2011-01-18 19:43:17

कलीसियाई दस्तावेज - एक अध्ययन
मध्यपूर्व में काथलिक कलीसियाः सहभागिता व साक्ष्य
भाग - 24
4 जनवरी, 2011
सिनॉद ऑफ बिशप्स – मुसलमानों के साथ वार्ता


पाठको, ‘कलीसियाई दस्तावेज़ - एक अध्ययन’ कार्यक्रम की श्रृंखला को आगे बढ़ाते हुए हमने कलीसियाई दस्तावेज़ प्रस्तुत करने जा रहे हैं जिसे ‘कैथोलिक चर्च इन द मिड्ल ईस्टः कम्यूनियन एंड विटनेस’ अर्थात् ‘मध्यपूर्व में काथलिक कलीसियाः सहभागिता व साक्ष्य ’ कहा गया है।
संत पापा बेनेदिक्त सोलहवें ने मध्य-पूर्वी देशों के धर्माध्यक्षों की एक विशेष सभा बुलायी थी जिसे ‘स्पेशल असेम्बली फॉर द मिडल ईस्ट’ के नाम से जाना गया । इस विशेष सभा का आयोजन इसी वर्ष 10 से 24 अक्टूबर, तक रोम में आयोजित किया गया था । काथलिक कलीसिया इस प्रकार की विशेष असेम्बली को ‘सिनोद ऑफ बिशप्स’ के नाम से पुकारती है।
परंपरागत रूप से मध्य-पूर्वी क्षेत्र में जो देश आते हैं वे हैं - तुर्की, इरान, तेहरान, कुवैत, मिश्र, जोर्डन, बहरिन, साउदी अरेबिया, ओमान, कतार, इराक, संयुक्त अरब एमीरेत, एमेन, पश्चिम किनारा, इस्राएल, गाजा पट्टी, लेबानोन, सीरिया और साईप्रस। हम अपने श्रोताओं को यह भी बता दें कि विश्व के कई प्रमुख धर्मों जैसे ईसाई, इस्लाम, बाहाई और यहूदी धर्म की शुरूआत मध्य पूर्वी देशों में भी हुई है। यह भी सत्य है कि अपने उद्गम स्थल में ही ईसाई अल्पसंख्यक हो गये हैं।
वैसे तो इस प्रकार की सभायें वाटिकन द्वितीय के पूर्व भी आयोजित की जाती रही पर सन् 1965 के बाद इसका रूप पूर्ण रूप से व्यवस्थित और स्थायी हो गया। वाटिकन द्वितीय के बाद संत पापा ने 23 विभिन्न सिनॉदों का आयोजन किया है। मध्यपूर्वी देशों के लिये आयोजित धर्माध्यक्षों की सभा बिशपों की 24 महासभा है। इन 24 महासभाओं में 13 तो आभ सभा थे और 10 अन्य किसी विशेष क्षेत्र या महादेश के दशा और दिशाओं की ओर केन्द्रित थे। एशियाई काथलिक धर्माध्यक्षों के लिये विशेष सभा का आयोजन सन् 1998 ईस्वी में हुआ था।
पिछले अनुभव बताते हैं कि महासभाओं के निर्णयों से काथलिक कलीसिया की दिशा और गति में जो परिवर्तन आते रहे हैं उससे पूरा विश्व प्रभावित होता है। इन सभाओं से काथलिक कलीसिया की कार्यों और प्राथमिकताओं पर व्यापक असर होता है। इन सभाओं में काथलिक कलीसिया से जुड़े कई राष्ट्रीय व अंतराष्ट्रीय गंभीर समस्याओं के समाधान की दिशा में महत्त्वपूर्ण निर्णय लिये जाते हैं जो क्षेत्र की शांति और लोगों की प्रगति को प्रभावित करता रहा है।
एक पखवारे तक चले इस महत्त्वपूर्ण महासभा के बारे में हम चाहते हैं कि अपने प्रिय पाठकों को महासभा की तैयारियों, इस में उठे मुद्दों और कलीसिया के पक्ष और निर्देशों से आपको परिचित करा दें।
पाठको, कलीसियाई दस्तावेज़ एक अध्ययन के पिछले अंक में हमने जाना ‘मध्यपूर्व की कलीसियाः सहभागिता व साक्ष्य’ नामक दस्तावेज़ में यहूदियों के साथ वार्ता की चुनौतियों के बारे में। आज हम जानेंगे चर्च का मुसलमानों के साथ संबंध के बारे में।
94. सच पूछा जाये तो यहूदी के साथ घटित होने वाली हर बात ईसाइयों को यह अवसर प्रदान करता है कि वह यहूदी समुदाय के साथ सहयोग करे। इसके लिये येरुसालेम में इब्रानी भाषा बोलने वालों के पैट्रियारकल विकारियेट बहुत ही मददगार सिद्ध हो सकता है। इस संबंध में लोगों के जो विचार आये हैं वे इस बात के लिये आमंत्रित करते हैं कि ख्रीस्तीय समुदाय को चाहिये कि वे यह प्रयास करे कि इस क्षेत्र में किये जा रहे शांति प्रयासों में अपना योगदान दे।
