2011-03-01 20:21:09

कलीसियाई दस्तावेज़ - एक अध्ययन
1 मार्च, 2011
संत पापा जोन पौल द्वितीयः जीवन व संदेश
पारिवारिक पृष्ठभूमि


अतिसम्मानीय पोप जोन पौल द्वितीय 1 मई सन् 2011 को रोम में आयोजित एक भव्य समारोह धन्य घोषित किये जायेंगे। भारतवासियों के लिये तो यह साल दोहरी खुशी लेकर आया है क्योंकि आज से 25 साल पहले सन् 1986 ईस्वी में संत पापा जोन पौल द्वितीय भारत की पावन भूमि पर अपनी ऐतिहासिक प्रेरितिक यात्रा की थी।
उनकी धन्य घोषणा समारोह के अवसर पर रोम के संत पेत्रुस महागिरजाघर प्रांगण में होने वाले विभिन्न कार्यक्रमों की तैयारियाँ अपनी चरमसीमा पर है। आशा की जा रही है कि लाखों लोग इस समारोह का साक्ष्य देने के लिये उपस्थित होंगे।
प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद 20वीं सदी के अति शक्तिशाली एवं प्रभावकारी नेताओं के रूप में विख्य़ात कारोल जोजेफ वोयतिला से संत पापा जोन पौल द्वितीय बने, प्रथम पोलिस पोप ने काथलिक कलीसिया के 264वें महाधर्मगुरु के रूप में 26 सालों तक के ईसाइयों का नेतृत्व एवं मार्गदर्शन किया तथा विश्व समुदाय को अपनी अद्वितीय सेवायें प्रदान कीं।
कलीसियाई दस्तावेज़ बतलाते हैं संत पापा पीयुस नवें के बाद संत पापा जोन पौल द्वितीय ही ऐसे संत पापा रहे जिन्होंने कलीसिया की सेवा लम्बे समय तक की। यह भी स्मरण रहे कि सन् 1520 ईस्वी में डच निवासी संत पापा अद्रियन छठवें के बाद करोल जोजेफ वोयतिला को ग़ैरइतालवी संत पापा बनने का गौरव प्राप्त हुआ।
विश्वास किया जाता है कि उन्होंने अपने देश पोलैंड में साम्यवाद का अंत कराने में विशेष भूमिका निभायीं और बाद में इसकी जो लहर फैली उससे पूरे विश्व में ही दूरगामी परिवर्तन आये।एक के बाद एक पूरे यूरोप ने ही साम्यवाद को अलविदा कहा।
संत पापा जोन पौल के प्रयासों से ही एक ओर काथलिक कलीसिया का यहूदियों के साथ संबंध बेहतर हुआ तो दूसरी ओर पूर्वी ऑर्थोडोक्स कलीसिया और अंगलिकन कलीसियाओं के साथ भी आपसी रिश्ते सौहार्दपूर्ण हुए।
वैसे संत पापा जोन पौल द्वितीय को कई लोगों ने उनके गर्भनिरोध का विरोध, महिलाओं के अभिषेक के प्रति कड़े विचार, वाटिकन द्वितीय महासभा का जोरदार समर्थन और धर्मविधि में सुधार के लिये आलोचनायें कीं हैं, पर अधिकतकर लोगों ने उनकी दृढ़ता और काथलिक तथा मानवीय मूल्यों के प्रति उनके विचारों की स्थिरता की तारीफ़ में खुल कर की है।
संत पापा जोन पौल द्वितीय विश्व के उन प्रभावशाली नेताओं में से एक है जो विभिन्न भाषाओं के ज्ञाता थे। आप पोलिस के अलावा इतालवी, इंगलिश, फ्रेंच, जर्मनी, स्पैनिश पोर्तुगीज उक्रेनियन रूसी क्रोएशियन एसप्रेरान्तो प्राचीन ग्रीक और लैटिन के ज्ञाता थे। आपने 104 प्रेरितिक यात्रायें की और 129 राष्ट्रों के दौरे किये 738 राष्ट्राध्यक्षों से मिले और की 246 प्रधानमंत्रियों से भेंट की और करीब 17 करोड़ 60 लाख लोगों ने उसके आम दर्शन समारोह में हिस्सा लिया।
