2011-05-01 12:55:41

वाटिकन सिटीः संक्षेप में सन्त पापा जॉन पौल द्वितीय का जीवन एवं मिशन


वाटिकन सिटी, 01 मई सन् 2011 (सेदोक): ईश्वरीय करुणा को समर्पित रविवार से पूर्व, शनिवार, दो अप्रैल सन् 2005 को सन्ध्या नौ बजकर 37 मिनट पर, 27 वर्षों तक विश्वव्यापी काथलिक कलीसिया के परमाध्यक्ष रहे, हमारे प्रिय मेषपाल सन्त पापा जॉन पौल द्वितीय ने इस धरती का परित्याग कर अनन्त जीवन की ओर प्रस्थान किया था। लाखों की तादाद में रोम शहर एवं वाटिकन के इर्द गिर्द एकत्र होकर प्रार्थना में हम सब उनकी इस अन्तिम तीर्थयात्रा में शामिल हुए थे और आज उनकी धन्य घोषणा के लिये, एक बार फिर, लाखों की ही तादाद में हम, देश विदेश से रोम में एकजुट हुए हैं।

18 मई सन् 1920 को पोलैण्ड के वादोविट्स नगर में, कारोल जोसफ वोईतिवा नाम से आदरणीय सन्त पापा जॉन पौल द्वितीय का जन्म हुआ था। 16 अक्तूबर 1978 से दो अप्रैल सन् 2005 तक आप सार्वभौमिक काथलिक कलीसिया के परमाध्यक्ष थे। लगभग चार शताब्दियों बाद कलीसिया के परमाध्यक्ष के पद पर नियुक्त होनेवाले आप पहले ग़ैर इताली सन्त पापा थे। काथलिक कलीसिया के 264 वें परमाध्यक्ष रूप में सन्त पापा जॉन पौल द्वितीय ने कलीसिया एवं सम्पूर्ण मानवजाति के वक्षस्थल पर वह अमिट छाप छोड़ी है जो सदियों तक मिट नहीं पायेगी।

सन्त पापा जॉन पौल द्वितीय का परमाध्यक्षीय काल कलीसियाई इतिहास के सर्वाधिक दीर्घ कालों में से एक था। उनके परमाध्यक्षीय काल के दौरान ही, विभिन्न आयामों के अन्तर्गत, विश्व अनेक अभूतपूर्व परिवर्तनों का साक्षी बना। सम्भवतः इसीलिये, सन्त पापा जॉन पौल द्वितीय 20 वीं सदी के सबसे प्रभावशाली नेताओं में से एक के रूप में विख्यात हो गये हैं। सन्त पापा जॉन पौल द्वितीय को पहले अपनी मातृभूमि और फिर सम्पूर्ण पूर्वी यूरोप में साम्यवाद को समाप्त करने का श्रेय दिया जाता है। साम्यवाद को ख़त्म करने के अतिरिक्त आपने कड़े शब्दों में पूंजीवाद की ज्यादतियों की भी निंदा की थी।

यहूदी धर्म, इस्लाम धर्म, पूर्वी ऑरथोडोक्स ख्रीस्तीयों तथा एंगलिकन कलीसिया के साथ काथलिक कलीसिया के सम्बन्धों को सुधारने में भी सन्त पापा जॉन पौल द्वितीय ने बेजोड़ भूमिका निभाई थी। जीवन सम्बन्धी कलीसिया की धर्मशिक्षा को अक्षुण रखने के लिये जॉन पौल द्वितीय तथाकथित प्रगतिवादियों की आलोचना का भी शिकार बने किन्तु साथ ही द्वितीय वाटिकन महासभा के सुधारों को प्रोत्साहित करने के लिये उन्हें परम्परावादियों के कटाक्षों का भी निशाना बनना पड़ा।

तथापि, इन आलोचनाओं की परवाह किये बिना सन्त पापा जॉन पौल द्वितीय अथक मिशनरी उत्साह एवं अदभुत ऊर्जा के साथ, उदार हृदय से, अपनी परमाध्यक्षीय प्रेरिताई का निर्वाह करते रहे। अपने किसी भी पूर्वाधिकारी से अधिक वे ईश प्रजा मिले, राष्ट्राध्यक्षों, राजनीतिज्ञों तथा विभिन्न कार्यक्षेत्रों के विश्व नेताओं से बातचीत कर उन्होंने विश्व को न्याय एवं शांति से परिपूर्ण स्थल बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

13 मई सन् 1981 को सन्त पेत्रुस महागिरजाघर के प्राँगण में वे जानलेवा हमले के शिकार बने किन्तु माँ मरियम के ममतामयी संरक्षण में उन्होंने पुनः स्वास्थ्यलाभ प्राप्त किया तथा अपने हमलावरों को माफ कर दिया। नये जीवन के लिये कृतज्ञ सन्त पापा जॉन पौल द्वितीय ने वीरोचित उदारता एवं समर्पण के साथ अपनी प्रेरिताई को सघन कर दिया। इसी मिशन के तहत उन्होंने अपने परमाध्यक्षीय काल के दौरान विश्व के 129 राष्ट्रों में प्रेरितिक यात्राएँ कीं। अपनी मातृभाषा पोलिश के अतिरिक्त सन्त पापा जॉन पौल द्वितीय इतालवी, फ्रेंच, जर्मन, अंग्रेजी, स्पेनिश, पुर्तगाली, यूक्रेनी, रूसी, क्रोएशियाई, एस्पेरान्तो, प्राचीन ग्रीक और लैटिन के ज्ञाता थे।

पवित्रता के प्रति अपनी विशिष्ट बुलाहट के चलते ही उन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान 1,340 प्रभु सेवकों को धन्य एवं 483 धन्य आत्माओं को सन्त घोषित किया ताकि हमारे युग के स्त्री पुरुषों को पवित्रता में बढ़ने हेतु प्रेरणा मिलती रहे। उनके पूर्ववर्ती सन्त पापा पाँच शताब्दियों में भी इस संख्या को पार नहीं कर पाये थे। कार्डिनलमण्डल का भी आपने विस्तार किया तथा कुल मिलाकर 232 कार्डिनलों की नियुक्ति की। 15 विश्व धर्माध्यक्षीय सभाएँ बुलाई तथा अनेक धर्मप्रान्तों की रचना की जिनमें पूर्वी यूरोप के धर्मप्रान्त उल्लेखनीय हैं।

सन्त पापा जॉन पौल द्वितीय के नेतृत्व में ही काथलिक कलीसिया ने तृतीय सहस्राब्दि में प्रवेश किया तथा येसु मसीह की दो हज़ारवीं जयन्ती मनाई। "नवीन सहस्राब्दि की ओर" शीर्षक से प्रकाशित सन्त पापा जॉन पौल द्वितीय के प्रेरितिक पत्र के साथ ही कलीसिया 21 वीं सदी के नवयुग की ओर अभिमुख हुई। काथलिक विश्वास के अद्वितीय रखवाले, सन्त पापा जॉन पौल द्वितीय विवेक, प्रज्ञा एवं साहस के साथ काथलिक, धर्मतत्ववैज्ञानिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक धर्मसिद्धान्तों को प्रोत्साहित करने के लिये सदैव समर्पित रहे। उनके द्वारा रचित 14 विश्व पत्र, 15 प्रेरितिक उदबोधन, 11 प्रेरितिक संविधान तथा 45 प्रेरितिक पत्र युगयुग तक काथलिक कलीसिया एवं ख्रीस्तीय धर्मानुयायियों के लिये मार्गदर्शन का स्रोत बने रहेंगे।










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