और ऐसा कर इस तथ्य पर बल दिया कि अन्तत- सबकुछ सृष्टिकर्त्ता ईश्वर में मूलबद्ध है।

सन्त पापा ने कहा, ................."इस बिन्दु पर यूरोप की सांस्कृतिक धरोहर हमारी सहायता कर सकती है। यह विश्वास कि सृष्टिकर्त्ता का अस्तित्व है, मानवाधिकार के विचार, कानून के आगे सब लोगों में समानता के विचार, प्रत्येक व्यक्ति की मानव प्रतिष्ठा को मान्यता के विचार तथा लोगों के कार्यों की ज़िम्मेदारी के विचार का उदय हुआ। हमारी स्मृति इन्हीं विचारों में पोषित हुई है इसलिये इन विचारों की उपेक्षा करना अथवा दकियानूसी बताकर उनका बहिष्कार कर देना यूरोप की संस्कृति को छिन्न भिन्न करना होगा।" सन्त पापा ने कहा कि यूरोप की संस्कृति जैरूसालेम, आथेन्स और रोम के संगम से पोषित हुई है। इसी संगम ने उसे उसकी अस्मिता और पहचान दी है इसलिये ईश्वर के समक्ष मानव की ज़िम्मेदारियों के प्रति सचेत रहकर, इतिहास के इस निर्णायक क्षण में हमारा आह्वान किया जाता है कि हम इन्हीं मानवीय मूल्यों को प्रोत्साहित करें और इनकी रक्षा के प्रति समर्पित रहें।"








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