सम्माननीय संत पापा जोन पौल द्वितीय ने अपने कार्यकाल में 1338 लोगों धन्य और 482 लोगों को संत घोषित किया।
उनके संदेशों से समग्र विश्व लाभान्वित हुआ है। एक ओर युवाओं में नयी शक्ति जागी परिवारिक मूल्य मजबूत हुए शांति तो दूसरी ओर अन्तरधार्मिक वार्ता के प्रयासों को बल प्राप्त हुआ। हमारा विश्वास है कि उनके जीवन से हमें भी शांतिपूर्ण सहअस्तित्व और अर्थपूर्ण जीवन की जीने की प्रेरणायें मिलेगी।
संत पापा के वाणी आज भी उतनी ही अर्थपूर्ण, तेज और प्रासंगिक है। उनके भारत आगमन की 25वीँ वर्षगाँठ और उनके धन्य घोषणा वर्ष के अति पावन अवसर पर हम इन दिनों संत पापा के संदेशों को आपतक लगातार पहुँचाते रहेंगे।


आज हम आपके लिये प्रस्तुत करते हैं संत पापा जोन पौल द्वितीय के जीवन की पारिवारिक पृष्टभूमि के बारे में।
जिन्हें पूरे विश्व ने अक्तूबर सन् 1978 से संत पापा जोन पौल द्वितीय के नाम से जाना उनके बचपन का नाम था करोल जोजफ वोयतिवा। उनका जन्म पोलैंड की राजधानी कराकोव से 50 किलोमीटर दूर वादोविचे नामक एक छोटे-से शहर में 18 मई सन् 1920 को हुआ था।
जोन पौल द्वितीय अपने परिवार में सबसे छोटे थे। उनके पिता का नाम था करोल वोयतिवा और माता का नाम था एमिलिया ककजोरोस्का।
जब जोन पौल 9 साल के थे उसी समय उनकी माता मृत्यु हो गयी जब 12 साल के थे उस समय उनके बड़े भाई एडमंड की मृत्यु और जब 21 वर्ष के थे तो उनके पिता की छाया भी उनके ऊपर से चली गयी। उनकी दीदी ओलगा की मृत्यु तो उनके जन्म के पूर्व ही हो गयी थी।
अपने जन्म के एक महीने बाद ही 20 जून सन् 1920 बालक करोल वोयतिला को वाडोविचे पारिस के पल्ली पुरोहित फ्रांचिसेक ज़ाक ने बपतिस्मा दिया। 9 वर्ष की आयु में उन्होंने परमप्रसाद संस्कार ग्रहण किया और जब 18 वर्ष के हुए तो उन्हें दृढ़ीकरण संस्कार दिया गया।
उनकी हाईस्कूल की पढ़ाई-लिखाई वाडोविचे के ही मरचिन वादविता स्कूल में हुई। हाईस्कूल की पढ़ाई-लिखाई पूरी करने के बाद उन्होंने कराकोव जजीलियोनियन महाविद्यालय के स्कूल ऑफ ड्रामा में प्रवेश किया।
सन् 1939 ईस्वी में नाज़ियों ने महाविद्यालय को बन्द करा दिया तब उन्हें चार वर्षों तक खदान में और सोलवाय रसायन फैक्टरी में भी कार्य किया।
इसी दौरान उन्होंने अपने दिल में ईश्वरीय बुलाहट का अनुभव किया।और सन् 1942 ईस्वी में उन्होंने कराकव के क्लाडेस्टिन सेमिनरी में प्रवेश किया। इस सेमिनरी के संचालक थे कराकव के महाधर्माध्यक्ष कार्डिनल अडम स्तेफन सपयिहा। अपने सेमिनरीकाल ही में करोल जोजेफ ने एक एक थियेटर कंपनी ‘रापसोडिक थियेटर’ की स्थापना में अपना योगदान दिया।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद उनहोने अपनी पढाई कराकव के मेजर सेमिनरी में अपनी पढ़ाई जारी रखी और 1 नवम्बर सन् 1946 ईस्वी को कार्डिनल अडम स्टेफन उनका पुरोहित अभिषिक्त किया।
