2011-01-18 19:56:06

कलीसियाई दस्तावेज - एक अध्ययन मध्यपूर्व में काथलिक कलीसियाः सहभागिता व साक्ष्य
भाग -25
11 जनवरी, 2011
सिनॉद ऑफ बिशप्स - मुसलमानों के साथ वार्ता जारी


पाठको, ‘कलीसियाई दस्तावेज़ - एक अध्ययन’ कार्यक्रम की श्रृंखला को आगे बढ़ाते हुए हमने कलीसियाई दस्तावेज़ प्रस्तुत करने जा रहे हैं जिसे ‘कैथोलिक चर्च इन द मिड्ल ईस्टः कम्यूनियन एंड विटनेस’ अर्थात् ‘मध्यपूर्व में काथलिक कलीसियाः सहभागिता व साक्ष्य ’ कहा गया है। संत पापा बेनेदिक्त सोलहवें ने मध्य-पूर्वी देशों के धर्माध्यक्षों की एक विशेष सभा बुलायी थी जिसे ‘स्पेशल असेम्बली फॉर द मिड्ल ईस्ट’ के नाम से जाना गया । इस विशेष सभा का आयोजन इसी वर्ष 10 से 24 अक्टूबर, तक रोम में आयोजित किया गया था । काथलिक कलीसिया इस प्रकार की विशेष असेम्बली को ‘सिनोद ऑफ बिशप्स’ के नाम से पुकारती है।
परंपरागत रूप से मध्य-पूर्वी क्षेत्र में जो देश आते हैं वे हैं - तुर्की, इरान, तेहरान, कुवैत, मिश्र, जोर्डन, बहरिन, साउदी अरेबिया, ओमान, कतार, इराक, संयुक्त अरब एमीरेत, एमेन, पश्चिम किनारा, इस्राएल, गाजा पट्टी, लेबानोन, सीरिया और साईप्रस। हम अपने श्रोताओं को यह भी बता दें कि विश्व के कई प्रमुख धर्मों जैसे ईसाई, इस्लाम, बाहाई और यहूदी धर्म की शुरूआत मध्य पूर्वी देशों में भी हुई है। यह भी सत्य है कि अपने उद्गम स्थल में ही ईसाई अल्पसंख्यक हो गये हैं।
वैसे तो इस प्रकार की सभायें वाटिकन द्वितीय के पूर्व भी आयोजित की जाती रही पर सन् 1965 के बाद इसका रूप पूर्ण रूप से व्यवस्थित और स्थायी हो गया। वाटिकन द्वितीय के बाद संत पापा ने 23 विभिन्न सिनॉदों का आयोजन किया है। मध्यपूर्वी देशों के लिये आयोजित धर्माध्यक्षों की सभा बिशपों की 24 महासभा है। इन 24 महासभाओं में 13 तो आभ सभा थे और 10 अन्य किसी विशेष क्षेत्र या महादेश के दशा और दिशाओं की ओर केन्द्रित थे। एशियाई काथलिक धर्माध्यक्षों के लिये विशेष सभा का आयोजन सन् 1998 ईस्वी में हुआ था।
पिछले अनुभव बताते हैं कि महासभाओं के निर्णयों से काथलिक कलीसिया की दिशा और गति में जो परिवर्तन आते रहे हैं उससे पूरा विश्व प्रभावित होता है। इन सभाओं से काथलिक कलीसिया की कार्यों और प्राथमिकताओं पर व्यापक असर होता है। इन सभाओं में काथलिक कलीसिया से जुड़े कई राष्ट्रीय व अंतराष्ट्रीय गंभीर समस्याओं के समाधान की दिशा में महत्त्वपूर्ण निर्णय लिये जाते हैं जो क्षेत्र की शांति और लोगों की प्रगति को प्रभावित करता रहा है। एक पखवारे तक चले इस महत्त्वपूर्ण महासभा के बारे में हम चाहते हैं कि अपने प्रिय पाठकों को महासभा की तैयारियों, इस में उठे मुद्दों और कलीसिया के पक्ष और निर्देशों से आपको परिचित करा दें।
