कलीसियाई दस्तावेज़ - एक अध्ययन 22 मार्च, 2011 संत पापा जोन पौल द्वितीयः जीवन
व संदेश इंदिरा गाँधी स्टेडियम, दिल्ली में संत पापा जोन पौल द्वितीय का प्रवचन
(1 फरवरी, 1986 शनिवार)
अति सम्माननीय पोप जोन पौल द्वितीय 1 मई सन् 2011 को रोम में आयोजित एक भव्य समारोह धन्य
घोषित किये जायेंगे। भारतवासियों के लिये तो यह साल दोहरी खुशी लेकर आया है क्योंकि आज
से 25 साल पहले सन् 1986 ईस्वी में संत पापा जोन पौल द्वितीय भारत की पावन भूमि पर अपनी
ऐतिहासिक प्रेरितिक यात्रा की थी। उनकी धन्य घोषणा समारोह के अवसर पर रोम के संत
पेत्रुस महागिरजाघर प्रांगण में होने वाले विभिन्न कार्यक्रमों की तैयारियाँ अपनी चरमसीमा
पर है। आशा की जा रही है कि लाखों लोग इस समारोह का साक्ष्य देने के लिये उपस्थित होंगे।
प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद 20वीं सदी के अति शक्तिशाली एवं प्रभावकारी नेताओं
के रूप में विख्य़ात कारोल जोजेफ वोयतिवा से संत पापा जोन पौल द्वितीय बने, प्रथम पोलिस
पोप ने काथलिक कलीसिया के 264वें महाधर्मगुरु के रूप में 26 सालों तक के ईसाइयों का नेतृत्व
एवं मार्गदर्शन किया तथा विश्व समुदाय को अपनी अद्वितीय सेवायें प्रदान कीं। कलीसियाई
दस्तावेज़ बतलाते हैं संत पापा पीयुस नवें के बाद संत पापा जोन पौल द्वितीय ही ऐसे संत
पापा रहे जिन्होंने कलीसिया की सेवा लम्बे समय तक की। यह भी स्मरण रहे कि सन् 1520 ईस्वी
में डच निवासी संत पापा अद्रियन छठवें के बाद करोल जोजेफ वोयतिला को ग़ैरइतालवी संत पापा
बनने का गौरव प्राप्त हुआ। विश्वास किया जाता है कि उन्होंने अपने देश पोलैंड में
साम्यवाद का अंत कराने में विशेष भूमिका निभायीं और बाद में इसकी जो लहर फैली उससे पूरे
विश्व में ही दूरगामी परिवर्तन आये।एक के बाद एक पूरे यूरोप ने ही साम्यवाद को अलविदा
कहा। संत पापा जोन पौल के प्रयासों से ही एक ओर काथलिक कलीसिया का यहूदियों के साथ
संबंध बेहतर हुआ तो दूसरी ओर पूर्वी ऑर्थोडोक्स कलीसिया और अंगलिकन कलीसियाओं के साथ
भी आपसी रिश्ते सौहार्दपूर्ण हुए। वैसे संत पापा जोन पौल द्वितीय को कई लोगों ने
उनके गर्भनिरोध का विरोध, महिलाओं के अभिषेक के प्रति कड़े विचार, वाटिकन द्वितीय महासभा
का जोरदार समर्थन और धर्मविधि में सुधार के लिये आलोचनायें कीं हैं, पर अधिकतकर लोगों
ने उनकी दृढ़ता और काथलिक तथा मानवीय मूल्यों के प्रति उनके विचारों की स्थिरता की तारीफ़
में खुल कर की है। संत पापा जोन पौल द्वितीय विश्व के उन प्रभावशाली नेताओं में से
एक है जो विभिन्न भाषाओं के ज्ञाता थे। आप पोलिस के अलावा इतालवी, इंगलिश, फ्रेंच, जर्मनी,
स्पैनिश पोर्तुगीज उक्रेनियन रूसी क्रोएशियन एसप्रेरान्तो प्राचीन ग्रीक और लैटिन के