अभिषेक के तुरन्त बाद ही महाधर्माध्यक्ष अडम ने करोल जोजेप वोयतिवा की उनके आगे की पढ़ाई के लिये रोम भेजा और रोम सन् 1948 में थियोलॉजी में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की।
उन्होंने अपनी पढ़ाई के लिये जिस विषय को चुना था वह थी ‘संत जोन द क्रॉस की रचनाओं में विश्वास’। अपनी पढ़ाई-लिखाई के दरमियान जब भी उन्हें फुर्सत मिलती तो वह फ्रांस, बेल्ज़ियम और होलैंड के पोलिस प्रवासियों के लिये कार्य किया करता था।
सन् 1948 ईस्वी में वह पोलैंड वापस आया और करकव की पल्लियों में और कॉलेज के चैपलिन के रूप में करने लगा।
करोल जोजेफ ने कार्यों के साथ अपनी पढ़ाई का कार्य जारी रखा। सन् 1951 से 53 तक लुबलिन कथोलिक यूनिवर्सिटी में उन्होंने फिलोसॉफी और थियोलॉजी की आगे की पढ़ाई की और एक थिसिस लिखा जिसकी विषय वस्तु थी " इवालुएशन ऑफ द पोसिबीलिटी ऑफ फाउंडिंग ए कैथोलिक एथिक ऑन द एथिकल सिस्टम ऑफ मैक्स शेलर। "
अपनी पढ़ाई समाप्त करने के बाद उन्होंने कराकव के मेज़र सेमिनरी में मोरल थियोलॉजी और सोशल एथिक्स के रूप में अध्यापन कार्य भी किया फादर करोल जोजेप को तत्कालीन संत पापा पीयुस बारहवें ने 4 जुलाई सन् 1958 में ओम्बी का धर्माध्यक्ष बनाया। छः वर्ष बाद ही 13 जनवरी 1964 को संत पापा ने उन्हें कारकव का महाधर्माध्यक्ष नियुक्त किया पौल छठवें ने 26 जून 1967 को उन्हें कार्डिनल बनाने की घोषणा की।
इसी समय करोल वोयतिवा ने वाटिकन द्वितीय महासभा में हिस्सा लिया और ‘कोन्सटिट्यूशन गौदियुम इत स्पेस’ को अंतिम रूप देने में अपना बहुमूल्य योगदान दिया। 16 अक्तूबर सन् 1978 ईस्वी को कार्डिनल मंडल ने जोन पौल प्रथम की मृत्यु के बाद उन्हें संत पापा चुना और करोल वोयतिवा ने अपना नाम रखा जोन पौल द्वितीय रखा।
26 वर्षों तक कलीसिया की सेवा करते हुए विश्व युवा दिवस के आयोजन द्वारा युवाओं को प्रेरित करते पारिवारिक जीवन को मजबूत करते तीसरी सहस्त्राब्दी को नये आध्यात्मिक उत्साह से शुरू करने प्रवचन देते हुए मुक्ति वर्ष, मरिया वर्ष और यूखरिस्त वर्ष जैसे अवसरों के द्वारा काथलिक कलीसिया को आध्यात्मिकरूप से नया बनाया तथा विश्व के तमाम राष्ट्राध्यक्षों से मिलकर विश्व को शांति और सद्भाव की प्रेरणा देते हुए संत पापा जोन पौल द्वितीय की 2 अप्रैल शनिवार सन् 2005 को प्रभु में सदा के लिये सो गये।
उनके व्यक्तित्व प्रभाव और धार्मिकता से प्रभावित लोगों ने तब ही एक नारा लगाया था सान्तो सुबीतो अर्थात् अभी संत बनाओ।
श्रोताओ, आज हमने सुना संत पापा जोन पौल की संक्षिप्त जीवनी हम अगले सप्ताह आपके लिये प्रस्तुत करेंगे संत पापा जोन पौल के संदेश।








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