95. श्रोताओ ईसाइयों का यहूदियों के साथ संबंध के बारे में चर्चा करने के बाद आइये अब ईसाइयों का मुसलमानों के साथ के बारे में चर्चा करें। अगर हम कलीसिया के अंतरधार्मिक वार्ता संबंधी बातों पर ग़ौर करें तो हम पाते हैं कि मुसलमानों से वार्ता करने की नींव भी वाटिकन कौंसिल की द्वितीय महासभा के नोस्तरा एतेते की घोषणा में ही मिलती है। नोस्तारा एताते में लिखा गया है कि " कलीसिया मुसलमानों का पूरा सम्मान करती है। वे भी एक ही ईश्वर जो स्वयं जीवित हैं खुद पर निर्भर दयालु और सर्वशक्तिमान हैं और स्वर्ग एवं पृथ्वी सृष्टिकर्ता ईश्वर जिसने लोगों से बातें की है की पूजा करते हैं। मुसलमानों के प्रति ऐसी धारणा ही ईसाई-मुसलमान वार्ता का आधार है। इसी लिये दोनों समुदायों के प्रतिनिधियों ने वाटिकन की द्वितीय महासभा के बाद कई बार विभिन्न अवसरों पर एक दूसरे से वार्ता की है। संत पापा बेनेदिक्त सोलहवें ने पोप के रूप में अपनी ज़िम्मेदारी संभालने के बाद में मुसलमानों के साथ अपने संबंध बढाने के लगातार प्रयास किये हैं। अगर हम जर्मनी की यात्रा की यात्रा के बारे में बातें करें तो पाते हैं कि संत पापा ने कहा था, " अंतरधार्मिक और अंतरसांकृतिक वार्ता को हम एक वैकल्पिक साधन नहीं मान सकते हैं । आज युग में ईसाई-ईस्लाम वार्ता निहायत ज़रूरी है। इन्हीं दोनों की वार्ता में भविष्य की बहुत सारी बातें निर्भर करती है । इस दिशा में संत पापा बेनेदिक्त सोहलवें के दो स्पष्ट कदम बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं पहला तो 20 नवम्बर सन् 2006 में तुर्की के इस्ताम्बुल के ब्लू मस्ज़िद जाना और दूसरा 11 मई 2009 को जोर्डन के अम्मान में अल-हूसेन बिन तलाई मस्ज़िद जाना। ईसाई इस्लाम वार्ता के संबंध में लोगों ने अपने जो विचार व्यक्त किय हैं उनमें उन्होंने संत पापा की यात्रा का जिक्र किया है। उनका मानना है कि मुसलमानों के साथ वार्ता के संबंध में संत पापा ने जो उदाहरण प्रस्तुत किये हैं उन्हें जारी रखा जाना चाहिये और वार्ता का दायरा विश्व के सब मुसलमानों तक किये जाने की आवश्यकता है।
96. यहाँ पर इस बात को भी बता दिया जाना उचित होगा कि ईसाई-इस्लाम वार्ता में कई सिद्धांत हैं जो हमारी मदद कर सकते हैँ। सर्वप्रथम तो इस बात को ध्यान दिया जाना चाहिये कि मध्यपूर्वी के ईसाई और मुसलमान एक ही देश के नागरिक है। उनकी एक भाषा है संस्कृति है और इससे अगर बढ़ कर सोचें तो हम ईसाई हों या मुस्लिम सब एक साथ देश की अच्छाइयों और चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। दूसरी ओर ईसाई समुदायों को चाहिये कि वे अपने जीवन से येसु के सुसमाचार का साक्ष्य दें। आपको याद होगा कि जब संत पापा बेनेदिक्त सोलहवें ने पवित्र भूमि येरूसालेम में कदम रखा था तब उन्होंने ईसाई-इस्लाम वार्ता के लिये एक और सिद्धांत को प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा था, " चाहे हम जो भी हों हमारा जड़ें एक हैं। इस्लाम का जन्म और उदय भी उस क्षेत्र में हुआ जहाँ पर यहूदी धर्म और ईसाई धर्म की विभिन्न शाखायें यहूदी ईसाई अंतोखियाई ईसाई बिजनटाइन ईसाई आदि विद्यमान थे। और इन सब बातों और परिस्थितियों की चर्चा कुरान की परंपरा में झलकती है। और इसलिये यह बात बिल्कुल साफ है कि दोनों धर्मों की जड़ें और परिस्थितियाँ एक समान हैं। इसलिये यह महत्वपूर्ण है कि दोनों धर्मावलंबी वार्तालाप का दरवाज़ा खुला रखें और न केवल द्विपक्षीय वार्ता करें वरन् त्रिपक्षीय वार्तालाप के लिये भी अपने को तैयार रखें ताकि ईसाई इस्लाम और यहूदी सभी मिलकर कार्य कर सौहार्दपूर्ण जीवन जी सकें। श्रोताओ इतना ही नहीं ईसाई-अरब संयुक्त साहित्य की विरासत इतनी समृद्ध है कि यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण है कि कलीसिया मुसलिमों के साथ अनवरत वार्तालाप करे। यह भी सत्य है कि ईसाई इस्लाम वार्ता को कठिन दौर से होकर गुजरना पड़ा है । इसका मुख्य कारण रहा है राजनीति और धर्म को अलग-अलग रख कर नहीं देख पाना। इसी का नतीजा रहा है कि ईसाइयों को मध्यपूर्व में मुसलमान अपने राष्ट्र के नागरिक के रूप में नहीं स्वीकार कर पाते हैं। यह भी सत्य है कि ईसाई मध्यपूर्वी राष्ट्रों में इस्लाम के उदय के वर्षों पूर्व से रहते आये हैं। आज ज़रूरत है कि लोग धार्मिक स्वतंत्रता और मानवाधिकार का सम्मान करें तब ही शांति कायम हो पायेगी।
पाठको, कलीसियाई दस्तावेज़ एक अध्ययन के आज हमने जाना ‘मध्यपूर्व की कलीसियाः सहभागिता व साक्ष्य’ नामक दस्तावेज़ में चर्च का मुसलमानों के साथ संबंध के बारे में। अगले सप्ताह हम इस्लाम-ईसाई वार्ता के बारे में सुनना जारी रखेंगे








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