ज्ञाता थे। आपने 104 प्रेरितिक यात्रायें की और 129 राष्ट्रों के दौरे किये 738 राष्ट्राध्यक्षों
से मिले और की 246 प्रधानमंत्रियों से भेंट की और करीब 17 करोड़ 60 लाख लोगों ने उसके
आम दर्शन समारोह में हिस्सा लिया। सम्माननीय संत पापा जोन पौल द्वितीय ने अपने कार्यकाल
में 1338 लोगों धन्य और 482 लोगों को संत घोषित किया। उनके संदेशों से समग्र विश्व
लाभान्वित हुआ है। एक ओर युवाओं में नयी शक्ति जागी, परिवारिक मूल्य मजबूत हुए शांति
तो दूसरी ओर अन्तरधार्मिक वार्ता के प्रयासों को बल प्राप्त हुआ। हमारा विश्वास है कि
उनके जीवन से हमें भी शांतिपूर्ण सहअस्तित्व और अर्थपूर्ण जीवन की जीने की प्रेरणायें
मिलेगी। संत पापा के वाणी आज भी उतनी ही अर्थपूर्ण, तेज और प्रासंगिक है। उनके भारत
आगमन की 25वीँ वर्षगाँठ और उनके धन्य घोषणा वर्ष के अति पावन अवसर पर हम इन दिनों संत
पापा के संदेशों को आप तक लगातार पहुँचाते रहेंगे। पिछले सप्ताह हमने संत पापा के
उस संदेश के उस मुख्यांश को जिसे उन्होंने अपनी भारत यात्रा के दौरान दिल्ली के राजघाट
मे दिया था। आज हम सुनेंगे संत पापा के उस प्रवचन को जिसे उन्होंने दिल्ली के इंदिरा
गाँधा स्टेडियम में आयोजित यूखरिस्तीय बलिदान में दिया था। मेरे अति प्रिय भाइयों
एवं बहनों, येसु ख्रीस्त आज हमसे कह रहें हैं " मैं ही मार्ग सत्य और जीवन हूँ।" भारत
की इस पवित्र भूमि में जहाँ ईश्वरीय जनता निवास करती है मैं अपनी तीर्थयात्रा के आरंभ
में येसु के इन्हीं शब्दों को दुहराना चाहता हूँ। येसु की ये बातें इस बात की ओर
इंगित करतीं हैं कि हम अपनी तीर्थयात्रा विश्वास के साथ करें। जब हम विश्वास के साथ ईश्वर
को पाने के लिये तीर्थयात्रा करते हैं तो हम अपने मार्ग में येसु मसीह को प्राप्त करते
हैं। प्रभु येसु ईश्वर के पुत्र है और उनमें वही तत्त्व है जो ईश्वर में हैं। वे
ईश्वर से ईश्वर और प्रकाश से प्रकाश बन कर मनुष्य बने ताकि वे हमारे लिये मार्ग बन सकें।
उन्होंने अपने पिता से लगातार बातें कीं हैं। कई अर्थों में उन्होंने ईश्वर की पितृत्व
की समझाने का प्रयास किया। इस बात को हम उसके द्वारा सिखायी गयी प्रार्थना में पाते हैं
जिसे उन्होंने अपने शिष्यों को सिखाया।अपनी मृत्यु के पूर्व उन्होंने कहा था " मेरे पिता
के घर में कई कमरे हैं, अगर ऐसा नहीं होता तो क्या मैं ऐसा कर सकता था कि मैं आपके लिये
कमरे तैयार करने जा रहा हूँ ? " भाइयों एवं बहनों यदि सुसमाचार इस बात को बताती
है कि मानव जीवन पिता के घर पहुँचने की तीर्थयात्रा है तो यह सचमुच विश्वास की ही यात्रा
है। हम एक तीर्थयात्री के रूप में यात्रा करते हैं और येसु हमसे कह रहे हैं " मैं मार्ग
सत्य और जीवन हूँ। " मैं आप लोगों को बताना चाहता हूँ कि मानव जीवन एक तीर्थयात्रा
