2011-05-01 13:16:03

धन्य संत पापा जोन पौल द्वितीय के जीवन की पारिवारिक पृष्टभूमि तथा रोम में आयोजित उनकी धन्य घोषणा समारोह पर एक विशेष कार्यक्रम


श्रोताओ, स्वर्गीय संत पापा जोन पौल द्वितीय ने काथलिक कलीसिया के 264 वें परमाध्यक्ष के रूप में 26 सालों तक ईसाइयों का मार्गदर्शन किया और विश्व समुदाय को अपनी अद्वितीय सेवायें प्रदान कीं। विश्व ने 16 अक्तूबर सन् 1978 से जिन्हें संत पापा जोन पौल द्वितीय के नाम से जाना उनके बचपन का नाम था करोल जोजफ वोयतिवा। उनके पिता का नाम था करोल वोयतिवा और माता का नाम था एमिलिया ककजोरोस्का।
करोल जोसेफ वोयतिवा का जन्म पोलैंड के कराकोव शहर से 50 किलोमीटर दूर वादोविचे नामक एक छोटे-से शहर में 18 मई सन् 1920 को हुआ था। उन्हें 20 जून सन् 1920 को वाडोविचे पारिस के पल्ली पुरोहित फ्रांचिसेक ज़ाक ने बपतिस्मा दिया। 9 वर्ष की आयु में उन्होंने परमप्रसाद संस्कार ग्रहण किया और जब 18 वर्ष के हुए तो उन्हें दृढ़ीकरण संस्कार दिया गया।
उनकी हाईस्कूल की पढ़ाई वाडोविचे के ही मरचिन वादविता स्कूल में हुई। हाईस्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने कराकोव जजीलियोनियन महाविद्यालय और एक नाट्य विद्यालय में प्रवेश किया।
जोन पौल द्वितीय अपने परिवार में सबसे छोटे थे। वे जब 9 साल के थे उसी समय उनकी माता की मृत्यु हो गयी, जब 12 साल के हुए उस समय उनके बड़े भाई एडमंड की मृत्यु हो गयी और जब वे 21 वर्ष के थे तो उनके पिता का निधन हो गया। उनकी दीदी ओलगा की मृत्यु तो उनके जन्म के पूर्व ही हो गयी थी।
सन् 1939 में नाज़ियों ने महाविद्यालय को बन्द करा दिया तब उन्होंने चार वर्षों तक खदान में और सोलवाय रसायन फैक्टरी में कार्य किया। इसी दौरान उन्होंने अपने दिल में पौरोहित्य बुलाहट का अनुभव किया। उन्होंने सन् 1942 में क्रकाव के सेमिनरी में गुप्त रूप से प्रशिक्षण लेना और अध्ययन आरम्भ किया तथा 1 नवम्बर सन् 1946 ईस्वी को कार्डिनल अडम स्टेफन सफीहा ने उन्हें पुरोहित अभिषिक्त किया।
पुरोहिताभिषेक के तुरन्त बाद वे आगे की पढ़ाई के लिये रोम भेजे गये। उन्होंने क्रूस के संत योहन पर अपना शोध कार्य किया और सन् 1948 में ईशशास्त्र में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की।
अपने अध्ययनकाल में जब भी उन्हें फुर्सत मिलती तो वे फ्रांस, बेल्ज़ियम और होलैंड के पोलिस प्रवासियों के लिये कार्य किया करते थे। वे सन् 1948 ईस्वी में पोलैंड वापस आये और कराकव की पल्लियों में प्रेरितिक सेवा अर्पित करते हुए गुरूकुलों में अध्यापन का काम करते रहे।
उन्हें संत पापा पीयुस बारहवें ने 4 जुलाई सन् 1958 को क्राकाओ का सहयोगी धर्माध्यक्ष बनाया। छः वर्ष बाद 13 जनवरी 1964 को संत पापा पौल षष्ठम ने उन्हें क्रकाओ का महाधर्माध्यक्ष नियुक्त किया तथा 26 जून 1967 को उन्हें कार्डिनल बनाने की घोषणा की।
महाधर्माध्यक्ष करोल वोयतिवा ने वाटिकन द्वितीय महासभा में हिस्सा लिया। 16 अक्तूबर सन् 1978 को कार्डिनल मंडल ने संत पापा जोन पौल प्रथम की मृत्यु के बाद उन्हें संत पापा चुना और करोल वोयतिवा ने अपना नाम जोन पौल द्वितीय रखा।
संत पापा जोन पौल द्वितीय ने 26 वर्षों तक काथलिक कलीसिया के परमाध्यक्ष के रूप में अपने विश्वपत्रों तथा प्रवचनों के द्वारा काथलिक विश्वासियों का मार्गदर्शन किया।
युवाओं के सामने प्रस्तुत अतिआधुनिकता की चमक, क्षणिक आनन्द और अर्द्धसत्य के प्रलोभनों के बीच विश्व युवा दिवस समारोहों के माध्यम से उन्हें ईश्वर, सत्य और अमर आनन्द की खोज के लिए मार्गदर्शन दिया।
उन्होंने अंतर धार्मिक वार्ताओं के माध्यम से विभिन्न धर्मों के विश्वासियों को एकता के सूत्र में बाँधने का सफल प्रयास किया। विश्व में मानवीय प्रतिष्ठा, मानवाधिकारों, विश्वास आधारित जीवन, शांति, न्याय और भाईचारा का प्रसार करने के लिए अथक प्रयास किया।
उन्होंने पार्किनसन बीमारी से पीडित होने के बावजूद जीवन के अंतिम समय तक सबको मसीही विश्वास तथा आशा से पूर्ण जीवन जीने का संदेश दिया। उनका निधन 2 अप्रैल 2005 को हो गया। उनके व्यक्तित्व और धार्मिकता से प्रभावित होकर लोगों ने 8 अप्रैल 2005 को आयोजित उनकी अंत्येष्टि धर्मविधि के समय ही उन्हें शीघ्र संत घोषित करने का नारा लगाया था तथा बैनर ले रखे थे।
सामान्य तौर पर मसीही विश्वास का वीरोचित साक्ष्य देने और पवित्र जीवन जीने वाले किसी काथलिक विश्वासी की धन्य और संत घोषणा प्रक्रिया शुरू करने के लिए जाँच प्रक्रिया व्यक्ति के निधन के 5 वर्षों बाद ही आरम्भ की जा सकती है लेकिन संत पापा जोन पौल द्वितीय के प्रकरण में संत पापा बेनेडिक्ट 16 वें ने 28 अप्रैल 2005 को ही विशेष छूट की घोषणा की। रोम धर्मप्रांत के तात्कालीन प्रति धर्माध्यक्ष कार्डिनल कामिल्लो रूईनी ने 28 जून 2005 को आधिकारिक रूप से इस प्रकरण में जाँच प्रकिया शुरू की थी।
श्रोताओ 1 मई 2011 को काथलिक कलीसिया ने रोम में आयोजित एक भव्य समारोह में संत पापा जोन पौल द्वितीय को धन्य घोषित कर वेदी का सम्मान प्रदान किया।








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