पाठको, कलीसियाई दस्तावेज़ एक अध्ययन के पिछले अंक में हमने पढ़ा ‘मध्यपूर्व की कलीसियाः सहभागिता व साक्ष्य’ नामक दस्तावेज़ में वर्णित चर्च का मुसलमानों के साथ संबंध के बारे में। आज हम सुनेंगे इस्लाम-ईसाई वार्ता के बारे में सुनना जारी रखेंगे ।
99. ईसाई इस बात क लिये बुलाये गये है कि वे अपने वे अपना जीवन ईमानदारीपूर्वक जी सकें। उन्हें अपने को उन कार्यों या बातों से बचना चाहिये जिससे यह दिखाई पड़े कि वे अल्पसंख्यक है। उन्हें चाहिये कि वे अपने मन से सुरक्षात्मक या एकान्तप्रिय प्रवृति से बचे रहें। अल्पसंख्यकों में कई बार इस प्रकार की प्रवृति पायी जाती है। इस संबंध में कई लोगों का यह विचार है कि मुसलिमों और ईसाईयों को एक साथ मिल कर कार्य करनी चाहिये ताकि क्षेत्र में सामाजिक न्याय शांति और स्वतंत्रता का वातावरण बन पायेगा।इसी वातावरण में मानव अधिकारों की रक्षा हो पायेगी और पारिवारिक मूल्यों को पूर्ण सम्मान मिल पायेगी। 98. श्रोताओ, मध्य पूर्व की कलीसिया का मानना है कि शांति पूर्ण वातावरण को बढावा देने के लिये इस समय में नयी पीढ़ी के युवाओं को तैयार किये जाने की आवश्यकता है इसके लिये उन्हें स्कूली और महाविद्यालय की शिक्षा दी जानी चाहिये। शिक्षा के संबंध में लोगों ने जो विचार दिये हैं उनमें इस बात पर बल दिया गया है कि किताबों की विषय वस्तु को बदले जाने की आवश्यकता है विशेष करके धर्म के संबंध में। ऐसा करना इसलिये ज़रूरी है ताकि एक-दूसरे के प्रति जो गलत पूर्वधारणायें हैं उन्हें दूर किया जा सके।इतना ही नहीं युवाओं को इस बात के लिये प्रोत्साहन दिया जाना चाहिये कि वे सामूदायिक क्रिया-कलापों का आयोजन करें और उसमें हिस्सा लें ताकि अंतरधार्मिक सद्भाव की भावना मजबूत हो सके। ऐसा होने से धर्म एक-दूसरे को आपस में जोड़ने का कार्य करेगा न कि तोड़ने का।99.श्रोताओ यहाँ पर हम आपको एक बात बता दें कि दूसरे धर्म के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध बनाये रखने का यह मतलब नहीं है कि दूसरे धर्मावलंबी बन जाते हैं। इसका मतलब यह है कि हम एक-दूसरे का सम्मान करते हैं। हम यह भी जानते हैं कि धार्मिक सिद्धांत और विचारधारायें अलग-अलग है फिर भी हम एक-दूसरे को समझने का प्रयास करते हैं। जब दो धर्मों के बीच एक-दूसरे को समझने की इच्छा हो तो व्यक्ति दूसरे व्यक्ति का सम्मान करेगा और उनके बीच सदा ही वार्ता का द्वार खुला रहेगा। और ऐसा होने से व्यक्ति ‘सत्य के लिये वार्ता’ करने को तत्पर होगा और उन दूसरे धर्म में व्याप्त सभी सकारात्मक बातों सम्मान करेगा। ईसाई इसलाम धर्म की शिक्षा नैतिकता एक ईश्वर पर विश्वास का तो सम्मान करेगा ही उनके दृढ़ मत का भी सम्मान करेगा।