ही है। हम इस बात से ठीक से अवगत हैं कि हमें इस दुनिया से होकर गुज़रना है। मानव अपना
जीवन आरंभ करता है जो मृत्यु तक जारी रहता है। इस तीर्थयात्रा में धर्म मानव को मदद
देता है ताकि वह अपने लक्ष्य तक पहुँच सके। मानव अपने जीवन में इस बात का सदा अनुभव करता
है कि उसे इस दुनिया से आगे जाना है। मानव की इस यात्रा में उसका विश्वास उसे ईश्वर
की ओर जाने के लिये प्रेरित करता है और उसे उन निर्णयों को लेने में मदद देता है जिससे
वह अनन्त जीवन प्राप्त कर सके। इसी लिये मानव जीवन का प्रत्येक क्षण महत्त्वपूर्ण
है। मानव जीवन की प्रत्येक चुनौती और चुनाव महत्त्वपूर्ण है। काथलिक कलीसिया इस बात
की घोषणा करती है कि इस तीर्थयात्रा में मानव को पूर्ण सम्मान, स्नेह और सहायता दी जानी
चाहिये ताकि वह अनन्तकाल तक जीवित रह सके। इस संबंध में बोलते हुए संत पौल कहते हैं
कि जो भी सत्य है, जो भी सम्माननीय है, उत्तम, न्यायसंगत, शुद्ध, प्यारा, शुभ और प्रशंसनीय
है हमें ऐसी बातों के बारे चिन्तन करनी चाहिये। इस तथ्य की चेतना भारत में बहुत
ही गहरी है। भारत के आचार्यों ने इस चिन्तन का बख़ान करते हुए कहा कि मानव की आत्मा,
परमात्मा को पाने के लिये व्याकुल रहती है। मनुष्य की इसी तीव्र इच्छा को कई पर्व-त्योहारों
की धर्मविधियों में प्रकट किया जाता रहा है। बाईबल के पुराने व्यवस्थान में इस बात
की चर्चा है कि मानव इस दृश्य संसार में निवास करता है पर सदा ईश्वर की उपस्थिति के प्रति
सचेत है। दुनिया की चुनौतियों और दुःखों के बीच मानव इसी ईश्वर के लिये सदा तरसता रहता
है। स्तोत्र रचयिता के अनुसार व्यक्ति ईश्वर को वैसा ही खोजता है जैसे हिरण जल के
लिये तरसता है। वह ईश्वर को आमने-सामने देखना चाहता है। जिस तरह से मानव ईश्वर के लिये
तरसता है उसी तरह ईश्वर भी अपने जीवन को मानव को प्रकट करने के लिये तत्पर रहता है।
ईश्वर ने प्रभु येसु में अपने को प्रकट किया है। इसके साथ ईश्वर ने येसु के द्वारा
अपने प्रेम को प्रकट किया है जो माता मरिया से जन्मे ताकि दुनिया के लोग ईश्वर को पहचान
सकें। हम ईश्वर तक सत्य के सहारे पहुँच सकते हैं और सत्य येसु हैं इसलिये हम येसु
के सहारे ईश्वर तक पहुँच पायेंगे। इस तरह मंजिल तक पहुँच कर हम अनन्त जीवन को प्राप्त
करेंगे। यूखरिस्तीय बलिदान इस तीर्थयात्रा के लिये सबसे महत्त्वपूर्ण संस्कार है जिससे
हम परिपोषित होते और मानव तथा दूतों के साथ एक हो जाते हैं। आपने आज जानकारी प्राप्त
की संत पापा जोन पौल द्वितीय के द्वारा भारत की यात्रा के दौरान दिल्ली के इंदिरा गाँधी
स्टेडियम में आयोजित यूखरिस्तीय बलिदान में दिये गये प्रवचन के बारे में। अगले सप्ताह
हम जानकारी प्राप्त करेंगे धर्माध्यक्षों को दिये गये संत पापा जोन पौल द्वितीय के संदेश
के बारे में।