100. इस्लाम ईसाई संबंधों को समझने का प्रयास करने के बाद आइये हम इस बात पर विचार करें कि ईसाइयों ने समाज के लिये किस तरह से अपना योगदान दिया है। इस मुद्दे पर विचार करते हुए मध्यपूर्व के ईसाई यहूदी मुसलिम और द्रूज सभी दो प्रकार की चुनौतियों का सामना करते हैं। मध्यपूर्व की जो वर्त्तमान स्थिति है वह है उसे शांतिपूर्ण स्थिति नहीं कही जा सकती है मध्यपूर्व के लोग शांति और अमन चैन की तलाश में हैं और दूसरी ओर क्षेत्र में वह है सैन्य शक्ति के द्वारा शांति स्थापना के प्रयास जारी है। आम लोगों का विचार है कि इस क्षेत्र में शांति स्थापना की ज़िम्मेदारी उन पर डाल दी गयी है जो शक्ति प्रयोग के द्वारा शांति की स्थापना पर विश्वास करते हैं।आज मध्यपूर्व की स्थिति ऐसी है कि शक्तिशाली तो शक्ति प्रयोग द्वारा समस्याओं का समाधान चाहते हैं पर कमजोर भी सोचते हैं कि हिंसा के द्वारा वर्त्तमान अशांति की स्थिति से बाहर निकला जा सकता है। मध्यपूर्व के कई देशों में लड़ाई की स्थिति बरकरार है और इस युद्ध की स्थिति के कारण यहाँ के लोग कई परेशानियाँ झेल रहे हैं। इसका नजीजा यह भी हुआ कि इस क्षेत्र के उपयोग कर विश्व में आतंकवादी गतिविधियों अंज़ाम दिया है।
101. श्रोताओ, आपको हम यह भी बता दें कि मध्यपूर्व में अन्य लोग ईसाई धर्म को यूरोप से जोड़ कर देखा करते हैं।यद्यपि पश्चिम का नींव ख्रीस्तीयता और इसके ख्रीस्तीय सभ्यता पर है पर आज इसकी जो सरकार है वह पूर्णतः धर्मनिर्पेक्ष है और इसकी राजनीतिक व्यवस्था का आधार भी का सीधा विरोध करती है। फिर भी मुसलमानों के धर्म और राजनीतिक के अन्तर को समझने के प्रयास के अभाव के कारण मध्यपूर्वी के ख्रीस्तीयों को कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। मुसलमानों के जनमत चर्च के संबंध में पश्चिमी देशों के राजनीतिक निर्णयों के आधार पर बनाये जाते हैं। ऐसी परिस्थिति में द्वितीय वाटिकन कौसिंल द्वरा दिये गये धर्मनिर्पेक्ष सांसारिक वास्तविकताओं की वैध स्वायत्तता के अर्थ पर विचार-विमर्श किये जाने की आवश्यकता है।
102. ऐसी परिस्थिति मे मध्यपूर्व में ईसाइयों के योगदान के बारे में यदि हम बातें करें तो यह कहना उचित होगा कि उनका कार्य सिर्फ़ सुसमाचार के मूल्यों का प्रचार-प्रसार और साक्ष्य केवल नहीं है पर उन लोगों को सत्य वचन बोलना भी है जो शक्तिशाली हैं। यहाँ के ईसाइयों को उन लोगों का भी सामना करना पड़ता है जो राजनीतिक क्रियायें देश के हित में नहीं है। कई बार तो उनका सामना ऐसे लोगों से करना पड़ता है जो सिर्फ़ हिंसा की भाषा समझते हैं। कई बार शांति प्रयास भी होते हैं पर इसमें हिंसा के पथ का भी सहारा लेने को उतावले होते हैं। यहाँ पर ख्रीस्तीय योगदान के लिये विशेष साहस की ज़रूरत है पर यह अपरिहार्य है।

पाठको, कलीसियाई दस्तावेज़ एक अध्ययन के आज हमने पढ़ा ‘मध्यपूर्व की कलीसियाः सहभागिता व साक्ष्य’ नामक दस्तावेज़ में चर्च का मुसलमानों के साथ संबंध के बारे में। अगले सप्ताह हम जानकारी प्राप्त करेंगे ‘आधुनिकता’ की अस्पष्टता और अंतरधार्मिक वार्ता के बारे में








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